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देशभक्ति और देशद्रोह के बारे में चन्‍द उद्धरण

अगर देशप्रेम की परिभाषा सरकार की अन्धआज्ञाकारिता नहीं हो, झण्डों और राष्ट्रगानों की भक्तिभाव से पूजा करना नहीं हो; बल्कि अपने देश से, अपने साथी नागरिकों से (सारी दुनिया के) प्यार करना हो, न्याय और जनवाद के उसूलों के प्रति प्रतिबद्दता हो; तो सच्चे देशप्रेम के लिए ज़रूरी होगा कि जब हमारी सरकार इन उसूलों को तोड़े तो हम उसके हुक्म मानने से इंकार करें!

उद्धरण

‘‘राष्ट्र की एकता मंचों पर लम्बे-लम्बे भाषण से नहीं होगी। इसके लिए हमें ठोस काम करना होगा। वह ठोस काम यही है कि देश के भीतर धर्म और जाति-भेद ने जितनी दीवारें खड़ी की हैं, उन्हें गिरा देना। हाँ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या लामज़हब होने से हमारे खान-पान, शादी-ब्याह में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। ज़रूरत पड़ने पर हमें इसके लिए मज़हब से भी लोहा लेने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

राहुल सांकृत्यायन / गणेशशंकर विद्यार्थी

हमारे सामने जो मार्ग है, उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना –यह प्रगति नहीं, प्रतिगति – पीछे लौटना – होगी। हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है। फिर जो कुछ आज इस क्षण हमारे सामने कर्मपथ है, यदि केवल उस पर ही डटे रहना हम चाहते हैं तो यह प्रतिगति नहीं है, यह ठीक है, किन्तु यह प्रगति भी नहीं हो सकती यह होगी सहगति – लग्गू–भग्गू होकर चलना – जो कि जीवन का चिह्न नहीं है। लहरों के थपेड़ों के साथ बहने वाला सूखा काष्ठ जीवन वाला नहीं कहा जा सकता। मनुष्य होने से, चेतनावान समाज होने से, हमारा कर्तव्य है कि हम सूखे काष्ठ की तरह बहने का ख्याल छोड़ दें और अपने अतीत और वर्तमान को देखते हुए भविष्य के रास्ते को साफ करें जिससे हमारी आगे आने वाली सन्तानों का रास्ता ज्यादा सुगम रहे और हम उनके शाप नहीं, आशीर्वाद के भागी हों।

भारतीय भौतिकवादी परम्परा के आधुनिक चिन्तक और ‘सांस्कृतिक सेनापति’ राहुल सांकृत्यायन

धर्म या मज़हब का असली रूप क्या है? मनुष्य-जाति के शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है। यदि उसमें और भी कुछ है, तो वह है पुरोहितों और सत्ताधारियों के धोखे-फ़रेब, जिनसे वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से बाहर जाने देना नहीं चाहते। मनुष्य के मानसिक विकास के साथ-साथ यद्यपि कितने ही अंशों में धर्म ने भी परिवर्तन किया है, कितने ही नाम भी उसने बदले हैं, तो भी उनसे उसके आन्तरिक रूप में परिवर्तन नहीं हुआ है। वह आज भी वैसा ही हजारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासताओं का समर्थक है, जैसा कि पाँच हजार वर्ष पूर्व था। सूत्र वही है, सिर्फ़ भाष्य बदलते गये हैं।