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चुनावी पार्टियों के अरबों की नौटंकी भी नहीं रोक सकी महँगाई डायन के कहर को!

महँगाई के विरोध में भाजपा द्वारा आयोजित रैली के एक दिन पहले मैं अपने कुछ मित्रों के साथ नयी दिल्ली स्टेशन जा रहा था। पूरा शहर मानो भगवा रंग में डुबो दिया गया था। सड़कों, गलियों, दीवारों को बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, वाल राइटिंग, झण्डे और चमचमाते चमकियों से पाट दिया गया था। अख़बारों के पन्ने का भी रंग रैली के विज्ञापनों से सराबोर था। स्टेशन का दृश्य भी कुछ वैसा ही था। जगह-जगह स्वागत डेस्क और सहायता डेस्क लगे हुए थे जहाँ पर कार्यकर्ता चमकते-दमकते कपड़ों में जूस और स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वदन कर रहे थे। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि महँगाई का ज़रा भी असर उनकी सेहत पर नहीं था, उल्टे कुछ की तो कुम्भकरणा स्वरूपम काया थी जिसे देखकर तो मँहगाई डायन भी मूर्छित हो जाती! प्लेटफार्म पर खड़े कुछ लोग बता रहे थे कि कई जगहों से पूरी ट्रेन रिज़र्व होकर रैली के लिए आ रही है। वहीं मज़दूरों की छोटी-बड़ी टोलियाँ भी स्वागत डेस्क के करीब से गुज़र रही थी। यह वह आबादी थी जिस पर मँहगाई डायन ने अपना कहर बरपाया है, जिसे यह भव्य आयोजन खाये-पिये व्यक्ति के द्वारा आयोजित एक भव्य नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखायी पड़ता होगा।

किस बात का जश्न?

वास्तव में पिछले एक साल में देश की ग़रीब मेहनतकश जनता को क्या मिला है, यह सभी जानते हैं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति दर 17 प्रतिशत के करीब जा रही है, जिसका अर्थ है आम आदमी की थाली से एक-एक करके दाल, सब्ज़ी आदि का ग़ायब होता जाना। रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में चल रही है। कुल मुद्रास्फीति की दर भी जून के तीसरे सप्ताह में 10 प्रतिशत को पार कर गयी। यानी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत का हर सामान महँगा हो जाएगा। इसकी सबसे भयंकर मार देश के मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसानों, और आम मध्यवर्ग पर पड़ेगा।

कमरतोड़ महँगाई : पूँजीपति वर्ग द्वारा वसूला जाने वाला एक ‘‘अप्रत्यक्ष कर’’

महँगाई की परिघटना पूँजीवादी व्यवस्था की एक स्वाभाविक परिघटना है । पूँजीवाद ऐसा हो ही नहीं सकता जिसमें जनता को महँगाई से निजात मिल सके । एक मुनाफा–केन्द्रित व्यवस्था हमें यही दे सकती है । इससे निजात सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकता है जो निजी मालिकाने के आधार पर मुनाफे की अंधी हवस पर न टिकी हो, जो सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक उत्पादन करती हो, जो सभी प्रकार के संसाधनों के साझे मालिकाने पर आधारित हो और जो योजनाबद्ध ढंग से काम करती हो, न कि अराजक ढंग से । संक्षेप में, महँगाई से मुक्ति एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकती है जिसमें उत्पादन राज–काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में हो ।

ख़र्चीला और परजीवी होता “जनतंत्र”, लुटती और बरबाद होती जनता

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पोषक तत्वों की लगातार कमी होती गई है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दालें और दूध तो गरीब आदमी में भोजन से नदारद ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। बेतहाशा बढ़ती महँगाई ने आम मेहनतक़श लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों में कटौती करने के लिए विवश कर दिया है।