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ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार भारत बेरोजगारी दर में एशिया में शीर्ष पर

इसी साल फरवरी महीने में भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र रेलवे द्वारा 89,409 पदों के लिए रिक्तियाँ निकाली गयीं, जिसके लिए 2.8 करोड़ से भी अधिक आवेदन प्राप्त किये गये। मतलब हर पद के लिए औसतन 311 लोगों के बीच मुकाबला होगा। आवेदन भरने वालों में मैट्रिक पास से लेकर पी.एच.डी. डिग्री धारक तक लोग मौजूद थे। आवेदकों की उम्र 18 साल से लेकर 35 साल के बीच है, अर्थात् एक पूर्ण युवा और नौजवान आबादी। उपरोक्त संख्या अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भारत में बेरोजगारी का आलम क्या है। यह सरकार द्वारा किये गये हर उस दावे को झुठलाने के लिए काफी है जिसमें वह दावा करती है कि उसने देश में रोजगार पैदा किया है। साथ ही यह सरकार की मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं की पोल भी खोल कर रख देती है। यह कोई ऐसी पहली घटना नहींं है। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में चपरासी के 315 पदों के लिए 23 लाख आवेदन भरे गये थे, वहीं पश्चिम बंगाल में भी चपरासी और गार्ड की नौकरी की लिए 25 लाख लोगों ने आवेदन भरा था। दोनों ही जगह स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पीएचडी डिग्री धारक लोग भी उस भीड़ में मौजूद थे। ऐसे तमाम और भी कई उदाहरण हैं जो देश में बेरोजगारी की तस्वीर खुलेआम बयाँ करते हैं।

‘पहाड़ों में जवानी ठहर सकती है’, बशर्ते…

कहते हैं कि ‘पहाड़ों में पानी और जवानी ठहर नहीं सकती’। यह कहावत पहाड़ के दर्द को बताती है। इसी ‘दर्द’ ने पहाड़ की जनता को अलग राज्य बनाने के संघर्ष के लिए उकसाया। लेकिन राज्य बनने के बाद भी जिन कारणों से पहाड़ की जनता की सारी उम्मीदें, आकांक्षाएँ टूटी हैं उन कारणों की पड़ताल किये बिना उत्तराखण्ड राज्य में किसी भी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अलग राज्य बनने के सत्रह वर्षों के दौरान जिस तरह पूँजी का प्रवेश, कॉरपोरेटों, भू-खनन माफियाओं की पहुँच बढ़ी है, उसने पूरे पहाड़ की जैव विविधता, पर्यावरण, नदियों, खेतों, वनों-बगीचों को तबाह कर दिया है।

भाजपा सरकार का नया नारा: “बहुत हुई बेरोज़गारी की मार, तलो पकौड़ा, लगाओ पान!”

इस तमाशे के बादशाह तो भाजपा सरकार के मुखिया हैं जिन्होंने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्ट उप इंडिया’ जैसे जुमलों का खूब बड़ा गुब्बारा फुलाया और उसकी हवा निकल जाने पर मेहनतकश अवाम को पकौड़े तलने और भीख माँगने की हिदायत दे रहें हैं। हाल ही में त्रिपुरा के चुनाव जीतने के बाद वहाँ के मुख्य मंत्री बिप्लब देव भी प्रधान सेवक के पदचिह्नों पर चलते हुए वहाँ के युवाओं को प्रवचन देते हुए कह रहे हैं कि सरकारी नौकरी के पीछे भागने की बजाये अगर युवा पान की दूकान लगाए तो 10 साल में उनके खाते में 5 लाख रुपये जमा हो जाएँगे।

पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारी

पूँजीवादी उत्पादन तकनीकों के विकास और मशीनों के व्यापक तौर पर अपनाये जाने से कई श्रम कार्य इतने आसान बन गये कि बहुत-सी औरतें और बच्चे भी भाड़े के मजदूरों की जमात में शामिल हो सकते थे। पूँजीपति उन्हें काम पर रखना पसन्द करते थे क्योंकि उनसे कम मज़दूरी पर काम कराया जा सकता था। इसके साथ ही पूँजीवादी उत्पादन के फैलाव के साथ बड़ी संख्या में छोटे माल उत्पादक और छोटे पूँजीपति दिवालिया हो जाते हैं और अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। छोटे व्यापारी, छोटे दुकानदार आदि को पूँजी लगातार उजाड़ती रहती है।

पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा फैलाये जाने वाले बेरोज़गारी के “कारणों” की पड़ताल

बेरोज़गारी के संकट का ज़िम्मेदार जनता को ही ठहराने के लिए सबसे ज़्यादा उचारा जाने वाला जुमला होता है, “जनसँख्या बहुत बढ़ गयी है, संसाधन हैं नहीं! अब ‘बेचारी’ सरकार किस-किसको रोज़गार दे!” किन्तु अफ़सोसजनक बात यह है कि इस जुमले में कोई दम नहीं है और यह झूठ के सिवाय कुछ भी नहीं है। कोई भी वस्तु जब कम या ज़्यादा होती है तो वह अन्य वस्तु के साथ तुलना में कम या ज़्यादा होती है। निरपेक्ष में कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं होता। इसी तरह जनसँख्या को भी संसाधनों की तुलना में ही देखा जाना चाहिए। उत्पादन का स्वरूप, उपजाऊ ज़मीन, समुद्र, नदियाँ, खनिज पदार्थ इत्यादि की तुलना में ही जनसँख्या को रखा जा सकता है।

टीसीएस द्वारा कर्मचारियों की छँटनी: अन्त की ओर अग्रसर आईटी सेक्टर का सुनहरा युग

यह अच्छी बात है कि टीसीएस द्वारा निकाले गये कर्मचारियों ने हार नहीं मानी है और सोशल नेटवर्किंग के ज़रिये अपना एक फ़ोरम बनाकर और विभिन्न शहरों में प्रदर्शन करके कम्पनी के इस क़दम का एकजुट होकर विरोध करने का फैसला किया है। यह बिल्कुल हो सकता है कि कम्पनी या सेक्टर आधारित इस फ़ौरी लड़ाई से कुछ कर्मचारियों को कम्पनी द्वारा बहाल भी कर लिया जाये लेकिन यह समझना बहुत ज़रूरी है कि यह समस्या किसी एक कम्पनी या सेक्टर की समस्या नहीं है बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के सभी सेक्टरों में यह समस्या व्याप्त है जिसके लिए स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। ऐसे में अपनी फ़ौरी माँगों के लिए कम्पनी के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दूरगामी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई की तैयारी करनी होगी। इसके लिए आईटी सेक्टर में काम कर रहे कर्मचारियों को मज़दूर वर्ग के संघर्षों के साथ एकजुटता बनानी होगी। छँटनी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से स्थायी रूप से निजात पाने के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प खड़ा करना ही एकमात्र रास्ता है।

मीडिया ने फ़ूलाया नौकरियां बढ़ने का गुब्बारा। नौजवानों के साथ एक मज़ाक!

पिछले दिनों दो प्रमुख बाज़ारू मीडिया संस्थानों-इंडिया टुडे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ने देश भर में नौकरियों की भरमार का जो हो-हल्ला मचाया, उसकी असलियत जानने के लिए कुछ और पढ़ने या कहने की जरूरत नहीं है, बस खुली आँखों से आस-पड़ोस में निगाह डालिये; आपको कई ऐसे नौजवान दिखेंगे जो किसी तरह थोड़ी-बहुत शिक्षा पाकर या महँगी होती शिक्षा के कारण अशिक्षित ही सड़कों पर चप्पल फ़टकारते हुए नौकरी के लिए घूम रहे है या कहीं मज़दूरी करके इतना ही कमा पाते है कि बस दो वक्त का खाना खा सके। शायद आप स्वयं उनमे से एक हों और नंगी आँखों से दिखती इस सच्चाई को देखकर कोई भी समझदार और संवेदनशील आदमी मीडिया द्वारा फ़ैलाई गई इस धुन्ध की असलियत को समझ सकता है।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना – आखिर गारण्टी किसकी और कैसे?

बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी की पूँजीवाद को हमेशा ही आवश्यकता रहती है जो रोज़गारशुदा मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए पूँजीपतियों द्वारा इस्तेमाल की जाती है। अगर बेरोज़गार मज़दूर न हों और श्रम आपूर्ति श्रम की माँग के बिल्कुल बराबर हो, तो पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की हर माँग को मानने के लिए विवश होगा। इसलिए पूँजीपति वर्ग तकनोलॉजी को उन्नत करके, मज़दूरों का श्रमकाल बढ़ाकर एक हिस्से को छाँटकर बेरोज़गारों की जमात में शामिल करता रहता है। लेकिन जब बेरोज़गारी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है और सामाजिक अशान्ति का कारण बनने लगती है और सम्पत्तिवानों के कलेजे में भय व्यापने लगता है तो सरकार के दूरदर्शी पहरेदार कुछ ऐसी योजनाओं के लॉलीपॉप जनता को थमाकर उनके गुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव करते हैं। यह व्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक होता है कि कुछ ऐसे ‘चेक्स एण्ड बैलेंसेज़’ का तंत्र हो जो व्यवस्था की दूरगामी रक्षा का काम करता हो। जब पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की हवस में अन्धा होकर जनता को लूटने लगे और सड़कों पर धकेलने लगे तो कुछ कल्याणकारी नीतियाँ लागू कर दी जाती हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार में ऐसे तमाम पहरेदार–चौकीदार बैठे हैं जो समझते हैं कि कब जनता को भरमाने के लिए कोई कल्याणकारी झुनझुना उनके हाथ में थमा देना है। रोज़गारी गारण्टी योजना, अन्त्योदय योजना आदि ऐसे ही कुछ कल्याणकारी झुनझुने हैं जिनसे होता तो कुछ भी नहीं है लेकिन शोर बहुत मचता है।

संगठित क्षेत्र में भी बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि

बेरोज़गारी का कारण उन्नत तकनीक नहीं है बल्कि वह उत्पादन प्रणाली व उत्पादन सम्बन्ध हैं जिनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। बेरोज़गारी को तो वैसे ही बेहद कम किया जा सकता है अगर मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेना बन्द कर दिया जाय। मिसाल के तौर पर, भारत में मज़दूरों को आज 10 से 14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। उन्नत तकनीकों को बढ़ाकर तो लागत में सापेक्षिक कटौती की ही जाती है लेकिन साथ ही मज़दूरों के श्रम काल को बढ़ाकर उसमें निरपेक्ष रूप से भी कटौती की जाती है। ये दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में साथ-साथ घटित होती हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके श्रमकाल को घटाया जाय और कामगारों के जीवन में भी मानसिक, सांस्कृतिक उत्पादन और मनोरंजन की गुंजाइश पैदा की जाय। लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग स्वयं एक पशु में तब्दील हो चुका है। मज़दूर उसके लिए महज मशीन का एक विस्तार है, कोई इंसान नहीं, जिसे वह बेतहाशा निचोड़ता है। आज अगर मज़दूरों से 6 घण्टे ही काम लिया जाय तो भी रोज़गार के अवसरों में दो से ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। लेकिन ऐसा इस पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है। इसलिए बेहतर है विकल्प के बारे में सोचें।