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शिवसेना की ‘नज़र’ में एक और किताब ‘ख़राब’ है!

दरअसल इस घटना में और ऐसी ही तमाम घटनाओं में भी, जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटा जा रहा हो तो मुठ्ठी भर निरंकुश फासिस्ट ताकतों के सामने यह व्यवस्था साष्ट्रांग दण्डवत करती नज़र आती है। दिनों-दिन इस व्यवस्था के जनवादी स्पेस के क्षरण-विघटन को साफ-साफ देखा जा सकता है। अगर ग़ौर से देखें तो यह इस पूँजीवादी व्यवस्था की मौजूदा चारित्रिक अभिव्यक्ति है। ज्यों-ज्यों पूँजी का चरित्र बेलगाम एकाधिपत्यवादी होता जा रहा है, त्यों-त्यों इसका जनवादी माहौल का स्कोप सिकुड़ता चला जा रहा है।

नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है……

बाबा नागार्जुन का जन्मशताब्दी वर्ष चल रहा है। जनसाधारण की भाषा में लिखने वाले नागार्जुन को 21 नवम्बर, 2010 को दिल्ली के एक इलाके में कुछ विशिष्ट ढंग से याद किया गया। आमजन के सपनों को अपनी रचना में जुबान देने वाले कवि को आमजनों व साहित्यकर्मियों ने बेहद आत्मीय रूप में अपने आस-पास महसूस किया। सादतपुर (दिल्ली) में तमाम साहित्यकर्मियों, कलाकारों, नौजवानों ने नागार्जुन की जन्मशती के अवसर पर एक साहित्य उत्सव का आयोजन किया। जिसमें बाबा नागार्जुन के साहित्य से जुड़ाव रखने वाले आमजनों के साथ-साथ हिन्दी समाज के ख्यातिलब्ध लेखकों, कलाकारों की बढ़-चढ़कर की गयी यह गतिविधि बेहद महत्त्वपूर्ण है।

नागार्जुन की जन्मशती के मौके पर…..

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है

जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ

नागार्जुन की काव्ययात्रा काफी विराट फलक लिये हुए है। बहुआयामी रूपों में वो हमारे सामने प्रकट होते हैं जिन पर विस्तार से बात कर पाना इस छोटे-से लेख में कदापि सम्भव नहीं है। तथापि हम विस्तार में जाने का लोभ संवरण करते हुए इतना ज़रूर कहेंगे कि उनकी कविताओं में, वे चाहे प्रकृति को लेकर हो या, अन्याय के विषयों पर लिखी गयी हों, सामाजिक असमानता, वर्ग-भेद, शोषण-उत्पीड़न, वर्ग-संघर्ष कभी भी पटाक्षेप में नहीं गया। बल्कि वह खुरदरी ज़मीन सदैव कहीं न कहीं बरकरार रही है, जिस परिवेश में वह कविता लिखी जा रही है। यही सरोकारी भाव नागार्जुन को जनकवि का दर्जा प्रदान करती है।