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तीन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव: तैयारियाँ, जोड़-तोड़ और सम्भावनाएँ

भाजपा अगले पाँच वर्षों में, पहले लोकलुभावन नारों-वायदों की लहर के सहारे और फिर हिन्दुत्व और अन्धराष्ट्रवाद के कार्डों के सहारे देश के ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों की सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है ताकि नवउदारवादी एजेण्डा को अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इस आर्थिक एजेण्डा के साथ-साथ निरंकुश दमन तथा साम्प्रदायिक विभाजन, मारकाट तथा शिक्षा और संस्कृतिकरण के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट एजेण्डा का भी अमल में आना लाजिमी है। इसका मुकाबला बुर्जुआ संसदीय चुनावों की चौहद्दी में सम्भव ही नहीं। मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता तथा मध्यवर्ग के रैडिकल प्रगतिशील हिस्से की जुझारू एकजुटता ही इसका मुकाबला कर सकती है। फासीवाद अपनी हर सूरत में एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। एक क्रान्तिकारी प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन ही उसका कारगर मुकाबला कर सकता है और अन्ततोगत्वा उसे शिकस्त दे सकता है।

‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता

हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।