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बच्चो को बचाओ! सपनों को बचाओ!

भारत में बच्चों की स्थिति बहुत ही ख़तरनाक है। यहाँ डेढ़ करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो बीड़ी, कालीन, कपड़ा उद्योग तथा खनन जैसे खतरनाक उद्योगों में काम करते हैं। उनकी आयु सीमा 5 से 14 वर्ष के बीच की है। इन ख़तरनाक उद्योगों में पैदा होने वाली गर्द, गन्ध, गैसें उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालती हैं। बीड़ी बनाने, कालीन बुनने, कपड़ों, चूड़ी, काँच के बर्तन आदि की कटाई-रंगाई, खनन, गाड़ियों के ग़ैराज, चाय की दुकानों, ढाबों आदि में बड़े पैमाने पर बच्चों से काम लिया जाता है। हालाँकि ग़ैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक यह आँकड़ा ढाई करोड़ तक जाता है।

जातिगत उत्पीड़नः सभ्य समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग

आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। आज़ादी के वक्त लोकतांत्रिक, ‘‘समाजवादी’‘, धर्मनिरपेक्ष वगैरह-वगैरह लच्छेदार भ्रमपूर्ण शब्दों का जो मायाजाल रचा गया था वह आज छिन्न-भिन्न हो चुका है। एक ओर देश का अस्सी फीसदी मेहनतकश अवाम भयंकर अभाव और ग़रीबी में जी रहा है और वहीं इस मेहनतकश अवाम के एक विशाल हिस्से, यानी दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और अपमान का दंश भी झेलना पड़ता है। हरियाणा के मिर्चपुर गाँव की घटना इसी बात का ताज़ा उदाहरण थी।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली : आम जनता का छिनता बुनियादी हक

शुरुआत में सरकार ने बाज़ार से गेहूँ खरीदकर राशन डीलरों के माध्यम से कम दर पर राशन लोगों तक पहुँचाने का जिम्मा उठाया था उसे वह सोची–समझी रणनीति के तहत धीरे–धीरे पूँजीपतियों की सेवा में प्रस्तुत कर रही है। वह पिल्सबरी, आशीर्वाद, शक्तिभोग जैसी बड़ी कम्पनियों को राहत देकर (बिजली, पानी, जमीन मुहैया कराने से लेकर करों में राहत आदि सहित) मुनाफा निचोड़ने की छूट दे रही है। दूसरी तरफ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) को भ्रष्टाचार, भाई–भतीजावाद, अफसरशाही, कालाबाज़ारी से मुक्त करने की बजाए पी.डी.एस. को धीरे–धीरे खत्म करती जा रही है।