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यह योजना महज चुनावी कार्यक्रम नहीं बल्कि व्यापारियों का मुनाफा और बढ़ाने की योजना है

यह बात सही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में कई कमियाँ हैं। सबसे बड़ी कमी है ग़रीबी रेखा का निर्धारण ही सही तरीके से नहीं किया गया है। मौजूदा ग़रीबी रेखा हास्यास्पद है। उसे भुखमरी रेखा कहना अधिक उचित होगा। पौष्टिक भोजन के अधिकार को जीने के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाना चाहिए तथा इसके लिए प्रभावी क़ानून बनाये जाने चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ही पुनर्गठन किया जाए और अमल की निगरानी के लिए जिला स्तर तक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी नागरिक समितियाँ हों। पर किसी पूँजीवादी व्यवस्था से ऐसी उम्मीद कम ही है; भारत समेत पूरी दुनिया जिस आर्थिक मंदी से गुज़र रही है ऐसे समय में ऐसी नीतियों का बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस देश के आम लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा को सही मायने में लागू करवाने के लिए छात्र-नौजवानों और नागरिकों का दायित्व है कि ऐसी योजनाओं की असलियत को उजागर करते हुए देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।

ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति

1973-74 के बाद सरकार ने कभी भी सीधे तौर पर नहीं देखा कि देश के कितने प्रतिशत लोग 2100/2400 किलो कैलोरी से कम उपभोग कर पा रहे हैं। उसने बस 1974 की ग़रीबी रेखा को कीमत सूचकांक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार संशोधित करना जारी रखा। नतीजा यह है कि आज योजना आयोग रु.26/रु.32 प्रतिदिन की ग़रीबी रेखा पर पहुँच गया है! साफ़ है कि देश के शासक वर्ग ने बहुत ही कुटिलता के साथ एक ऐसी पद्धति अपनायी जो कि ग़रीबी को कम करके दिखला सके। यह पद्धति शुरू के 10 वर्षों तक अपना काम कर सकती थी; लेकिन उसके बाद यह बेतुकेपन के प्रदेश में प्रवेश कर गयी। आज साफ़ नज़र आ रहा है कि ऐसी ग़रीबी रेखा पर सिर्फ हँसा जा सकता है। इसके लिए अर्थव्यवस्था के बहुत गहरे ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। वास्तव में, जिन्हें बहुत गहरा “ज्ञान” है, वही यह धोखाधड़ी का काम कर रहे हैं। जैसे कि मनमोहन-मोण्टेक की जोड़ी! वास्तव में, बुर्जुआ अर्थशास्त्र के ज्ञान का मुख्य काम ही इस प्रकार की जालसाजियाँ करना होता है।

प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की लफ्फाज़ी

डा. मनमोहन सिंह का यह बयान कि देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है, का आधार पहले से मज़ाकिया ग़रीबी रेखा मानक को आँकड़ों की बाज़ीगरी से और मज़ाकिया बना देने और फिर उसके आधार पर ग़रीबों की संख्या का आकलन है। स्थापित ग़रीबी रेखा के अनुसार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों और में 2100 कैलारी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग स्तर किसी व्यक्ति को ग़रीबी रेखा के ऊपर कर देता है। सरकार द्वारा गरीबों के साथ धोखाधड़ी और लूट में आँकड़ों का खेल कोई नयी बात नहीं है लेकिन अब खबर यह भी है कि कैलोरी उपभोग स्तर के उपरोक्त मानक को घटाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 1890 और शहरी क्षेत्रों में 1875 कैलोरी प्रति व्यक्ति करने की योजना है। अर्थात, अब कागजी विकास के इस मॉडल में ग़रीबों की घटती संख्या दिखाने के लिए पूँजी के चाकरों को आँकड़ों की बाज़ीगरी करने की भी ज़रूरत नहीं पडे़गी।