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जातिगत उत्पीड़नः सभ्य समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग

आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। आज़ादी के वक्त लोकतांत्रिक, ‘‘समाजवादी’‘, धर्मनिरपेक्ष वगैरह-वगैरह लच्छेदार भ्रमपूर्ण शब्दों का जो मायाजाल रचा गया था वह आज छिन्न-भिन्न हो चुका है। एक ओर देश का अस्सी फीसदी मेहनतकश अवाम भयंकर अभाव और ग़रीबी में जी रहा है और वहीं इस मेहनतकश अवाम के एक विशाल हिस्से, यानी दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और अपमान का दंश भी झेलना पड़ता है। हरियाणा के मिर्चपुर गाँव की घटना इसी बात का ताज़ा उदाहरण थी।

खाप पंचायतों के फ़रमान और पूँजीवादी लोकतंत्र की दुविधा

खाप पंचायतों और इस प्रकार के सभी निरंकुश सामाजिक-आर्थिक निकायों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए तर्कप्रसार, वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, जाति-विरोधी प्रचार-प्रसार के कामों को हाथ में लेना होगा। युवाओं के बीच विशेष रूप से इन अभियानों को सांस्कृतिक रूपों के सहारे चलाना होगा। लेकिन इन सभी कार्यभारों को पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आमूल-चूल रूप से बदल डालने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन का हिस्सा बनाना होगा। युवाओं को इस पूरे काम में ख़ास तौर पर आगे आना चाहिए और भारतीय समाज में एक नये प्रकार के पुनर्जागरण और प्रबोधन के आन्दोलन का अगुआ बनना चाहिए। इसके बग़ैर हम इस मामले में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।