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षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क्या है

षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं। मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है। और ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।

‘आज़ादी कूच’ के सन्दर्भ में – एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

ब्रिटेन का यू‍रोपीय संघ से बाहर जाना: साम्राज्यवादी संकट के गहराते भँवर का नतीजा

ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे और भावी फासीवादी उभार की आहटें

फासीवादी उभार हमेशा ही किसी न किसी किस्म के ‘फ़्हूरर’ या ‘ड्यूस’ के कल्ट पर सवार होकर आता है। भारत में यह कल्ट ‘नमो नमः’ के नारे पर सवार होकर आ रहा है। मुम्बई में एक रईसों के होटल ने मोदी की मोम की प्रतिमा का अनावरण मोदी द्वारा ही करवाया है। इसी प्रकार की कवायदें मोदी समर्थक देश भर में कर रहे हैं। ‘फ़्यूहरर’ कल्ट का भारतीय संस्करण हमारे सामने है। निश्चित तौर पर यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि चार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों के नतीजों में परिवर्तित हो जायेंगे। लेकिन उतने ही ज़ोर के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इस सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जर्मनी या इटली की तरह भारत में फासीवादी उभार होगा, इसकी सम्भावना कम है। वास्तव में, उस प्रकार का फासीवादी उभार भूमण्डलीकरण के दौर में कहीं भी सम्भव नहीं है। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। लेकिन एक नये रूप में, नये कलर-फ़्लेवर में दुनिया के कई देशों में अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ फासीवादी ताक़तें सिर उठा रही हैं।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन किस ओर?

पुछल्लावाद और मज़दूरवाद की प्रवृत्ति के शिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों की यही प्रवृत्ति होती है कि जब तक आन्दोलन जारी रहता है और उसमें उसके पतन का बीज बनने वाली विजातीय प्रवृत्तियाँ पैदा हो रही होती हैं, तब वे उस पर चुप्पी साधे रहते हैं और जय-जयकार में मगन रहते हैं; और जब आन्दोलन की नाव डूब जाती है तो बताना शुरू करते हैं कि नाव में कहाँ-कहाँ पर छेद था, और यह कि वह तो पहले से ही जानते थे! यह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का अवसरवाद ही है। पहले भी ऐसा होता रहा है और लगता है कि इस बार भी ऐसा ही होने वाला है।

सारदा चिटफण्ड घोटालाः सेंधमार, लुटेरे पूँजीवाद का प्रातिनिधिक उदाहरण

निम्न पूँजीपति वर्ग के लोगों ने लाखों की तादाद में इन मज़ाकिया स्कीमों पर भरोसा क्यों किया इसे समझने के लिए इस वर्ग के चरित्र को समझने की भी ज़रूरत है। यह वर्ग न पूरी तरह आबाद होता है और न ही पूरी तरह बरबाद होता है। नतीजतन, इसकी राजनीतिक वर्ग चेतना भी अधर में लटकी होती है। अपनी राजनीतिक माँगों के लिए संगठित होने और सरकार की नीतियों के ख़ि‍लाफ जनता के अन्य मेहनतकश हिस्सों के साथ संगठित होकर आवाज़ उठाने की बजाय अधिकांश मामलों में वह पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा पेश किये जा रहे दावों और वायदों पर भरोसा कर बैठता है। और जब उसे इसका ख़ामियाज़ा भुगताना पड़ता है तो वह काफ़ी छाती पीटता है और शोर मचाता है। सारदा ग्रुप जैसी फ्रॉड कम्पनियों की स्कीमों के निशाने पर ये ही वर्ग होते हैं, जो परिवर्तन और बदलाव की मुहिम के ढुलमुलयकीन मित्र होते हैं। जब परिवर्तन की ताक़तें उफान पर होती हैं, तो ये उनके पीछे चलते हैं और जब माहौल यथास्थितिवादी ताक़तों के पक्ष में होता है, तो ये अपने निजी, व्यक्तिगत हित साधने में व्यस्त रहते हैं और व्यवस्था को एक प्रकार से मौन समर्थन देते हैं।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंकलाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

अम्बेडकर की कोई भी आलोचना नहीं की जा सकती! यदि कोई क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य से अम्बेडकर की राजनीतिक परियोजना की सीमाओं और अन्तरविरोधों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करता है, तो दलितवादी बुद्धिजीवी और संगठन और साथ ही दलित आबादी को तुष्टिकरण और विचारधारात्मक आत्मसमर्पण के जरिये जीतने का सपना पालने वाले “क्रांन्तिकारी” कम्युनिस्ट भी उस पर टूट पड़ते हैं और आनन-फानन में उसे दलित-विरोधी, सवर्णवादी आदि घोषित कर दिया जाता है!

साम्राज्यवाद का निकट आता असंभाव्यता बिन्दु

यूरोज़ोन के संकट ने दिखला दिया है कि ये आर्थिक संकट निकट भविष्य में दूर होने वाला नहीं है। इस संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने के लिए उत्पादक शक्तियों का विनाश करना पूँजीवाद के चौधरियों के लिए तेज़ी से एक बाध्यता में तब्दील होता जा रहा है। आने वाले समय में अगर विश्व के किसी कोने में युद्ध की शुरुआत होती है तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी। साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। और भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल है, जहाँ यह अपने सबसे पतनशील और विध्वंसक रूप में मौजूद है। अपनी उत्तरजीविता के लिए उसे मानवता को युद्धों में झोंकना पड़े तो भी वह हिचकेगा नहीं। इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अरब में चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इसी सच्चाई की गवाही देते हैं। यूरोज़ोन का संकट पूरे साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में बदलाव ला रहा है। चीन का एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर उदय, नयी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त का बढ़ना, रूस का पुनरुत्थान, ये सभी कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं और ये भी नये और बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू होने की सम्भावना पैदा कर रहे हैं।

गद्दाफ़ी की मौत के बाद अरब जनउभार: किस ओर?

पूरा अरब जनउभार वास्तव में उस घड़ी से आगे जा चुका है जिसे क्रान्तिकारी घड़ी कहा जा सकता था। मिस्र ही इस बार भी अग्रिम कतार में था और वहाँ कोई भी जनक्रान्ति पूरे अरब विश्व में एक ‘चेन रिएक्शन’ शुरू कर सकती थी। लेकिन किसी विकल्प, विचारधारा, संगठन और क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में यह घड़ी बीत गयी है। यह आने वाले समय के सभी जनान्दोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण सबक दे गया है। स्वतःस्फूर्त जनान्दोलन और पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। विकल्प का स्पष्ट ढाँचा और उसे लागू कर सकने के लिए सही विचारधारात्मक समझ वाला नेतृत्व और संगठन अपरिहार्य है, यदि वास्तव में हम एक बेहतर समय में प्रवेश करना चाहते हैं।