Tag Archives: शिवानी

संस्कृति-रक्षकों और धर्म ध्वजाधारियों का असली चेहरा

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें या यूँ कहें कि सभी तरह की फ़ासीवादी ताक़तें मिथकों को यथार्थ और ‘कॉमन सेंस’ बनाकर और प्रतिक्रिया की ज़मीन पर खड़े होकर कल्पित अतीत से अपनी राजनीतिक ताक़त और ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जर्मनी में नात्सियों ने यही किया और भारत में संघ परिवार और उसके तमाम आनुषंगिक संगठन यही कर रहे हैं। स्त्रियों, दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और आम ग़रीब आबादी के प्रति इनका फासीवादी रवैया बार-बार हमारे सामने आता है। ये ताक़तें इसे धर्म-सम्मत और संस्कृति-सम्मत बताकर सही ठहराती हैं और अनुशासित और निरन्तरतापूर्ण तरीके से मस्तिष्कों में विष घोलने का काम करती रहती हैं। ये ताक़तें जनता के बीच सतत् मौजूद हैं और इसलिए जनता के तमाम संघर्षों की एकजुटता के लिए नुकसानदेह हैं। इसलिए आज इन संस्कृति-रक्षकों और धर्मध्वजाधारियों के दोगले और पाखण्डी चेहरे को पूरे देश की जनता के सामने बेनक़ाब करने की ज़रूरत है। साथ ही, इन साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के खि़लाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाने की भी उतनी ही ज़रूरत है।

असली इंसाफ़ होना अभी बाकी है!

इस तथ्य को साबित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं है कि गुजरात नरसंहार के करीब 10 साल बाद भी गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी-समेत तमाम धर्म-ध्वजाधारियों और फासीवादियों पर कोई आँच तक नहीं आयी है। इस देश की न्यायिक व्यवस्था आज भी शेक्सपीयर के पात्र हैमलेट की भाँति ‘मोदी को चार्जशीट किया जा सकता है या नहीं’ की ऊहापोह में फँसी हुई है। ये तथ्य स्वयं ही पूँजीवादी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह दीगर बात है कि अगर मोदी के खि़लाफ़ आरोप-पत्र दायर हो भी जाता है तो ये पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी और थकाऊ होगी कि इस पूरे मामले में ही ज़्यादा कुछ नहीं हो पायेगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा, समाज में साम्प्रदायिकता और राजनीति में उसके उपयोग की ज़मीन भी बनी रहेगी। गुजरात जैसे नरसंहार होते रहेंगे, लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती रहेंगी और मोदी जैसे लोग बेख़ौफ़ कानून को अँगूठा दिखाते हुए खुलेआम आज़ाद घूमते रहेंगे। इसलिए ऐसी व्यवस्था से सच्चे न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है।

फिर से मुनाफ़े की हवस की भेंट चढ़े सैंकड़ों मज़दूर

शराबखोरी पूँजीवादी समाज का एक यथार्थ है। लेकिन हर सामाजिक बुराई की तरह यह निर्वात में अस्तित्वमान नहीं है। शराबखोरी पूँजीवाद-जनित सामाजिक बुराई है। गरीब, मजदूर जो महँगी अंग्रेजी शराब खरीदने की कूव्वत नहीं रखते, वे अवैध तरीके से बनाई जाने वाली देसी शराब पीते हैं और इसलिए प्रायः ऐसे हादसों का शिकार वही होते हैं। अमीरी और गरीबी की खाई जो पूँजीवाद पैदा करता है वह इसके बाज़ारों में भी प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर संगीत, फिल्मों आदि तक के क्षेत्र में हर हमेशा दो बाज़ार मौजूद होते है। जाहिरा तौर पर एक ऐसी व्यवस्था जिसमें आम बहुसंख्यक आबादी का श्रम और जीवन कौड़ियों के मोल बिकता हो, उनके लिए बाज़ार में मिलने वाली वस्तुएँ भी मिलावटभरी, सस्ती, घटिया और नकली होंगी। महँगी, अच्छी ब्राण्डों की शराब पीने से कोई नहीं मरता! इसलिए शराबखोरी में ऐसे हादसों का कारण तलाशना सच्चाई से मुँह चुराना है। जब तक इतिहास की सबसे बड़ी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय बुराई, यानी पूँजीवाद का अन्त नहीं होता तब तक इससे उपजी तमाम बुराइयों का भी ख़ात्मा सम्भव नहीं हैं।

नार्वे के नरसंहार की अन्तःकथा

इस घटना ने एक बार फिर इस इतिहाससिद्ध तथ्य को फ़िर पुख़्ता किया है कि मज़हबी, नस्ली और सांस्कृतिक कट्टरपंथी आर्थिक कट्टरपंथ की ही जारज औलादें है। इतिहास और वर्तमान दौर में भी फ़ासीवादी ताक़तों के उभार ने यही साबित किया है।

एस-बैण्ड घोटाला: सारे घोटालों का नया सरदार!

एक ऐसे समाज में जहाँ हर काम को करने की प्रेरक शक्ति निजी मुनाफ़ा और लालच हो, वहाँ विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम घोटाले ने इसी बात को एक बार फिर रेखांकित किया है। जहाँ विज्ञान और तकनोलॉजी का मकसद ही मानव जीवन की बेहतरी न होकर निजी कम्पनियों का मुनाफ़ा हो वहाँ पर इसरो जैसा स्वच्छ छवि वाला संस्थान भी भ्रष्टाचार के कलंक से अछूता नहीं रह सकता।

लक्ष्मीनगर हादसा: मुनाफे की पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर

मुनाफा! हर हाल में! हर कीमत पर! मानव जीवन की कीमत पर। नैतिकता की कीमत पर। नियमों और कानूनों की कीमत पर। यही मूल मन्त्र है इस मुनाफाख़ोर आदमख़ोर व्यवस्था के जीवित रहने का। इसलिए अपने आपको जिन्दा बचाये रखने के लिए यह व्यवस्था रोज़़ बेगुनाह लोगों और मासूम बच्चों की बलि चढ़ाती है। इस बार इसने निशाना बनाया पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर स्थित ललिता पार्क स्थित उस पाँच मंजिला इमारत में रहने वाले ग़रीब मज़दूर परिवारों को जो देश के अलग-अलग हिस्सों से दिल्ली काम की तलाश में आये थे। इमारत के गिरने से लगभग 70 लोगों की मौत हो गयी और 120 से अधिक लोग घायल हो गये, जिनमें कई महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं।

‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता

हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।

गुजरात : पूँजीवादी इंसाफ का रास्ता बेइन्तहा लम्बा, टेढ़ा–मेढ़ा और थकाऊ है

आज गुजरात में हुआ, कल कहीं और होगा। आज मोदी ने किया, कल कोई और करेगा। क्या आज़ादी के बाद के 63 वर्ष इस बात की गवाही नहीं देते ? अगर इस कुचक्र से मुक्ति पानी है तो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता और समाज के ही विकल्प के बारे में सोचना होगा। हर इंसाफ़पसन्द नौजवान का आज यही फ़र्ज़ बनता है।

नेपाली क्रान्तिः महत्व और भविष्य

इसमें कोई शक़ नहीं है कि नेपाली क्रान्तिकारियों के सामने चुनौतियाँ बहुत कठिन है, लेकिन इतिहास भी इस बात का गवाह है कि प्रतिकूलतम परिस्थितियाँ भले ही जनता के संघर्षों की राह को दुर्गम, लम्बा और जटिल बना दें, पर उनका गला नहीं घोंट सकतीं।

यूनान में जनअसन्तोष के फूटने के निहितार्थ

यदि इन प्रतिरोध-प्रदर्शनों के पीछे के वास्तविक कारणों की पड़ताल की जाय तो पता चलता है कि जनता के बड़े हिस्से में, विशेषकर युवा आबादी के बीच एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति गहरी पैठी नफ़रत और निराशा है जो केवल अमीरों और धनाढ्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है और उन्हीं के हितों की पूर्ति और रक्षा करती है। निजीकरण और उदारीकरण की वैश्विक लहर से यूनानी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रही है। नवउदारवादी नीतियों के चलते, सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक सेवाओं को लगातार निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और उन्हें अमीरों की बपौती बनाया जा रहा है। यदि केवल आँकड़ों की बात की जाय तो पूरे यूरोपीय संघ में यूनान में युवा बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है, जो लगभग 28 से 29 प्रतिशत के बीच है। इसके कारण युवावस्था पार करने के बाद तक ज्यादातर नौजवान आर्थिक रूप से अपने माँ-बाप पर ही निर्भर रहते हैं।