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शेयर बाज़ार का गोरखधन्धा

शेयर बाज़ार वित्तीय बाज़ार का एक अंग है जो एक मायावी जंजाल प्रतीत होता है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे शैतान की खाला भी नहीं समझ सकती। सभी बड़े अखबारों का एक पन्ना वित्तीय बाज़ार की कारगुजारियों को ही समर्पित रहता है। समाचार चैनलों पर भी शेयरों के दामों की गतिविधियाँ मिनट-मिनट में अपडेट होती रहती हैं। निवेशकों की सेहत वित्तीय बाज़ार की सेहत से एकरूप होती है। शेयरों के बाज़ार भावों के चढ़ने-गिरने का उनकी सेहत पर भी सीधा असर पड़ता है। बिना हाथ-पैर चलाये तुरन्त अमीर बन जाने की चाहत में लोग शेयर बाज़ार में पैसा लगाते हैं और आये दिन बर्बाद होते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई कंगाल-बर्बाद ही होता है, कुछ बड़े खिलाड़ी भी रहते हैं जो मोटा पैसा ले उड़ते हैं। यह सब कुछ कैसे घटित होता है और कैसे चन्द मिनटों में ही बाज़ार से अरबों रुपये की पूँजी छूमन्तर हो जाती है और लोग सड़कों पर आ जाते हैं, यह जानना काफ़ी दिलचस्प है।

बजट 2016: जुमलों की बारिश

एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसको मीडिया हमेशा नजरअन्दाज कर देता है वह यह है कि बजट में जो राशि भिन्न-भिन्न मंत्रालयों और सेक्टरों को आवण्टित होती है उसका यह मतलब नहीं है कि वह उन्हें मिल गयी है अपितु वह केवल अनुमानित या घोषित राशि ही होती है। घोषित राशि और वास्तविक आवण्टित राशि के बीच का फर्क वित्तीय वर्ष के अन्त में ही पता चल पाता है। ऐसे में वित्तीय वर्ष के शुरू में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करना वित्त मन्त्री महोदय के लिए काफ़ी आसान होता है।

मुम्बई में 200 से ज़्यादा लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन

यह भी हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है कि जब एक मज़दूर को दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तो साथ ही साथ उसका अमानवीकरण भी होता है और शराब व अन्य व्यसन उसके लिए शौक नहीं बल्कि ज़िन्दगी की भयंकर कठिनाइयों को भुलाने और दुखते शरीर को क्षणिक राहत देने के साधन बन जाते हैं। ऐसे मूर्खों की हमारे समाज में कमी नहीं है जो कहते हैं कि मज़दूरों की समस्याओं का कारण यह है कि वे बचत नहीं करते और सारी कमाई को व्यसनों में उड़ा देते हैं। असल में बात इसके बिल्कुल उलट होती है और वे व्यसन इसलिए करते हैं कि उनकी ज़िन्दगी में पहले ही असंख्य समस्याएँ है। जो लोग कहते हैं कि बचत न करना ग़रीबों-मजदूरों की सभी परेशानियों का कारण होता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि जो आदमी 5000-8000 रुपये ही कमा पाता हो वह अव्वलन तो बचत करे कैसे और अगर सारी ज़िन्दगी भी वह चवन्नी-अठन्नी बचायेगा तो कितनी बचत कर लेगा? क्या जो 1000-1500 रुपये एक महीने या कई महीनों में वे व्यसन में उड़ा देते हैं उसकी बचत करने से वे सम्पन्नता का जीवन बिता सकेंगे? यहाँ व्यसनों की अनिवार्यता या फिर उन्हें प्रोत्साहन देने की बात नहीं की जा रही है बल्कि समाज की इस सच्चाई पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि एक मानवद्रोही समाज में किस तरह से ग़रीबों के लिए व्यसन दुखों से क्षणिक राहत पाने का साधन बन जाते हैं। इस व्यवस्था में जहाँ हरेक वस्तु को माल बना दिया जाता है वहाँ जिन्दगी की मार झेल रहे गरीबों के व्यसन की जरूरत को भी माल बना दिया जाता है। ग़रीब मज़दूर बस्तियों में सस्ती शराबों का पूरा कारोबार इस जरूरत से मुनाफा कमाने पर ही टिका है। इस मुनाफे की हवस का शिकार भी हर-हमेशा गरीब मज़दूर ही बनते हैं।

फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास का विकृतीकरण

अगर जनता के सामने वर्ग अन्तरविरोध साफ़ नहीं होते और उनमें वर्ग चेतना की कमी होती है तो इतिहास का विकृतिकरण करके व अन्य दुष्प्रचारों के ज़रिये उनके भीतर किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी गुस्सा भरा जा सकता है और उन्हें इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक्कतों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति या धर्म के लोग हैं। क्रान्तिकारी शक्तियों को फ़ासीवादियों की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश करना होगा और सतत प्रचार के ज़रिये जनता के भीतर वर्ग चेतना पैदा करनी होगी। इतिहास को विकृत करना फ़ासीवादियों का इतिहास रहा है। और यह भी इतिहास रहा है कि फ़ासीवाद को मुँहतोड़ जवाब देने का माद्दा केवल क्रान्तिकारी ताक़तें ही रखती हैं। फ़ासीवाद को इतिहास की कचरा पेटी में पहुँचाने का काम भी क्रान्तिकारी शक्तियाँ ही करेंगी। और तब इतिहास को विकृत करने वाला कोई न बचेगा।

अहमदनगर में दलित परिवार का बर्बर क़त्लेआम और दलित मुक्ति की परियोजना के अहम सवाल

दलित जातियों का एक बेहद छोटा सा हिस्सा जो सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर चला गया है, वह आज पूँजीवाद की ही सेवा कर रहा है। यह हिस्सा ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी पर होने वाले हर अत्याचार पर सन्दिग्ध चुप्पी साधता रहा है। यह खाता-पीता उच्च-मध्यवर्गीय तबका आज किसी भी रूप में ग़रीब दलित आबादी के साथ नहीं खड़ा है। फ़िलहाल यह तबका बीमा और बँगलों की किश्तें भरने में व्यस्त है। इस व्यस्तता से थोड़ी राहत मिलने पर यह तमाम गोष्ठियों में दलित मुक्ति की गरमा-गरम बातें करते हुए मिल जाता है। हालाँकि कई बार इसे भी अपमानजनक टीका-टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, लेकिन इसका विरोध प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और दिखावटी रस्म-अदायगी तक ही सीमित है। यह पूँजीवाद से मिली समृद्धि की कुछ मलाई चाटकर सन्तोष कर रहा है।

प्रथम विश्वयुद्ध के साम्राज्यवादी नरसंहार के सौ वर्षों के अवसर पर

आज प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पश्चात फ़िर से इसके कारणों की जाँच-पड़ताल करना कोई अकादमिक कवायद नहीं है। आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और आज भी साम्राज्यवाद द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अनेकों युद्ध थोपे जा रहे हैं। इसलिये यह समझना आज भी ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्यों और किस तरह से युद्धों को जन्म देता है। वैसे तो हर कोई प्रथम विश्व युद्ध के बारे में जानता है लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे, इस बारे में बहुत सारे भ्रम फैले हुए हैं या फिर अधिक सटीक शब्दों में कहें तो फैलाये गये हैं। अनेकों भाड़े के इतिहासकार इस युद्ध को इस तरह से पेश करते हैं मानो यह कुछ शासकों की निजी महत्त्वाकांक्षा व सनक के कारण हुआ था। अधिकतर इसकी पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ग़ायब कर देते हैं

यूक्रेन विवाद के निहितार्थ

साम्राज्यवादी ताक़तें युद्धों को अपने हिसाब से चाहे जितना विनियमित व अनुकूलित करने की कोशिश करें, साम्राज्यवादी युद्ध के अपने तर्क होते हैं, ये साम्राज्यवादी हुक़ूमतों की चाहतों से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवादी तन्त्र के अपने अन्तर्निहित तर्क से पैदा होते हैं। विश्वयुद्ध की सम्भावना पूरी तरह निर्मूल नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी अगर मौटे तौर पर बात करें तो पहले की तुलना में कम प्रतीत होती हैं। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है, तब तक मानवता को युद्धों से निजात मिलना मुश्किल है। युद्ध होता ही रहेगा चाहे वह ‘हॉटवॉर’ के रूप में हो या ‘कोल्डवॉर’ के रूप में, गृहयुद्ध के रूप में, क्षेत्रीय युद्ध या फिर विश्वयुद्ध के रूप में क्योंकि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न

पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखि‍र क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।

रेलवे सेक्टर को भी लुटेरों के हाथों में सौंपने की तैयारी

ये सभी क़दम उठाने के पीछे जो कारण बताये जा रहे हैं, वे वही पुराने कारण हैं जिनका बहाना लेकर एक-एक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी लुटेरों के हाथों कौड़ियों के भाव बेचा गया। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि रेलवे सेक्टर बेहद घाटे में चल रहा है और नक़दी की किल्लत के चलते यह काफ़ी जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए निजी निवेश के बग़ैर काम नहीं चलेगा, और ऐसे ही तमाम मूर्खतापूर्ण तर्क। इन सभी तर्कों की नग्नता को जनता का बड़ा हिस्सा पहले ही देख चुका है। फिर भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो कि मानता है कि निजीकरण से सारी समस्याएँ दूर हो जायेंगी, जिसमें ख़ासकर मध्यवर्गीय आबादी शामिल है। पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नौजवान भी इस भ्रम के शिकार हैं कि निजीकरण से सारी मौजूदा समस्याएँ दूर हो जायेंगी। वे आसानी से कहीं भी यह तर्क देते हुए मिल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों में रखरखाव ज़्यादा बेहतर होता है और काम अधिक नियमितता से होता है। लेकिन तथ्य बेरहम होते हैं और दूध का दूध व पानी का पानी कर देते हैं। 1991 से जो निजीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आयी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाढ़ आयी, उसका जनता पर क्या असर पड़ा है यह तो ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही देखा जा सकता है।

आर्कटिक पर कब्जे की जंग

इस तरह से यह साफ है कि ये सभी साम्राज्यवादी देश अपने साम्राज्यवादी हितों को लेकर बदहवास हो रहे हैं और कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे तो अमेरिका पर्यावरण को बचाने को लेकर और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को लेकर हमेशा ही नौटंकी करना रहता है लेकिन अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए सबसे पहले पर्यावरण का शत्रु बन जाता है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधनों के बँटवारे को लेकर हमेशा से ही साम्राज्यवादी देशों के बीच कुत्ता-घसीटी रही है। यही साम्राज्यवाद का चरित्र है। साम्राज्यवाद जो पूँजीवाद की चरम अवस्था है वह हमें बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं दे सकता। जब इसे मानवता की ही कोई चिन्ता नहीं है तो फिर पर्यावरण की चिन्ता का ही क्या मतलब रह जाता है। इस व्यवस्था का एक-एक दिन हमारे ऊपर भयंकर श्राप की तरह है। पर्यावरण की चिन्ता भी वही व्यवस्था कर सकती है जिसके केन्द्र में मानव हो न कि मुनाफा।