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व्यवस्था में आस्था के सबसे बड़े रक्षक सर्वोच्च न्यायालय का ‘‘न्याय’’

पूँजी की राजसत्ता का महल जिन खम्भों पर खड़ा होता है उसमें पूँजीवादी न्यायपालिका सत्ता के विभ्रम को बरकरार रखने वाली सबसे मजबूत खम्भा है। यह अंतिम दम तक शोषणकारी राज्य के कल्याणकारी मुखौटे का भ्रम लोगों में कायम करनें का काम करती है। वर्ग समाज में अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के शासन में कानून एक ऐसा हथियार है जिससे आम जनता का वैधानिक शोषण सम्भव होता है।

भूमण्डलीकरण उदारीकरण के दौर की हड़पनीति!

आज डलहौजी की आत्मा भारतीय शासक वर्ग के अन्दर प्रवेश कर अपने क्रूरतम रूप में अट्टहास कर रही है। देश के प्रत्येक प्रान्त में पूँजी व मुनाफ़े के लिए लोगों से उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। भट्टा से 178 हेक्टेअर व पारसौल से 260 हेक्टेअर ज़मीन ली गयी है। छत्तीसगढ़ में 1.71 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण ग़ैर-कृषि कार्यों के लिए किया गया जिसमें से 67.22 भूमि खनन के लिए ली गयी जो तमाम निजी कम्पनियों को दे दी गयी। मध्य प्रदेश में 150 कम्पनियों को 2.44 लाख हेक्टेअर भूमि अधिग्रहण की अनुमति दी गयी है जिसमें से लगभग 1.94 हेक्टेअर भूमि किसानों से ली गयी जबकि 12,500 हेक्टेअर जंगल की ज़मीन है। झारखण्ड बनने के बाद से खनिज सम्पदा से समृद्ध इस प्रदेश में कार्पोरेट कम्पनियों के साथ 133 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें आर्सेलर ग्रुप, जिन्दल और टाटा प्रमुख हैं। मायावती सरकार द्वारा गंगा और यमुना एक्सप्रेस वे में 15,000 गाँवों के विस्थापन का अनुमान है। उड़ीसा में पॉस्को और वेदान्ता आदिवासियों की जीविका और आवास छीन रही हैं। एक अनौपचारिक अनुमान के अनुसार उड़ीसा में 331 वर्ग किलोमीटर भूमि 300 औद्योगिक संरचनाओं के लिए दी गयी है। 9,500 करोड़ रुपये के यमुना एक्सप्रेस वे के लिए लगभग 43,000 हेक्टेअर ज़मीन ली जायेगी जिसके लिए 1,191 गाँवों को नोटिफ़ाइड किया गया है।

पानी का निजीकरण: पूँजीवादी लूट की बर्बरतम अभिव्यक्ति

आज जब पूँजीवाद ने देश के सामने पानी के उपभोग का संकट खड़ा कर दिया है तो सरकार जनता को जल उपलब्ध करवाने के अपने कर्तव्य से बेहयायी से मुकरकर पूँजीपतियों से कह रही है कि लोग प्यास से मरेंगे, जाओ अब तुम लोगों को पानी बेचकर अपनी तिजोरियाँ भरो! निजीकरण पूँजीवाद की आम प्रवृति है और ऐसा प्रत्येक क्षेत्र जहाँ मुनाफे का स्वर्णिम अवसर है निजीकरण मानव जीवन तथा सम्पूर्ण मानवता की कीमत पर भी किया जायेगा। पानी, पर्यावरण तथा जीवन के लिए ज़रूरी किसी भी क्षेत्र की रक्षा एवं सर्वजन सुलभता, मुनाफा केन्द्रित समाज में नहीं बल्कि मानव केन्द्रित समाज में सम्भव होगी जो पूँजीवाद के रहते सम्भव नहीं।

राष्ट्र खाद्य सुरक्षा कानून मसौदा: एक भद्दा मज़ाक

अगर सच्चाइयों पर करीबी से निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि वास्तव में खाद्यान्न सुरक्षा मुहैया कराना सरकार का मकसद है ही नहीं। जिस प्रकार नरेगा के ढोंग ने यू.पी.ए. सरकार को एक कार्यकाल का तोहफ़ा दे दिया था, उसी प्रकार यू.पी.ए. की सरकार खाद्यान्न सुरक्षा कानून के नये ढोंग से एक और कार्यकाल जीतना चाहती है। इससे जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला; उल्टे उसके पास जो है वह भी छीन लिया जायेगा।

ओबामा की भारत यात्रा के निहितार्थ

ओबामा की भारत, इण्डोनेशिया, जापान एवं दक्षिण कोरिया की यात्रा के दो प्रमुख मकसद स्पष्ट हैं। प्रथम है मन्दी की मार झेल रही अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बचाना और अमेरिकी कम्पनियों के लिए नये बाज़ार की खोज व अमेरिका में रोज़गार के सृजन से अपने खो रहे जनाधार को वापस लाना। यह यात्रा आगामी चुनावी वर्षों में अमेरिकी पूँजीवाद की नुमाइन्दगी के लिए ओबामा प्रशासन की तैयारी है। दूसरा विश्व पूँजीवाद में पिछले दो दशको में आये बदलाव एवं कई नये राष्ट्र-राज्यों के पूँजी उभार से विश्व बाज़ार में अमेरिकी पूँजी की चौधराहट में कमी आयी है। एशिया में चीन के आर्थिक उभार व विश्व बाज़ार में सशक्त उपस्थिति को देखते हुए अमेरिका दक्षिण पूर्व एशिया को अपनी दूरगामी विदेशी नीति के केन्द्र एवं बाज़ार क्षेत्र के रूप में देखता है। ओबामा की इस यात्रा का मकसद चीन को यह सन्देश भी देना है कि विश्व व्यापार एवं आर्थिक साझेदारी के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया अमेरिका के साथ है।

राष्ट्रमण्डल खेल – ”उभरती शक्ति“ के प्रदर्शन का सच

पूँजी की लूट और गति, जिसने उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्थान की तलाश में पूरे विश्व में निर्बाध रूप से तूफान मचा रखा है, से खेल भी अछूता नहीं है। खेल आयोजन एवं समूचा खेल तन्त्र आज एक विशाल पूँजीवादी उद्योग बन गया है जहाँ सब कुछ मुनाफे को केन्द्र में रखकर विभिन्न राष्ट्रपारीय निगमों, कम्पनियों एवं इनके सर्वोच्च निकाय पूँजीवादी राज्यव्यवस्था द्वारा संचालित किया जाता है।

जयराम रमेश को गुस्सा क्यों आता है?

इस देश की जनता की धुर विरोधी, प्रगतिशीलता एवं उदारवाद का छद्म चोला पहनने वाली संसदीय पार्टियों एवं उनके पतित नेताओं की न तो औपनिवेशिक अवशेषों से कोई दुश्मनी है और न ही सामन्ती बर्बर देशी मानव विरोधी परम्पराओं से। जयराम रमेश जिस औपनिवेशिक प्रतीक चिन्ह गाउन का विरोध कर उतार फेंकने की बात करते हैं उसी औपनिवेशिक शासन की दी हुई शिक्षा व्यवस्था व न्यायपालिका को ढो रहे हैं। आज भी भारत में उसी लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को सुधारों के पैबन्दों और जालसाज़ी से लागू किया गया है। मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रमुख मक़सद ऐसे भारतीय मस्तिष्क का निर्माण करना था जो देखने में देशी लगे लेकिन दिमाग से पूर्णतया लुटेरे अंग्रेजों का पक्षधर हो। पिछले साठ सालों में शिक्षा को हाशिये पर रखा गया। आज़ादी के समय सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य बताया गया था। आज उसी शिक्षा को नित नये कानूनों द्वारा बाज़ार की वस्तु बनाया जा रहा है। अंग्रेजियत को थोपा गया और रोज़गार के तमाम क्षेत्रों को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़े रखने की साजिश जारी रही। देश के अन्दर ही बर्बरता और असमानता को दीर्घकालिक बनाये रखने का एक कुचक्र रचा गया जो आज भी जारी है। शिक्षा के उसी औपनिवेशिक खाद से पली-बढ़ी आज की शिक्षा और उसमें प्रशिक्षित उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय अपने ही देश के ग़रीब मज़दूरों व अशिक्षितों से नफरत करता है, उसे गँवार समझता है और अपनी मेधा, ज्ञान और शिक्षा का प्रयोग ठीक उन्हीं औपनिवेशिक शासकों की तरह ग़रीबों के शरीर के खून का एक-एक क़तरा निचोड़ने के लिये करता है। तब जयराम रमेश को गुस्सा नहीं आता। जाहिर है, जब वे नुमाइन्दगी ही इसी खाए-पिये अघाए मध्यवर्ग की कर रहे हैं, तो उससे गुस्सा कैसा?

महिला आरक्षण बिल : श्रम की वर्गीय एकजुटता को कुन्द करने की साजिश

जिस तरह रोज़गार एवं अवसरों को उपलब्ध कराने में असफल रही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दलित व पिछड़े वर्ग के लिए लागू किये गए आरक्षण से व्यापक दलित व पिछड़े वर्ग को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि इन वर्गों से कुछ पूँजी के चाकर पैदा हुए और व्यापक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में अस्मितावादी राजनीति ज़ोर मारने लगी, उसी तरह इस कानून से भी आम औरतों को कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसके द्वारा स्त्रीवादी आन्दोलन को व्यापक मेहतनकश जनता के आन्दोलन से न जुड़ने देने की साज़िश सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा रची गयी है। न तो स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक मानसिकता से जकड़े तमाम सत्ताधारी पुरुषों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और न ही औरतों को चूल्हा–चौका, बच्चा पैदा करने और पति की सेवा करने तक सीमित कर देने के हिमायती और फासीवाद के प्रबल समर्थक संघ परिवार के राजनीतिक मुखौटे भाजपा की विश्वदृष्टि में कोई बदलाव आया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि महिला आरक्षण बिल का वास्तविक लक्ष्य क्या है और इसे लेकर सभी चुनावी दल इतनी नौटंकी क्यों कर रहे हैं।

प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की लफ्फाज़ी

डा. मनमोहन सिंह का यह बयान कि देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है, का आधार पहले से मज़ाकिया ग़रीबी रेखा मानक को आँकड़ों की बाज़ीगरी से और मज़ाकिया बना देने और फिर उसके आधार पर ग़रीबों की संख्या का आकलन है। स्थापित ग़रीबी रेखा के अनुसार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों और में 2100 कैलारी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग स्तर किसी व्यक्ति को ग़रीबी रेखा के ऊपर कर देता है। सरकार द्वारा गरीबों के साथ धोखाधड़ी और लूट में आँकड़ों का खेल कोई नयी बात नहीं है लेकिन अब खबर यह भी है कि कैलोरी उपभोग स्तर के उपरोक्त मानक को घटाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 1890 और शहरी क्षेत्रों में 1875 कैलोरी प्रति व्यक्ति करने की योजना है। अर्थात, अब कागजी विकास के इस मॉडल में ग़रीबों की घटती संख्या दिखाने के लिए पूँजी के चाकरों को आँकड़ों की बाज़ीगरी करने की भी ज़रूरत नहीं पडे़गी।

वैश्विक मन्दी और तबाह होता मेहनतकश

मन्दी के दौर में गोदामों में माल होने पर भी पूँजीपति उसे अपने मुनाफ़े को कम करके बेचने को तैयार नहीं होता और उत्पादन प्रक्रिया ठप्प पड़ जाती है जिसके फ़लस्वरूप बड़े पैमाने पर छँटनी और तालाबन्दी होती है। एक विशाल आबादी बेरोज़गार हो जाती है। मेहनतकश आबादी जो पहले ही पूँजीपतियों द्वारा दोहरे शोषण का शिकार हुई रहती है जब बेरोजगार हो जाती है तो उसके सामने अपने वजूद का ही संकट खड़ा हो जाता है।