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लोकप्रियता और यथार्थवाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (1938)

अगर हम एक ज़िन्दा और जुझारू साहित्य की आशा रखते हैं जो कि यथार्थ से पूर्णतया संलग्न हो और जिसमें यथार्थ की पकड़ हो- एक सच्चा लोकप्रिय साहित्य- तो हमें यथार्थ की द्रुत गति के साथ हमकदम होना चाहिए। महान मेहनतकश जनता पहले से ही इस राह पर है। उसके दुश्मनों की कारगुजारियाँ और क्रूरता इसका सबूत हैं।

ऑक्यूपाई यूजीसी आन्दोलनः शिक्षा का यह संघर्ष, संघर्ष की सोच को बचाने का संघर्ष है

वर्तमान सरकार उच्च शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन में शामिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। दिसम्बर 2015 के दोहा बैठक में उच्च शिक्षा को गैट (जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड) के तहत लाने का प्रस्ताव था। भारत सरकार ने इस मुद्दे पर दोहा सम्मलेन में कोई विरोध दर्ज नहीं किया और न ही इसको चर्चा के लिए खोला। इससे यह स्पष्ट है कि भारत सरकार उच्च शिक्षा में डब्ल्यूटीओ के समझौते को लाने वाली है। एक बार अगर उच्च शिक्षा को इस समझौते के तहत लाया जाता है तो न तो सरकार किसी भी सरकारी विश्वविद्यालय को कोई अनुदान देगी और न ही शिक्षा से सम्बन्धित अधिकार संविधान के दायरे में होंगे। क्योंकि किसी भी देश के लिए जो डब्ल्यूटीओ और गैट्स पर हस्ताक्षर करता है उसके लिए इसके प्रावधान बाध्यताकारी होते हैं। इससे देश में रहा-सहा उच्च शिक्षा का ढाँचा भी तबाह हो जायेगा और यह इतना महँगा हो जायेगा कि देश की ग़रीब जनता की बात तो दूर मध्यवर्ग के एक ठीक-ठाक हिस्से के लिए भी यह दूर की कौड़ी होगा। एमिटी यूनिवर्सिटी, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी और शारदा यूनिवर्सिटी तथा अन्य निजी शिक्षा संस्थानों की फीस आज भी सामान्य पाठ्क्रमों के लिए 50,000 से 1,00,000 रुपये प्रति सेमेस्टर है। अगर यह समझौता उच्च शिक्षा में लागू होता है तो जहाँ एक और देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए शिक्षा से मुनाफा वसूलने की बेलगाम छूट मिल जायेगी वहीं जनता से भी शिक्षा का मौलिक अधिकार छिन जायेगा। जिस तरह से आज सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के बाद निजी अस्पतालों का मुनाफा लोगों की ज़िन्दगी की कीमतों पर फल रहा है उसी तरह शिक्षा के रहे-सहे ढाँचे में जो थोड़ी बहुत ग़रीब आबादी आम घरों से पहुँच रही है वह भी बन्द हो जायेगी। इस प्रकार यह पूरी नीति हमारे बच्चों से न सिर्फ़ उनके पढ़ने का अधिकार छीन लेगी वरन उनसे सोचने, सपने देखने का हक भी छीनेगी।

सवाल की तरह खड़ी है हक़ीक़त

विदर्भ की गर्मी और आठ फुट की झुग्गियों में गुज़र करती यह आबादी जिसमें बच्चे भी शामिल हैं, सुबह से शाम तक काम करते देखे जा सकते हैं। अधिकांश परिवारों में महिलाएँ और बच्चे भी काम करते हैं। अधिकतर मज़दूर 40 से कम उम्र के हैं और अपने बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं परन्तु न तो आस-पास कोई सरकारी स्कूल है और न ही क्रेच की सुविधा। कुछ बड़े बच्चे माँ-बाप के साथ ही काम पर भी लग जाते हैं। गर्भवती महिलाओं को न तो किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधा की व्यवस्था है और न ही उनको आँगनबाड़ी आदि की जानकारी। इन मज़दूरों के आश्रित माता-पिता दूर इनके पैतृक निवास पर ही रहते हैं और उनके देख-रेख की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं के कन्धों पर होती है। केन्द्र सरकार की न्यूनतम मज़दूरी मानक के अनुसार इस सर्वेक्षण के समय अकुशल मज़दूर की मज़दूरी दर 207 रुपये प्रतिदिन और कुशल की 279 रुपये प्रतिदिन थी। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्धा केन्द्र सरकार द्वारा मज़दूरी के जोन ‘ग’ में स्थित है। मज़दूरों से पूछे जाने पर पता चला की अकुशल मज़दूर को रुपये 200 और कुशल को 350 से 400 रुपये तक मज़दूरी मिलती है जो सरकारी मानक के आसपास ही ठहरती है, परन्तु महीने में बमुश्किल से 20 दिन ही काम मिल पाने के कारण आमदनी बहुत कम है।

इशरत जहाँ…एक निरन्तर सवाल

एक तरफ धर्म, क्षेत्र और सर्वापरि वर्ग-आधारित वर्चस्व के साथ राज्य अपने प्रचार माध्यमों और संस्कृति प्रतिष्ठानों के जरिये समाज के एक हिस्से में “विकास” व “कानून” तथा “वैधानिकता” को इस तरह से सामने लाने की कोशिश में लगा है कि जो कुछ उसकी परिभाषा के दायरे में सही है, मात्र वही सत्य है। दूसरी तरफ प्रतिरोध और जनाधिकारों के प्रत्येक संघर्ष को कुचलने के लिए उसे “विकास”, “विरोध” , “आतंकवाद”, “अलगाववाद” और “माओवाद” व “नक्सलवाद” से जोड़ दिया जाता है। यह सामान्य आबादी में ही नहीं बल्कि पढ़े लिखे तबके तक के लिए सोचने की सीमा से बाहर चला जाता है कि विकास के क्रान्तिकारी और जनपक्षधर रूप भी हो सकता है। जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है वह राज्य आतंकवाद की उपज है; जिसे अलगाववाद कहा जा रहा है वह वर्चस्ववाद और शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष हो सकता है। ये सारे सवाल बेहद संवेदनशीलता से उस आबादी के सामने खड़े हैं जो अपने भविष्य के सपनों को संजोने में मग्न है और उसके सामने भी जो दो वक्त की रोटी के लिए हाड़-तोड़ खट रही है।

हमारा सच और उनका सच

क्या यह ज़रूरी नहीं है कि सारे विश्वविद्यालयों के मठाधीशों को
खटाया जाय खेतों-खलिहानों और फ़ैक्ट्रियों में
कि उत्पादन का सच समझाया जा सके।
कि सच को समझने के लिए
चीजों को उलट देना ज़रूरी है
कि जैसे नमी को जानने के लिए शुष्कता
उजाले के लिए अन्धेरा और
दिन को जानने के लिए रात
और आज़ादी को जानने के लिए ज़रूरी है;
हमारे दिलों में जज़्ब जज़्बात की तड़प को समझना,

“विकास” की बेलगाम ऊर्जा

प्रश्न नाभिकीय उर्जा के निरपेक्ष विरोध का नहीं है, ऊर्जा के विभिन्न रूपों का उपयोग उपलब्ध तकनीक, समय एवं विज्ञान के विकास के सापेक्ष ही हो सकता है। मौजूदा तकनीक एवं व्यवस्था में नाभिकीय उर्जा के सुरक्षित प्रयोग की सम्भावना नहीं है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कभी ऐसी तकनीक ईजाद नहीं होगी। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के तहत इसकी उम्मीद कम ही है, क्योंकि ऐसे उपक्रम में निवेश करने की बजाय कोई भी पूँजीपति मरघट पर लकड़ी बेचने का व्यवसाय करना पसन्द करेगा। जनता की सुरक्षा और बेहतर जिन्दगी के लिए उपयोगी तकनोलॉजी के शोध और विकास में कोई निवेश नहीं करने वाला है। नतीजतन, परमाणु ऊर्जा का सुरक्षित और बेहतर इस्तेमाल आज मुश्किल है। लेकिन एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था और समाज में यह सम्भव हो सकता है।

स्वास्थ्य तन्त्र में अमानवीयता पूँजीवाद का आम नियम है

मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मुनाफे की ख़ातिर इंसान के गोश्त को भी बेच खाने की प्रवृत्ति उसकी कोई विसंगति या विचलन नहीं है, बल्कि उसकी स्वाभाविक गति है। जो नौजवान अभी भी दूसरों के दुख-दर्द को महसूस करना जानते हैं, और नवजात शिशुओं की मौतों पर जिनका दिल गुस्से और नफरत से भर उठता है, उन्हें यह समझना होगा कि यह कुछ लोगों की नाजायज़ हरक़त या लालच का फल नहीं है। इस त्रासद स्थिति की जड़ में मुनाफा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था है। जब तक इसे तबाह नहीं किया जाता, तब तक यह हमारे जीवन को तबाह करती रहेगी।

अण्णा हज़ारे की महिमा बनाम संसद की गरिमा: तुमको क्या माँगता है?

देश के आम मेहनकतश लोग समझ रहे हैं कि अण्णा बनाम सरकार के पूरे शो में वास्तविक सवाल छिपा दिये गये हैं। यह शो वास्तव में पूँजीवाद की वास्तविक नंगई पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। यह एक ग़लत/काल्पनिक दुश्मन पैदा करता है। यह असली दुश्मन को नज़र से ओझल करता है। अण्णा बनाम सरकार एक छद्म विकल्पों का युग्म है। सभी जानते हैं कि अगर कानूनों और अधिनियमों से सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ दूर होतीं, तो इस देश के मज़दूरों की स्थिति बहुत बेहतर होती क्योंकि उनके लिए तो 206 श्रम कानून बने हुए हैं; वैसे तो भ्रष्टाचार-निरोधक कानून भी बना हुआ है; क्या कन्या भ्रूण हत्या के खि़लाफ़ कानून पास होने से यह समस्या ख़त्म हो गयी? यह तो और बढ़ी है! क्या शिक्षा के अधिकार के लिए कानून पास होने से देश में अशिक्षा ख़त्म हुई है? क्या न्यूनतम मज़दूरी और खाद्य सुरक्षा के लिए कानून बनने से ये समस्याएँ दूर हो जायेंगी? जब 64 साल के इतिहास में एक भी कानून ने कोई समस्या हल नहीं की तो ऐसा मानने वाला अव्वल दर्जे़ का मूर्ख या छँटा हुआ राजनीतिक छलिया और चार सौ बीस ही होगा कि जनलोकपाल (या कोई भी लोकपाल) बनने से भ्रष्टाचार की समस्या दूर होगी! ज़्यादा उम्मीद तो यही है कि भ्रष्ट होने के लिए एक नया अधिकारी पैदा हो जायेगा! इसलिए मूल सवाल है मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल बदलाव। और अण्णा और सरकार दोनों ही इस मूल प्रश्न पर जनता का ध्यान नहीं जाने देना चाहते हैं।

श्रम की लूट व मुनाफ़े की हवस का दस्तावेज़

1991 से शुरू हुई भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों को मुनाफा निचोड़ने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। तमाम क्षेत्रों में पूँजी द्वारा श्रम को निचोड़ने के साथ शासक वर्ग मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में शोषण के नये तरीके ईजाद कर रहा है। जिस तरह से उदारीकरण के शुरू में लोगों को लुभावनी बातें सुनायी गयी थी कि नयी नीतियों के आने के बाद रोजगार का सृजन होगा, लोगों की आय बढ़ेगी, समाज के उच्च शिखरों पर जब समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे भी पहुँचेगी। लेकिन 1991 के बाद मज़दूरों को लूटने की दर अभूतपूर्व बढ़ गयी है। ठीक उसी तर्ज़ पर राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति द्वारा ‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग एवं निवेश जोन’ (एन.एम.आई.ज़ेड.) बनाने का प्रस्ताव है जिसमें मज़दूरों के तमाम अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है। वैसे तो इस देश में पहले से मौजूद श्रम कानून व आम जनता तथा मज़दूरों के कानूनी अधिकार अपर्याप्त हैं और जो हैं भी उसे वह प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि पूँजी की दुनिया में न्याय व अधिकार पैसे की ताक़त का बन्धक है। विशेष आर्थिक क्षेत्र एवं इसी तरह की तमाम श्रम विरोधी नीतियाँ मौजूद है। पूँजीपतियों को देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा औने-पौने दामों पर लुटाया जा रहा है। शासक वर्ग का लोभ-लूट-लालच इतने से ही शान्त नहीं हो रहा है और लूट की नित नयी नीतियाँ बनायी जाती हैं।

भारतीय पूँजीवादी राजनीति का प्रहसनात्मक यथार्थ

भारत की पूँजीवादी राजनीति आजकल ऐसी हो गयी है जिस पर कोई कॉमेडी फिल्म नहीं बन सकती। कॉमेडी शैली का मूल होता है अलग-अलग तत्वों का व्यंग्यात्मक रूप से छोर तक खींच दिया जाना, अत्युक्तिपूर्ण प्रदर्शन करना। लेकिन जब यथार्थ में यह प्रक्रिया पहले ही घटित हो गयी हो, तो!!?? जैसे कि सितम्बर महीने में गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने “सद्भावना मिशन” के नाम से एक जमावड़ा किया और तीन दिन का उपवास रखा!