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पूँजी की सेवा में विज्ञान

विज्ञान, वैज्ञानिक, शोधकर्ता और विज्ञान के छात्रों – इन सबका उत्पादक श्रम और उत्पादक श्रम करने वाली मेहनतकश जनता से अलगाव अधिक से अधिक होता जाता है। परिणामत: विज्ञान अपनी जीवन शक्ति से वंचित होता जाता है। उसमें सतही कृत्रिम विकास तो क्रमिक प्रक्रिया में जारी रहता है लेकिन समाज से सापेक्षित रूप से पूर्ण कटाव उसे मृत और अबोधगम्यता की हद तक “अमूर्त” बनाता जाता है, एक ऐसा अमूर्तन जो वैज्ञानिक अमूर्तन नहीं कहा जा सकता। विज्ञान का विकास अधिक से अधिक श्रम–विरोधी रूप लेता चला जाता है और यह केवल अमीरज़ादों को आराम व मनोरंजन के नए–नए साधन प्रदान करने वाला उपकरण और मेहनतकश आबादी के शोषण को और अधिक दक्ष, सूक्ष्म और व्यापक बनाने वाला साधन मात्र बनकर रह गया है। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था में विज्ञान समाज से कटकर बाज़ार के अधीन होता जाता है और इन अर्थों में पूँजी की सेवा करने वाला एक उपकरण मात्र बनकर रह जाता है।