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और कितने बेगुनाहों की बलि के बाद समझेंगे हम? आपस में लड़ना छोड़, अपने असली दुश्मन को पहचानना ही होगा!!

इस वारदात ने एक बार फिर से साबित किया है कि जब आम लोगों को जीविकोपार्जन के साधन हासिल नहीं होते हैं, उन्हें रोज़गार नसीब नहीं होता, और महँगाई से उनकी कमर टूट जाती है तो यह व्यवस्था जनता को आपस में लड़वाती है, जिसमें शासक वर्गो के सभी हिस्सों में पूरी सर्वसम्मति होती है। असली गुनहगार वह व्यवस्था है जो एक शस्य-श्यामला धरती वाले देश में सभी को सहज रोज़गार, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और बेहतर जीवन स्थितियाँ और एक खुशहाल इंसानी जिन्दगी मुहैया नहीं करा सकती। ज़ाहिर है, कि ऐसे में व्यवस्था जनता के बीच एक नकली दुश्मन का निर्माण करती है। कभी वह मुसलमान होता है, कभी ईसाई, कभी दलित तो कभी कोई और अल्पसंख्यक समुदाय। हम सभी को समझना चाहिए कि हमारा असली दुश्मन कौन है! मेहनत करने वालों का न तो कोई धर्म होता है और न कोई देश वह जहाँ भी जाता है अपना शोषण करवाने के लिए मज़बूर होता है। साफ है, जब तक इस व्यवस्था को चकनाचूर नहीं कर दिया जाता देश की आम मेहनतकश जनता को मुक्ति नहीं मिल सकती।

सूखा प्राकृतिक आपदा या पूँजीवादी व्यवस्था का प्रकोप

आज सूखे की जिस गम्भीर हालात का महाराष्ट्र और कमोबेश देश के अन्य कई राज्य सामना कर रहे हैं, वह अनायास या संयोगवश नहीं पैदा हो गयी है, बल्कि पूँजीवादी विकास का परिणाम भी है और पूँजीवादी विकास का एक विशेष, महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा भी। सरकारी अधिकारियों-नेताओं-मन्त्रियों-धनाढ्यों की देश की ग़रीब जनता के प्रति घृणा और उनके दुःखों के प्रति उदासीनता का आज जो कुरूपतम और रुग्णतम चेहरा सामने आ रहा है वह पूँजी के सबसे मानवद्रोही और परजीवी रूप, यानी वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी, का ही एक उदाहरण है। जैसे पानी के लिए तरसते ठाणे के कुछ गाँवों में भीख-स्वरूप पानी के कुछ गिलास भर बँटवा देना “जनप्रतिनिधियों” द्वारा मानवीय संवेदनाओं और बेबसी के साथ किये जाने वाले घृणित खिलवाड़ की ऐसी ही एक ऐसी मिसाल पेश करता है जिसे शायद शब्द में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

दवा कम्पनियों के मुनाफे के लिए इंसानी जि़न्दगी से घिनौने खिलवाड़ का मसौदा

किसी भी देश के नागरिकों तक जीवन-रक्षक व अत्यावश्यक दवाओं की सहज व सस्ती उपलब्धता को सुनिश्चित करना हरेक राज्य के सबसे महत्वपूर्ण दायित्वों में से एक है। एक स्वस्थ इंसानी, जिन्दगी के लिए अनिवार्य होने के कारण यह देश की जनता का एक प्रमुख जनवादी अधिकार व मानवाधिकार भी है। लेकिन जो राज्य लोगों की सबसे बुनियादी जरूरतों – भरपेट भोजन, कपडे़ और सिर के ऊपर छत – को भी पूरा न करता हो उससे बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जाने का भ्रम पालना ही एक नादानी भरी सोच है। ख़ासकर नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के इस दौर में जबकि देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की पूँजी के आधुनिक गुलामों और मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले यंत्रों से अधिक कोई कीमत न हो तो केवल पूँजीवादी राज्य से केवल यहीं उम्मीद की जा सकती है कि वह एक एक करके स्वास्थ्य सुविधाओं, दवा-इलाज आदि को मुनाफ़े की हवस में अंधे पूँजीपतियों और उनके जंगल (बाजार) को सौंपता जाए।

आधुनिक भौतिकी और भौतिकवाद के लिए संकट

अगर हिग्स बुसॉन मिलता भी है, जिसकी सम्भावना स्वयं सर्न प्रयोग के वैज्ञानिकों के अनुसार नगण्य है, तो भी यह भौतिकवाद के लिए कोई ख़तरा नहीं होगा। यह पदार्थ जगत और पदार्थ के नये गुणों की खोज होगा और पदार्थ के इतिहास की खोज होगा। इससे भौतिकवाद के इस मूल तर्क पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि चेतना पदार्थ के पहले नहीं बाद में आती है और चेतना पदार्थ से स्वतन्त्र अस्तित्व में नहीं रह सकती बल्कि वह पदार्थ के ही एक विशिष्ट रूप के उन्नततम किस्म का गुण है। यानी, चेतना जैविक पदार्थ के उन्नततम रूप, मनुष्य का गुण है। अगर हिग्स बुसॉन मिलता है तो भी यह सत्य अपनी जगह कायम रहेगा। कोई फील्ड को ईश्वर का नाम दे देता है तो यह उस नाम देने वाले और एक हद तक फील्ड की बदनसीबी होगी, भौतिकवाद की नहीं! भौतिकवाद ने अपने एजेण्डे पर कभी यह सवाल रखा ही नहीं कि पदार्थ पैदा हुआ था या नहीं। यह भौतिकवाद की विषयवस्तु नहीं है। यह प्राकृतिक विज्ञान की विषय वस्तु है।

देश की मेहनतक़श ग़रीब जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक

लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस देश में 80 प्रतिशत आबादी भरपेट खाने के लिए आवश्यक संसाधनों का भी बड़ी मुश्किल से इन्तज़ाम कर पाती हो; जहाँ भूखों, नंगों, बेघरों, बेरोज़गारों की फौज़ दिन-ब-दिन विशाल होती जा रही हो, वहाँ मुट्ठी-भर अमीरज़ादों के विलासितापूर्ण मनबहलाव के लिए धन की ऐसी बेहिसाब बर्बादी क्या देश की मेहनतकश ग़रीब आबादी के साथ किया गया एक अक्षम्य अपराध नहीं है? और ख़ासकर दलित वोट से चुनकर उ.प्र. की मुख्यमन्त्री बनी मायावती, जिनको कि दलितों के उत्थान के एक उदाहरण के रूप में दिखाया जाता है, से पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी सरकार यह सब दलित उत्थान के लिए कर रही है?

अमेरिकी ऋण सीमा “संकट”: विभ्रम और यथार्थ

श्रम की लूट व शोषण पर टिका पूँजीवाद स्वयं में संत नहीं हो सकता और नस्लवाद, जातिवाद तथा अन्य प्राक् पूँजीवादी मूल्यों-मान्यताओं का समाधान आज इस व्यवस्था में आमूल-चूल व्यवस्था परिवर्तन द्वारा ही सम्भव है। भारत में भी इसी व्यवस्था के भीतर संवैधानिक तरीकों के जरिए जाति समस्या के समाधान के सम्भव होने का राग अलापने वाले बुद्धिजीवियों को अपने आदर्श पूँजीवादी राज्य अमेरिका के समाज के इन तथ्यों पर भी नजर उठा कर देख लेना चाहिए।

फ़ार्बिसगंज पुलिस दमन : बर्बरों के “सुशासन” का असली चेहरा

वास्तव में नीतीश का “सुशासन” फ़ासीवादियों के शासन का एक आदर्श उदाहरण है जहाँ ग़रीब किसानों और मज़दूरों और अल्पसंख्यकों के जीवन का इसके अलावा और कोई मायने नहीं होते हैं कि वे चुपचाप बड़े किसानों और पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करें और चुपचाप मर जायें, क्योंकि विरोध में अगर कहीं कोई आवाज़ उठी तो वही हश्र होगा जो फ़ार्बिसगंज में हुआ। साथ ही देश की मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा नीतीश के फ़ासीवादी शासन की लगातार बड़ाई और नीतीश को विकास के एक नये नायक के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना अभूतपूर्व संरचनागत क्राइसिस के भँवर में फँसी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की एक निरंकुश फ़ासीवादी राजतन्‍त्र की आवश्यकता के प्रति बढ़ते झुकाव को ही रेखांकित करता है।

जयराम रमेश और उनका पर्यावरण एक्टिविज़्म

इन दूरदर्शी चिन्तकों ने ‘‘समेकित’‘ विकास के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण का एक नया फार्मूला विकसित किया है – पर्यावरण संरक्षण को व्यापार तथा पूँजी निवेश के एक व्यापक क्षेत्र में विकसित कर इसे मुनाफे के स्रोत में बदलना। इस प्रकार पारम्परिक विकास के उल्टा ये फार्मूला औद्योगिकीकरण और पर्यावरण संरक्षण के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता दिखता है। इस नयी विचारधारा को ‘‘हरित’‘ नव-उदारवाद या ‘‘मुक्त’‘ बाज़ार पर्यावरणवाद का नाम दिया गया है। पर्यावरण संरक्षण का यह बाज़ार हल मूल्य के मानक और पूँजीवादी सम्पत्ति अधिकारों पर आधारित है। पिछले एक दशक में इसके तहत ‘‘ग्रीन’‘ तकनीकों तथा प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियों (सर्टीफाइड एमिसन्स रिडक्सन्स – सीईआर्स) का एक व्यापक लाभदायी विश्व बाज़ार विकसित हुआ है। वास्तव में कई मामलों में तो यह ‘‘ग्रीन’‘ व्यापार इतना अधिक फायदेमन्द साबित हुआ है कि कई इकाइयों ने मुख्य धारा के व्यापार की अपेक्षा कार्बन व्यापार से कई गुना मुनाफा कमाने की बात स्वीकारी है। अतः इस तेज़ी से उभरते बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों व विभिन्न निजी पूँजीपतियों के बीच होड़ ओर तेज़ हो गयी है। जिसे ग्रीन रेस का नाम दिया जा रहा है।

मानव जाति के अन्त की भविष्यवाणी!

यह आज का सच है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था ने, अपनी-अपनी आलीशान लक्ज़री गाड़ियों की गद्दीदार सीटों में मोटी-मोटी तोंदें लेकर धँसे धनपुशओं ने अधिक से अधिक मुनाफा पीटने की हवस में पृथ्वी के पर्यावरण को बेहिसाब क्षति पहुँचायी है और अभी भी पहुँचा रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि आज यह अहसास लोगों के दिलों में घर बना रहा है कि यह व्यवस्था आज लगभग समस्त मानव जाति के लिए एक बोझ बन चुकी है। आज यह व्यवस्था मानव जाति को कुछ भी सकारात्मक देने की अपनी शक्ति खो चुकी है। अब इसका स्थान इतिहास की कचरापेटी में ही है और इससे पहले कि पूँजीवाद पृथ्वी के पर्यावरण को मानवजाति के रहने लायक न छोड़े, यह व्यवस्था उखाड़ फेंकी जायेगी। मानव जाति ने इससे पहले भी अत्याचार और शोषण के अन्धकार में डूबी समाज व्यवस्थाओं को नष्ट किया है और प्रगति की ओर कदम बढ़ाये हैं।

भौतिकवाद के लिए संकट?

अगर फील्ड्स थियरी सही सिद्ध होती है और हिग्स बुसॉन मिलता है तो भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के लिए कोई संकट नहीं है। यदि हिग्स बुसॉन मिलता है तो बस इतना ही साबित होगा कि भौतिक विश्व का एक नया पहलू था जो अब तक उद्घाटित नहीं हुआ था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसकी व्याख्या, विस्तार और अन्य क्षेत्रों में इसके डेरिवेशन से और अधिक उन्नत होगा। भौतिकवाद ने द्रव्यमान वाले पदार्थ (मास्सिव मैटर) की मौजूदगी को अपना आधार कभी नहीं माना, बल्कि भौतिक विश्व या सामान्य रूप में भौतिकता को अपना आधार माना है। इसलिए पदार्थ की पैदाइश साबित होने से भौतिकवाद की सेहत पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा बल्कि उसके उत्तरोत्तर विकास का एक नया रास्ता दिख जाएगा ।