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बाबा रामदेव का स्वाभिमान और खाता-पीता मध्यवर्ग

आज के अँधेरे दौर में यह बात सच है कि जनता के पिछड़ेपन, ठहराव व परिवर्तनकारी शक्तियों की ताकत कमजोर होने का लाभ तमाम पाखण्डी, अन्धराष्ट्रवादी, धार्मिक-फासीवादी उठा रहे हैं। पर आज नहीं कल जनता इनके कुकृत्यों को समझेगी। मौजूदा लुटेरी व्यवस्था से इनके नाभिनालबद्ध सम्बन्ध को समझेगी। वह जानेगी कि मेहनत की लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था पर ही ऐसे ज़हरीले खरपतवार उगते हैं। वह जागेगी और मौजूदा व्यवस्था के साथ-साथ इन पाखण्डियों को भी इतिहास की बहुत गहरी कब्र में दफन करेगी। और निश्चित रूप से जनता इन पाखण्डियों को ‘ममी’ के रूप में तो क्या किसी अभिलेख में भी सुरक्षित रखने की ज़रूरत नहीं समझेगी।

आस्था मूलक दर्शनों से विज्ञान की मुठभेड़ सतत् जारी है

विज्ञान और आस्था के बीच के टकराव में विज्ञान आज तक विजयी रहा है और उसने आस्था के प्रभाव-क्षेत्र को संकुचित करने का काम किया है। मौजूदा अवैज्ञानिक पूँजीवादी व्यवस्था कूपमण्डूकता और अतार्किकता फैलाने के अपने प्रयासों के ज़रिये नये सिरे से मूर्खतापूर्ण आस्थाओं को जन्म दे रही है। विज्ञान को इन नयी कूपमण्डूकताओं पर विजय पानी होगी और इसके लिए सिर्फ कुछ वैज्ञानिक प्रतिभाओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव की भी आवश्यकता है।

कृत्रिम कोशिका का प्रयोग और नैतिकता

विज्ञान को इस व्यवस्था के भीतर आमतौर पर पूँजी की चाकरी और अत्यधिक मुनाफा लूटने की गाड़ी में बैल की तरह नाँध दिया गया है। निश्चित रूप से दार्शनिक रूप से विज्ञान के हर उन्नत प्रयोग ने भौतिकवाद को पुष्ट किया है और तर्क और रीज़न के महाद्वीपों को विस्तारित किया है। इस प्रयोग ने भी अध्यात्मवाद, भाववाद और अज्ञेयवाद की कब्र पर थोड़ी और मिट्टी डालने का काम किया है। इस रूप में ऐतिहासिक और दार्शनिक तौर पर इस प्रयोग की एक प्रगतिशील भूमिका है। लेकिन हर ऐसे प्रयोग का पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आमतौर पर मुनाफे और मुनाफे को सुरक्षित रखने वाले दमन-तन्त्र को उन्नत बनाने के लिए ही उपयोग किया जाता है। इसलिए आज हर युवा वैज्ञानिक के सामने, जो विज्ञान की सही मायने में सेवा करना चाहता है, जो मानवता की सही मायने में सेवा करना चाहता है, मुख्य उद्देश्य इस पूरी मानवद्रोही अन्यायपूर्ण विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश करना और उसके लिए संघर्ष करना होना चाहिए। एक अनैतिक व्यवस्था के भीतर नैतिक-अनैतिक की बहस ही अप्रासंगिक है।

भारतीय भौतिकवादी परम्परा के आधुनिक चिन्तक और ‘सांस्कृतिक सेनापति’ राहुल सांकृत्यायन

धर्म या मज़हब का असली रूप क्या है? मनुष्य-जाति के शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है। यदि उसमें और भी कुछ है, तो वह है पुरोहितों और सत्ताधारियों के धोखे-फ़रेब, जिनसे वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से बाहर जाने देना नहीं चाहते। मनुष्य के मानसिक विकास के साथ-साथ यद्यपि कितने ही अंशों में धर्म ने भी परिवर्तन किया है, कितने ही नाम भी उसने बदले हैं, तो भी उनसे उसके आन्तरिक रूप में परिवर्तन नहीं हुआ है। वह आज भी वैसा ही हजारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासताओं का समर्थक है, जैसा कि पाँच हजार वर्ष पूर्व था। सूत्र वही है, सिर्फ़ भाष्य बदलते गये हैं।

ईश्वर का बहिष्कार

अधिकार प्राप्त पुरोहितों,शासकों और धनपात्रों का यह स्वाभाविक लक्षण है कि वह जनसमूहों के दिल और दिमाग़ को- मन और बुद्धि को- मुर्दा बनाकर छोड़ देते हैं। इसलिए अधिकार प्राप्त लोगों के हृदय और मस्तिष्क दोनों कुत्सित होते हैं। यह कुत्सित हृदय लोग विद्वानों, वैज्ञानिकों, बड़े-बड़े लेखकों और वक्ताओं को धन देकर अपना गुलाम बना लेते हैं। हम तो रोज बड़े-बड़े सिद्धान्त की डींग मारनेवालों, सन्यास का झंडा उठानेवालों, राजनीति में बाल की खाल खींचनेवाले, दंभपूर्ण नेताओं को धनिकों के सामने कठपुतली की तरह  नाचते देखते हैं। इनमें से एक भी  निर्धन और ग़रीबों में रह कर, उनका सा जीवन व्यतीत करके उन्हें उनके स्वत्वों से सावधान वा जानकार करने नहीं जाता। मैं नहीं समझता कि ईश्वर और धर्म किस मर्ज की दवा है? धर्म ज्ञान किस खेत की मूली या बथुआ है? संप्रदायों और समुदायों के नेता किस जंगल की चिड़िया हैं? आज यदि हम इस अंधविश्वास को छोड़ दें, ईश्वर, धर्म और धनवानों के एजेटों व नेताओं से मुँह मोड़ लें अपने पैरों पर खड़े हों, तो आज ही हमारा कल्याण हो सकता है। हम किसी की प्रतिष्ठा करने के लिए नहीं पैदा हुए, हम सबके साथ समान भाव से रहने के लिए जन्मे हैं। न हम किसी के पैर पूजेंगे न हम अपने पैर पुजवायेंगे,न हमें ईश्वर की ज़रूरत है, न पैगम्बर और अवतार की, गुरु बननेवाले लुटेरों की।