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पैसा दो, खबर लो : चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज

इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।

देश के विभिन्न हिस्सों में चुनाव का भण्डाफ़ोड़ अभियान

15वें लोकसभा चुनावों के मौके पर विभिन्न क्रान्तिकारी जनसंगठनों और पत्र-पत्रिकाओं ने पूँजीवादी चुनावी जनतन्त्र की असलियत बयान करते हुए जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच प्रचार अभियान चलाया।

एक और चुनाव सम्पन्न लेकिन सवाल हमेशा की तरह बरकरार है!

चीज़ें कभी अपने आप नहीं बदलतीं। उन्हें प्रयास करके बदलना पड़ता है। और इसके लिए बल लगाने की ज़रूरत होती है। आज ऐसी कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी शक्ति देश में मौजूद नहीं है जो जनता को इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ फ़ेंकने और एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था बनाने के लिए जागृत, गोलबन्द और संगठित कर सके। ऐसे में जनता विकल्पहीनता में इस या उस पार्टी के बीच झूलती रहती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में जनता के कुछ हिस्से कभी विद्रोह में उतरते भी हैं तो यह व्यवस्था ऐसे बिखरे प्रयासों को कुचल देती है। जब तक पूरे देश के पैमाने पर ऐसी किसी शक्ति को खड़ा नहीं किया जाता तब तक यह गोरखधन्धा चलता रहेगा।

यह आम जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव है या कॉरपोरेट जगत की मैनेजिंग कमेटी का!?

सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि लगभग सभी पूँजीवादी देशों में चुनावबाज पार्टियों की पूरी फ़ण्डिंग कॉरपोरेट घरानों के दम पर ही होती है। यानी, जन-प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सारा खर्च ये घराने उठाते हैं। ये इसे अपनी जिम्मेदारी क्यों समझते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है। दूसरी बात जो और भी महत्त्वपूर्ण है कि सभी घरानों ने मिलकर देश की बड़ी पार्टिंयों कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही 50–50 करोड़ रुपए दिए हैं, यानी, इन घरानों की पार्टिंयों को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं है। इन्हें दोनों ही सामान्य रूप से स्वीकार्य है। ऐसा होना लाज़िमी भी है क्योंकि इन दोनों पार्टियों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही जनता को लूटने वाली भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों पर एक हैं।

स्कूल चले हम, स्कूल चले हम – नेता बनने!!!

हम भी नेताओं का एक स्कूल खोल रहे हैं। इसमें प्रधानाचार्य रखने में तो कठिनाई हो रही है क्योंकि सबके सब अपने क्षेत्र में धुरंधर हैं और अपने को देश का अगला प्रधानमंत्री बता रहे हैं। इसलिए शिक्षकों की ही एक टीम तैयार की है जिसमें तमाम विशेषज्ञ शिक्षक होंगे। पहले शिक्षक मोदी पढ़ायेंगे कि कैसे एक प्रायोजित कत्लेआम को ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया’’ का रूप दिया जाता है। यहाँ पढ़ाई सिर्फ़ थ्योरेटिकल ही नहीं होगी। प्रैक्टिकल के रूप में केरल, मुम्बई, मध्यप्रदेश दिखाया जायेगा। दूसरे बड़े शिक्षक होंगे मनमोहन सिंह, इस देश के बड़े अर्थशास्त्री, जो बतायेंगे कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने के लिए “ट्रिकल डाउन थियोरी” जैसे चमत्कारी सिद्धान्तों का जामा कैसे पहनाया जाय जो कहता है कि जब समाज के शिखरों पर समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे ग़रीब तबके तक पहुँच जायेगी! अब यह तो विश्व भर की मेहनतकश जनता अपने पिछले 30 साल के भूमण्डीकरण के अनुभव से बता सकती है कि आज की व्यवस्था में समृद्धि तो ‘ट्रिकल डाउन’ करती नहीं है लेकिन संकट ‘ट्रिकल डाउन’ ज़रूर करता है। साथ ही मनमोहन जी मन मोह लेते हुए बताएँगे कि पूँजीपतियों को अपनी अय्याशी इस तरह खुले में पेश नहीं करनी चाहिये कि देश की मेहनतकश जनता में रोष पैदा हो। मतलब की एक अच्छा नेता वही नहीं होता जो सरकार और पार्टी जैसी चीज़ों के बारे में सोचे बल्कि अच्छा नेता वह होता है जो ये सोचे कि कैसे ये सड़ी पूँजीवादी व्यवस्था बची रहे।

जीते कोई भी, हारेगी जनता ही!

आम छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों के सामने समझने की बात यह है कि जब तक कोई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा नहीं किया जाता तब तक चुनाव तो होते ही रहेंगे। लेकिन उसमें चुनने के लिए हमारे सामने नागनाथ, साँपनाथ, मगरमच्छ और अन्य खाफ़ैनाक जंगली जानवरों के ही विकल्प होंगे। हमें बस चुनना यह होगा कि हम किसके हाथों मरना पसन्द करेंगे! जब तक कोई विकल्प नहीं पैदा होता तब तक जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस पार्टी के भरोसे नैया पार लगाने की उम्मीद में वोट डालता रहेगा। सभी जानते हैं कि इन पार्टियों के असली आका कौन हैं, इनकी आर्थिक और राजनीतिक नीतियाँ क्या हैं। आज परिवर्तनकामी छात्रों और नौजवानों के समक्ष यही चुनौती है कि वे एक ऐसे क्रान्तिकारी विकल्प का निर्माण करें जो एक सच्ची जन व्यवस्था को खड़ा कर सके; जिसमें उत्पादन, राज-काज और पूरे समाज के ढाँचे पर धनपशुओं और उनके भाड़े के टट्टुओं का नहीं बल्कि उत्पादन करने वाले आम मेहनतकशों का हक़ होगा।

पप्पू वोट देकर क्या करेगा!

अगर विज्ञापन से प्रभावित होकर पप्पू वोट देने के लिए भी तैयार होता है तो किसे वोट देता है? हालत यह है कि चुनावी नेताओं और अपराधियों के बीच कोई ख़ास फ़र्क नहीं रह गया है। एक गैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक जिन पाँच राज्यों में अभी चुनाव होने हैं। उनमें निर्वाचित हर पाँच में से एक विधायक की आपराधिक पृष्ठभूमि है। रिपोर्ट के अनुसार कुल नवनिर्वाचित 549 जनप्रतिनिधियों में से 124 का आपराधिक रिकार्ड है। अगर दिल्ली विधानसभा की बात की जाये तो कुल 70 सीटों वाली विधानसभा में 39 फ़ीसदी विधायक दागी हैं। यानी राजधानी दिल्ली में 91 उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि है।

दिल्ली में चुनावी भण्डाफ़ोड़ अभियान

दिल्ली सहित पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों की नौटंकी और जनता के साथ होते इस धोखाधड़ी के खेल का पर्दाफाश करते हुए ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’, ‘नौजवान भारत सभा’ और ‘दिशा छात्र संगठन’ ने मिलकर ‘चुनाव भण्डाफोड़ अभियान’ 21 नवम्बर से 28 नवम्बर तक दिल्ली के कई इलाकों में सघन रूप से चलाया। करावलनगर से शुरू हुए इस अभियान में 58 वर्षों से चल रहें धनतंत्र के इस खेल की असलियत उजागर करता एक पर्चा ‘किसे चुनें? सांपनाथ, नागनाथ या बिच्छूप्रसाद को?’ पूरे इलाके में नुक्कड़ सभाएँ करते हुए बाँटा गया।