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पूँजीवादी व्यवस्था के चौहद्दियों के भीतर ग़रीबी नहीं हटने वाली

मुनाफे की होड़ पर टिकी ये व्यवस्था बिल्ली के समान है, जो चूहे मारती रहती है और बीच-बीच में हज करने चली जाती है। व्यापक मेहनतकश आवाम की हड्डियाँ निचोड़ने वाले मुनाफाखोर बीच-बीच में एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संगठन) व स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से जनता की सेवा करने उनके दुख-दर्द दूर करने का दावा करते हैं।

किस बात का जश्न?

वास्तव में पिछले एक साल में देश की ग़रीब मेहनतकश जनता को क्या मिला है, यह सभी जानते हैं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति दर 17 प्रतिशत के करीब जा रही है, जिसका अर्थ है आम आदमी की थाली से एक-एक करके दाल, सब्ज़ी आदि का ग़ायब होता जाना। रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में चल रही है। कुल मुद्रास्फीति की दर भी जून के तीसरे सप्ताह में 10 प्रतिशत को पार कर गयी। यानी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत का हर सामान महँगा हो जाएगा। इसकी सबसे भयंकर मार देश के मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसानों, और आम मध्यवर्ग पर पड़ेगा।

‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता

हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।

प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की लफ्फाज़ी

डा. मनमोहन सिंह का यह बयान कि देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है, का आधार पहले से मज़ाकिया ग़रीबी रेखा मानक को आँकड़ों की बाज़ीगरी से और मज़ाकिया बना देने और फिर उसके आधार पर ग़रीबों की संख्या का आकलन है। स्थापित ग़रीबी रेखा के अनुसार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों और में 2100 कैलारी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग स्तर किसी व्यक्ति को ग़रीबी रेखा के ऊपर कर देता है। सरकार द्वारा गरीबों के साथ धोखाधड़ी और लूट में आँकड़ों का खेल कोई नयी बात नहीं है लेकिन अब खबर यह भी है कि कैलोरी उपभोग स्तर के उपरोक्त मानक को घटाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 1890 और शहरी क्षेत्रों में 1875 कैलोरी प्रति व्यक्ति करने की योजना है। अर्थात, अब कागजी विकास के इस मॉडल में ग़रीबों की घटती संख्या दिखाने के लिए पूँजी के चाकरों को आँकड़ों की बाज़ीगरी करने की भी ज़रूरत नहीं पडे़गी।

कैसी खुशियाँ आज़ादी का कैसा शोर, राज कर रहे कफ़नखसोट-मुर्दाखोर!

जहाँ, एक ओर पिछले कुछ वर्षों में लगातार पूँजीपति घरानों की आमदनी में 150 से 200 गुणा की बढ़ोतरी हुई है, वही दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी पूँजी की मार से बेहाल हो रही है। अमीर–गरीब के बीच की खाई लगातार गहरी और चौड़ी हो रही है। नए-नए गाड़ियों के मॉडल, शॉपिंग मॉल, एयरकण्डीशन्ड अस्पताल परजीवी जमात की ऐयाशियों के लिए तैयार किए जा रहें है और इन सब के आधार पर ही सरकार ‘विकास की अवधारणा’ तय करती है। आँखों को चुंधिया देने वाली इस चकाचौंध में विलासिता के टापुओं से दूर खदेड़े जाने वाली एक बहुत बड़ी आबादी आँखों से ओझल हो रही है जो अत्यंत अमानवीय परिस्थितयों में अपना जीवन बसर करने को मजबूर है।

लेने आये अनाज कूपन, मिली गोली

देश की सम्पूर्ण आबादी को भोजन उपलब्ध कराने वाली आम मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी कालाहाण्डी और विदर्भ में आत्महत्याएँ करने को मजबूर है, देश के कारखानों में काम करने वाला मज़दूर जो ऐशो-आराम के सारे साज़ो-सामान बनाता है, सड़कें और इमारतें बनाता है, वह जीवन की बुनियादी शर्तों से क्यों वंचित है? क्योंकि इस शासन व्यवस्था के पैरोकारों के दिमाग़ पर लूट की हवस सवार है, जो शोषण की मशीनरी को चाक-चौबन्द करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

ख़र्चीला और परजीवी होता “जनतंत्र”, लुटती और बरबाद होती जनता

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पोषक तत्वों की लगातार कमी होती गई है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दालें और दूध तो गरीब आदमी में भोजन से नदारद ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। बेतहाशा बढ़ती महँगाई ने आम मेहनतक़श लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों में कटौती करने के लिए विवश कर दिया है।