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धार्मिकता बनाम तार्किकता

यह पहली घटना नहीं थी जब धार्मिक अन्धविश्वास व इन तथाकथित आध्यात्मिक प्रचारकों के पाखण्ड के चलते लोग मौत का शिकार हुए हों। जनवरी 2005 में हिमाचल में नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से ही 340 लोग मारे गए। 2008 में राजस्थान के चामुण्डा देवी मन्दिर में भगदड़ से 216 मौतें हुई। जनवरी 2010 में कृपालु महाराज के आश्रम में 63 मौतें हुई। जनवरी 2011 को केरल के सबरीवाला में 104 लोग मारे गए। इन सबके अलावा मुहर्रम व अन्य धार्मिक उत्सवों पर भी मचने वाली भगदड़ों में लोग मौत का शिकार होते हैं। रोजाना पीरों, फकीरों व झाड़फूँक के चक्कर में होने वाली मौतों का तो हिसाब ही नहीं है जो सामने नहीं आ पाती। इस प्रकार की तमाम घटनाएँ यह दर्शाती है कि अन्धविश्वासों से होने वाली मौतें किसी भी तरह से धार्मिक कट्टरता से होने वाली मौतों से कम नहीं हैं। मानव जीवन का इस तरह से समाप्त होना कई प्रश्नों को खड़ा कर देता है।

आज भी उतना ही प्रासंगिक है ‘जंगल’ उपन्यास

‘जंगल’ उपन्यास वह रचना थी जिसने गहरा सामाजिक प्रभाव छोड़ा था। पत्रिका में धारावाहिक छपने के बाद जब पुस्तक के रूप में इसे प्रकाशित करने की बारी आयी तो छह प्रकाशक सीधे तौर पर हाथ खड़े कर गये। जब सिंक्लेयर ने स्वयं इसके प्रकाशन का निर्णय लिया तो डबलसे इसे प्रकाशित करने के लिए तैयार हो गये। 1906 में पुस्तक के रूप में आते ही इस उपन्यास की 1,50,000 प्रतियाँ बिक गयीं तथा अगले कुछ ही वर्ष के भीतर 17 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका था इतना ही नहीं अमेरिका के तत्कालिक राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट ने स्वयं ‘जंगल’ उपन्यास पढ़ने के बाद अप्टन सिंक्लेयर से मुलाकात की और तत्काल ही एक जाँच कमेटी नियुक्त की जिसकी रिपोर्ट के आधार पर उसी वर्ष ‘प्योर फूड एण्ड ड्रग्स ऐक्ट’ और ‘मीट इंस्पेक्शन ऐक्ट’ नामक दो कानून पारित हुए तथा मांस पैकिंग उद्योग के मज़दूरों की जीवन-स्थितियों में सुधार के लिए भी कुछ कदम उठाये गये।

आजादी के 64 साल

यह किस बात की आजादी है? क्या आजादी के मायने यही होते हैं कि समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो अपना खून पसीना जलाकर सभी चीजें पैदा करे, लेकिन उस उत्पादन को पूंजी में बदल कर हड़प जाएं मुट्ठी भर धनकुबेर कतई नहीं? आजादी का मतलब होता है, उत्पादन करने वाले वर्गों के हाथों में वितरण के अधिकार का भी होना। यदि हर प्रकार का भौतिक उत्पादन करने के बाद भी मेहनतकश आवाम मोहताज है, तो यह आजादी नहीं है सही मायने में आजादी तभी आ सकती है, जब व्यापक मेहनतकश जनता संगठित होकर अपने संघर्षो के द्वारा निजी स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था को ध्वस्त करके सामाजिक-आर्थिक समानतापूर्ण व्यवस्था का निर्माण करें जाहिरा तौर पर इसमें छात्र-नौजवानों की भी अहम भूमिका होगी जिन्हें भगतसिंह के शब्दों में क्रान्ति का सन्देश कल कारखानों तथा खेतो-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। ताकि सचेतन तौर पर मेहनतकश वर्ग सही मायने में लोकसत्ता कायम कर सके।

आरक्षण की फसल

थोड़ा तथ्यों व आँकड़ों पर ध्यान देकर विवेक का प्रयोग करने की ज़रूरत है। बात बिलकुल साफ हो जायेगी कि आरक्षण महज़ एक नौटंकी किसलिए है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कैसे पब्लिक सेक्टर को ख़त्म करके हर चीज़ का बाज़ारीकरण किया जा रहा है। निजी मालिकाने में भी लगभग 90 फीसदी काम दिहाड़ी, ठेका, पीसरेट आदि पर कराया जाता है, 7 से 9 फीसदी विकास दर वाले देश में लगभग 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, तो आखि़र आरक्षण के मायने क्या है? दूसरा जिन जातियों के लिए आरक्षण की माँग हो रही है, (चाहे वे जाट, गुर्जर, यादव, मीणा कोई भी हों) उनमें भी ध्रुवीयकरण जारी है, पूँजी की नैसर्गिक गति भारी आबादी को उजाड़कर सर्वहारा, अर्धसर्वहारा की कतार में खड़ा कर रही है। तो इसमें भी बड़े किसान, कुलक ही पूँजीवादी भूस्वामी बनकर चाँदी काट रहे हैं, और दूसरे लोगों के लिए आरक्षण का झुनझुना थमाने पर आमादा हैं।