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अमेरिका के जनतंत्र-प्रेम की हक़ीक़त

विश्व भर में अपने आप को लोकतंत्र का रखवाला बताने वाले और मानव अधिकारों की पहरेदारी का ढोंग रचाने वाले अमेरिका का असली चेहरा अब उभर कर सामने आने लगा है। आज दुनिया भर में अमेरिकी दादागीरी इतने नंगे रूप में सामने आ चुकी है कि ‘अमेरिकी जनतंत्र’ के चेहरे पर पड़े मानवता के नक़ाब को हटाने पर अब कुछ अमेरिकी बुद्धिजीवी व मीडिया भी मजबूर है। हालाँकि, उनका स्वर अमेरिकी ज़्यादतियों के लिए माफ़ी माँगने वाला ज़्यादा, और अमेरिकी साम्राज्यवाद की पुंसत्वपूर्ण ख़िलाफ़त करने वाला कम है।

अमेरिकी सबप्राइम संकट: गहराते साम्राज्यवादी संकट की नयी अभिव्यक्ति

ऋण द्वारा वित्तपोषित कोई भी उपभोग, निवेश या किसी भी अन्य तरह की आर्थिक तेज़ी न सिर्फ़ वृद्धि की दर को कम करती जाती है बल्कि पूरे पूँजीवादी अर्थतंत्र को संकटों के सामने और अरक्षित बना देती है। एक ओर पूँजीवाद में अस्थिरता बढ़ती जाती है और दूसरी ओर वृद्धि भी ख़त्म होती जाती है। यानी एक मन्द मन्दी लगातार बरकरार रहती है जो समय-समय पर किसी बड़ी मन्दी में तब्दील होती रहती है। सबप्राइम संकट में यही बात साबित हो रही है। जिस-जिस बात की आशंका अर्थशास्त्रि‍यों ने अभिव्यक्त की थी, बिल्कुल वही हो रहा है। सबप्राइम संकट के कारण डॉलर का हृास हो रहा है जो पूरी विश्व अर्थव्यवस्था को एक लम्बी मन्दी की ओर धकेल रहा है। इससे बचने का कोई तात्कालिक रास्ता तो समझ में नहीं आ रहा है।

वर्जीनिया गोलीकाण्ड – अमेरिकी संस्कृति के पतन की एक और मिसाल

वर्जीनिया गोलीकाण्ड ने इस बात को एक बार फ़िर उजागर कर दिया है कि पूँजीवाद और उसके द्वारा प्रसारित और समर्थित रुग्ण व्यक्तिवाद समाज और मानवता को सिर्फ़ यही दे सकता है। आज के दौर में जब दुनिया की सभी बुनियादी उत्पादक प्रक्रियाओं का चरित्र सामूहिक हो चुका है, आज जबकि दुनिया की समस्त समृद्धि और सम्पदा के स्रोत के तौर पर मेहनतकश समूह सामने है, ऐसे में व्यक्तिवाद की सोच और पूँजीवादी विचारधारा एक अनैतिहासिक विचारधारा है। इसके नतीजे के तौर पर हमें इसी तरह के गोलीकाण्ड और नरसंहार मिलते रहेंगे; इसी तरह के मानसिक रुग्ण पैदा होते रहेंगे; और इसके ज़िम्मेदार वे स्वयं नहीं होंगे बल्कि वह समाज होगा जिसमें व्यक्तिगत लाभ और पहचान ही सबकुछ होगा और सामूहिक हित का कोई स्थान नहीं रहेगा। सामूहिकता वैयक्तिकता का निषेध नहीं है। उल्टे सामूहिकता में ही वैयक्तिकता पूरी तरह से फ़लफ़ूल सकती है।

साम्राज्यवादियों के लिए कुछ सबक

साम्राज्यवादियों की इतिहास से कुछ ख़ास दुश्मनी या खुन्नस है। इतिहास उन्हें जो सबक सिखाना चाहता है वे उसे सीखते ही नहीं हैं। पहले वियतनाम युद्ध में, कोरिया युद्ध में, इराक और अफगानिस्तान में, और भी तमाम देशों में हुए साम्राज्यवादी हमलों और हस्तक्षेपों में यह बात साबित हुई है कि युद्ध में निर्णायक जनता होती है हथियार नहीं। वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मंसूबों को नाकाम बनाते हुए वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वहाँ की जनता ने अमेरिकी सेना को मार–मारकर खदेड़ा। कोरिया में भी अमेरिकी सेना का हश्र उत्तर कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ ऐसा ही किया। इराक और अफगानिस्तान पर कब्जे के बावजूद यह बात साबित हो गई कि युद्ध अभी ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि जनता का जवाब तो अब मिलना शुरू हुआ है और कब्जे के बाद हुए छापामार हमलों में हजारों अमेरिकी और मित्र देशों के सैनिक मारे जा चुके हैं। और सबसे नया उदाहरण है इजरायल की अत्याधुनिक हथियारों और अमेरिकी हथियारों से लैस सेना की लेबनान के एक छोटे–से छापामार समूह हिज़्बुल्लाह के हाथों शर्मनाक शिकस्त।

एक बग़दाद अमेरिका के भीतर…

जिस तरह बुश प्रशासन ने एक युद्ध इराक, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन के करोड़ों लोगों पर थोपा है, उसी तरह उसने एक युद्ध अमेरिका के भीतर ही अमेरिकी मजदूर वर्ग और आम जनता के ख़िलाफ छेड़ रखा है, आजादी के सभी संजीदा हिमायतियों, अश्वेतों, अरब मूल के लोगों, मुलैटो और चिकानो लोगों के ख़िलाफ छेड़ रखा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद एक ऐसी मानवद्रोही ताकत है जो सिर्फ़ मध्य–पूर्व की आम जनता को ही नहीं, बल्कि अपने देश की आम जनता को भी तबाही–बरबादी के गड्ढे में धकेल रही है। यह पूरी दुनिया को बरबाद करके अपनी विशाल पूँजी के लिए मुनाफे की चरागाह में तब्दील कर देना चाहता है। इसकी सही जगह इतिहास का कूड़ेदान है। दुनिया भर के आम मेहनतकश, छात्र और नौजवान दुनिया को वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर नहीं बनने देंगे।

पूँजीवाद की नई गुलामी

आज अगर दिल्ली, बंगलोर, कोलकाता और मुम्बई जैसे महानगरों के मध्यवर्गीय नौजवानों का साक्षात्कार लिया जाय तो उनमें कइयों का सपना होगा कि वे अमेरिका जाएँ। वैश्विक मीडिया और हॉलीवुड की फ़िल्मों ने अमेरिका की छवि एक स्वर्ग जैसे ऐश्वर्यपूर्ण, तमाम सुख-सुविधाओं से लैस देश की बनाई है, जहाँ कोई “ग़रीब” नहीं, और अगर है, तो वो भी कार में चलता है। नतीजतन, अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों के मध्यवर्ग का स्वप्नदेश बन गया है-‘एवरीबाडी वॉण्ट्स टू फ्लाई टू अमेरिका’।

प्रधानमंत्री महोदय की अमेरिका-यात्रा

भारत का पूँजीपति वर्ग कोई कठपुतली दलाल या घुटनाटेकू पूँजीपति वर्ग नहीं है। वह सभी से सम्बन्ध रखकर अपना हित साधाने में माहिर है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि साम्राज्यवाद पर उसकी आर्थिक निर्भरता है, लेकिन यह निर्भरता किसी एक साम्राज्यवादी देश पर नहीं है बल्कि पूरे विश्व साम्राज्यवाद पर है। वह किसी एक पर निर्भर होकर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता पर ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता और इसलिए वह विश्व पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के अलग-अलग धड़ों पर अपनी आर्थिक निर्भरता के बीच इतनी कुशलता से तालमेल करता रहा है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता बरकरार रहे।