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अमरीकी चुनाव और ट्रम्प परिघटना

हमारा मकसद इस चुनाव के ज़रिये मौजूदा दौर को समझना है और अमरीका के राजनीतिक पटल पर मौजूद ताकतों का मूल्यांकन करना है। चुनाव के परिणामों में जाये बिना हम अपनी बात आगे जारी रखते हैं। यह मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फैलाये जा रहे नस्लवाद, मुस्लिम विरोध, शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर अमरीका को फिर से महान बनाने के नारों को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ट्रम्प के चुनावी प्रचार को अमरीका के टुटपुंजिया वर्ग और श्वेत वाईट कॅालर मज़दूरों के एक हिस्से ने ज़बरदस्त भावना के साथ फैलाया है।

‘पाप और विज्ञान’: पूँजीवादी अमेरिका और समाजवादी सोवियत संघ में नैतिक प्रश्नों के हल के प्रयासों का तुलनात्मक ब्यौरा

सोवियत सरकार द्वारा व्यभिचार के अड्डों को ध्वस्त करने की मुहिम छेड़े जाने से घबराये ठेकेदारों और वेश्यागृहों के मालिकों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया। वे सोवियत अख़बारों में पत्र भेजकर यह कहने लगे कि सोवियत सरकार वेश्याओं को पनाह देकर और भोले-भाले मालिकों को दण्ड देकर घोर पाप कर रही है। किन्तु सोवियत अधिकारियों ने उनकी चीख-पुकार का उत्तर सेना की ओर से और भी कड़ी कार्रवाई से दिया। ठेकेदारों ने यह दलील देनी शुरू की कि वेश्याओं को अपना पेशा ज़ारी रखने का हक़ है। अधिकारियों ने प्रश्न-पत्र का ज़िक्र करते हुए कहा कि औरतों ने व्यभिचार को मजबूरी की हालत में अपनाया है और समाज का यह कर्तव्य है कि वह उन्हें अच्छे काम देकर व्यभिचार से मुक्त करे।

शार्ली एब्दो और बोको हरम: साम्राज्यवादी ताक़तों का दुरंगा चरित्र

हर तरह के धार्मिक कट्टरपन्थ का इस्तेमाल उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों, जनान्दोलनों और जन संघर्षों को कमज़ोर करने, बाँटने और विसर्जित करने के लिए करता आया है। साम्राज्यवाद द्वारा धार्मिक कट्टरपन्थ के व्यवस्थित इस्तेमाल की शुरूआत हमें आज से सौ वर्ष पहले ‘साइक्स-पीको’ समझौते और दूसरे विश्व युद्ध के बाद ट्रूमैन डॉक्ट्रिन के काल से देखनी चाहिए जिसके अनुसार यूरोपीय-अमेरिकी शक्तियाँ और प्रतिक्रियावादी खाड़ी के राजशाहियों और अमीरों द्वारा अरब विश्व में इस्लामी दक्षिणपन्थी ताक़तों को हथियार के तौर पर तैयार करने की योजना थी ताकि कम्युनिज़्म के प्रेत और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद के बढ़ते ख़तरे को रोका जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डीवाइट डी. आइजेनहावर ने व्हाइट हाउस के हॉल में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं का स्वागत किया था। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ और इण्टेलिजेंस सेवाओं ने दशाब्दियों तक ‘जेहादियों’ से लेकर नरमपन्थी इस्लामी समूहों को बढ़ावा दिया। अमेरिका के नेतृत्व में ही कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ अफ़गान जेहादियों पर भी खाड़ी की राजशाहियों और अमीरों ने ख़ज़ाने लुटाये। विश्व भर से जेहादी अफ़गान पहुँचने लगें। यह अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेंस्‍की ही था जिसने एक लाख से ज़्यादा जिहादियों के सामने अफ़गानिस्तान के वाम धड़े की सरकार के ख़िलाफ़ और सोवियत संघ को युद्ध में उलझाने के लिए खैबर दर्रे की एक पहाड़ी पर खड़ा हो एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में कुरान लिए ऐलान किया था ‘ये दोनों तुम्हें आज़ाद करेगें!’ राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफ़गान मुजाहिद्दीन के नेताओं का स्वागत व्हाइट हाउस में किया था और कहा था कि ‘ये हमारे राष्ट्र के संस्थापकों के नैतिक समतुल्य हैं’। गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे जेहादी भाड़े के टट्टुओं को वाशिंगटन और जेफ़रसन के महान व्यक्तित्व तक ऊँचा उठाया गया!

ड्रोन हमले – अमेरिकी हुक्मरानों का खूँखार चेहरा

‘कण्ट्रोल रूम’ में बैठे आपरेटरों के लिए यह सब एक वीडियो गेम की तरह होता है। सामने खड़े इन्सानों को मारने की तुलना में कम्प्यूटर स्क्रीन पर दिखायी दे रहे ‘टारगेट’ को बटन दबाकर उड़ा देना कहीं आसान होता है। इसलिए हमले की क्रूरता और भी बढ़ जाती है। शादी, मातम, या अन्य अवसरों पर इकट्ठा हुए लोगों के भारी समूह एक बटन दबाकर उड़ा दिये जाते हैं। घरों में सो रहे लोगों को एक पल में मलबे के ढेर में मिला दिया जाता है। बसों-कारों में बैठी सवारियों की ज़िन्दगी का सफ़र किसी “आतंकवादी” के सवार होने के शक के आधार पर ख़त्म कर दिया जाता है। यहाँ तक कि अकसर हमले के बाद घायलों और मृतकों के पारिवारिक सदस्यों, आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तक को फिर से मिसाइल दाग कर निशाना बनाया जाता है।

अमेरिका की बन्दूक-संस्कृति आदमखोर पूँजीवादी संस्कृति की ही ज़हरीली उपज है

अमेरिकी समाज की हिंसक संस्कृति के इस संक्षिप्त इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि समस्या कहीं ज़्यादा गहरी और ढाँचागत है और उसके समाधान के रूप में जो क़वायदें की जा रही हैं वह मूल समस्या के आस-पास भी नहीं फटकतीं। जो लोग बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की बात करते हैं वे इस जटिल और गम्भीर समस्या का सतही समाधान ही प्रस्तुत करते हैं और निहायत ही बचकाने ढंग से ऐसी घटनाओं के लिए बन्दूक के उपकरण को जिम्मेदार मानते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की कवायदें की जा रही हैं। पहले भी इस किस्म के नियन्त्रण लाने की बातें होती रही हैं। कुछ कानूनी बदलाव भी होते रहे हैं, परन्तु इन नियन्त्रणों का कुल परिणाम यह होता है कि अश्वेतों और अल्पसंख्यकों का निरस्त्रीकरण होता है जबकि कुलीन श्वेत अमेरिकी धड़ल्ले से बन्दूक लेकर घूमते हैं और उनमें से ही कुछ लोग सैण्डी हुक जैसे नरसंहार अंजाम देते हैं।

किसे चाहिए अमेरिकी शैली की स्वास्थ्य सेवा?

सरकार जिस तरह से जनता की स्वास्थ्य सेवा से हाथ पीछे खींच रही है, उससे सरकार का मानवद्रोही चरित्र साफ़ सामने आता है। स्वास्थ्य का अधिकार जनता का बुनियादी अधिकार है। भारत में स्वास्थ्य का स्तर सर्वविदित है। जिस देश में पहले से ही 55 प्रतिशत महिलाएँ रक्त की कमी का शिकार हों, जहाँ 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, वहाँ स्वास्थ्य सेवा को बाज़ार की ताकतों के हवाले करने के कितने भयावह परिणाम हो सकते हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। सरकार के इस प्रस्तावित कदम से भी यह साफ़ हो जाता है कि ऐसी व्यवस्था के भीतर जहाँ हर वस्तु माल होती है, वहाँ जनता की स्वास्थ्य सेवा भी बिकाऊ माल ही है। जिस व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु मुनाफा हो उससे आप और कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते हैं।

अमेरिकी ”जनतन्त्र” की एक और भयावह तस्वीर!

जाहिरा तौर पर अमेरिकी जेलों में कैदियों की बेतहाशा बढ़ती आबादी, विभिन्न किस्म के सामाजिक अपराधों में हो रही बढ़ोत्तरी, अमेरिकी न्याय व्यवस्था के अन्याय और उग्र होते नस्लवाद की परिघटना कोई अबूझ सामाजिक-मनोवज्ञैानिक पहेली नहीं है। हर घटना-परिघटना की तरह इसके भी सुनिश्चित कारण हैं क्योंकि अपराधों का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है। बढ़ते अपराधों का कारण आज अमेरिकी समाज के बुनियादी अन्तरविरोध में तलाशा जा सकता है। यह अन्तरविरोध है पूँजी की शक्तियों द्वारा श्रम की ताक़तों का शोषण और उत्पीड़न। जब तक कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन दमित-शोषित आबादी को कोई विकल्प मुहैया नहीं कराता, तब तक इस आबादी का एक हिस्सा अपराध के रास्ते को पकड़ता है। शुरुआत विद्रोही भावना से होती है, लेकिन अन्त अमानवीकरण में होता है। विश्वव्यापी मन्दी ने इस अन्तरविरोध को और भी तीख़ा बना दिया है।

वियतनाम युद्ध और ओबामा के झूठ

वियतनाम युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सबसे बुरी यादों में से एक है। यह पूरे अमेरिकी जनमानस के लिए एक सदमा था जिसमें पहली बार साम्राज्यवादी अमेरिका को स्पष्ट तौर पर समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर करना पड़ा और दुम दबाकर भागना पड़ा। इसलिए, अगर अमेरिकी साम्राज्यवादी हमेशा से वियतनाम युद्ध की कड़वी सच्चाइयों को अपने झूठों से ढँकने और उस राष्ट्रीय अमेरिकी शर्म पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इन प्रयासों को अंजाम देने वाले राष्ट्रपतियों में मई महीने में अमेरिका “प्रगतिशील” अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा का नाम भी शुमार हो गया।

पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा।

अमेरिकी ऋण सीमा “संकट”: विभ्रम और यथार्थ

श्रम की लूट व शोषण पर टिका पूँजीवाद स्वयं में संत नहीं हो सकता और नस्लवाद, जातिवाद तथा अन्य प्राक् पूँजीवादी मूल्यों-मान्यताओं का समाधान आज इस व्यवस्था में आमूल-चूल व्यवस्था परिवर्तन द्वारा ही सम्भव है। भारत में भी इसी व्यवस्था के भीतर संवैधानिक तरीकों के जरिए जाति समस्या के समाधान के सम्भव होने का राग अलापने वाले बुद्धिजीवियों को अपने आदर्श पूँजीवादी राज्य अमेरिका के समाज के इन तथ्यों पर भी नजर उठा कर देख लेना चाहिए।