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जुमले बनाम रोज़गार और विकास की स्थिति

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मन्दी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय ‘स्टार्टअप’ वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! ‘फ्लिपकार्ट’, ‘एल एण्ड टी इन्फोटेक’ जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे कागज के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ‘ज्वाइन’ नहीं कराया जा रहा है!

जल संकट : वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी का नतीजा

जब पानी को सुगम और सर्वसुलभ ही न रहने दिया हो और उसे एक मुनाफ़ा देनेवाले उद्योग की शक्ल में बदल दिया हो तो क्रय शक्ति से कमजोर आम जन समुदाय के लिए उस तक पहुँच ही कठिन नहीं होगी बल्कि जल्दी ही यह उसके लिए एक विलासिता की सामग्री भी हो जायेगी, यह निश्चित है। पानी का एक मुनाफ़ेवाला कारोबार बनने के समय से ही पूरी दुनिया के कारोबारियों के बीच इस पर आधिपत्य के लिए भीषण प्रतिस्पर्धा जारी हो चुकी थी। लगभग 500 बिलियन डालर के इस वैश्विक बाज़ार के लिए यह होड़ बेशक अब और अधिक तीखी होने वाली है।

लोकप्रियता और यथार्थवाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (1938)

अगर हम एक ज़िन्दा और जुझारू साहित्य की आशा रखते हैं जो कि यथार्थ से पूर्णतया संलग्न हो और जिसमें यथार्थ की पकड़ हो- एक सच्चा लोकप्रिय साहित्य- तो हमें यथार्थ की द्रुत गति के साथ हमकदम होना चाहिए। महान मेहनतकश जनता पहले से ही इस राह पर है। उसके दुश्मनों की कारगुजारियाँ और क्रूरता इसका सबूत हैं।

फासीवादी हमले के विरुद्ध ‘जेएनयू’ में चले आन्दोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल

कोई भी आन्दोलन जब व्यक्ति केन्द्रित होता है या ‘से‍क्टेरियन’ राजनीति का शिकार होता है तो अपनी तमाम उर्वर सम्भावनाओं के बावजूद वह सत्ता के विरुद्ध राजनीतिक प्रतिरोध के तौर पर प्रभावी होने की क्षमता खो बैठता है। वह आन्दोलन किसी धूमके‍तु की तरह आकाश में बस चमक कर रह जाता है। कुछ लोगों या संगठनों के नाम अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियाँ बनते हैं और फ़िर वे इन्हें अपने-अपने फायदे के अनुसार भुनाते हैं। व्यापक राजनीति‍ के साथ यह धोखाधड़ी और मौकापरस्ती इतिहास के इस कठिन दौर में जब फासीवाद इस कदर समाज पर छा रहा है और पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावाद और कट्टरपन्थ का दौर है, बेहद महँगा साबित होने जा रहा है।

राष्ट्रवाद : एक ऐतिहासिक परिघटना का इतिहास और वर्तमान

उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।

ब्रिटेन का यू‍रोपीय संघ से बाहर जाना: साम्राज्यवादी संकट के गहराते भँवर का नतीजा

ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं।

मोदी सरकार के दो साल: जनता बेहाल, पूँजीपति मालामाल

मोदी सरकार के दो वर्षों में उपरोक्त आर्थिक नीतियों के कारण आम मेहनतकश जनता को अभूतपूर्व महँगाई का सामना करना पड़ रहा है। इन दो वर्षों में ही रोज़गार सृजन में भारी कमी आयी है और साथ ही बेरोज़गारों की संख्या में भी खासा इज़ाफ़ा हुआ है। मज़दूरों के शोषण में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है क्योंकि मन्दी के दौर में मज़दूरों को ज़्यादा निचोड़ने के लिए जिस प्रकार के खुले हाथ और विनियमन की पूँजीपति वर्ग को ज़रूरत है, वह मोदी सरकार ने उन्हें देनी शुरू कर दी है। कृषि क्षेत्र भी भयंकर संकट का शिकार है। यह संकट एक पूँजीवादी संकट है। साथ ही, सरकारी नीतियों के कारण ही देश कई दशकों के बाद इतने विकराल सूखे से गुज़र रहा है। इन सभी कारकों ने मिलकर व्यापक मज़दूर आबादी और आम मेहनतकश जनसमुदायों के जीवन को नर्क बना दिया है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने हाफपैण्टिया ब्रिगेड को दो चीज़ों की पूरी छूट दे दी है: पहला, सभी शैक्षणिक, शोध व सांस्कृतिक संस्थानों को खाकी चड्ढीधारियों के नियंत्रण में पहुँचा दिया है ताकि देशभर में आम राय के निर्माण के प्रमुख संस्थान संघ परिवार के हाथ में आ जायें और दूसरा, देश भर में आम मेहनतकश अवाम के भीतर इस भयंकर जनविरोधी सरकार के प्रति विद्रोह की भावना न पनपे इसके लिए उन्हें दंगों, साम्प्रदायिक तनाव, गौरक्षा, घर-वापसी जैसे बेमतलब के मुद्दों में उलझाकर रखने के प्रयास जारी हैं।

विजय माल्या तो झाँकी है, असली कहानी अभी बाकी है

भारत के रिलायंस, वेदान्ता, अदानी, जेपी जैसे सबसे बड़े औद्योगिक घराने ‘लोन डिफ़ॉल्टरों’ में सम्भावित रूप से शामिल हैं। मात्र राज्य नियंत्रित बैंकों का ही कुल ‘एन.पी.ए.’ 3.04 लाख करोड़ रुपये है। ये रक़म कितनी बड़ी है इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये भारत के कुल शिक्षा बजट का चार गुना है। ऐसा माना जा रहा है कि इसमें से एक बहुत बड़ी रकम कभी भी वापस बैंकों के पास नहीं जायेगी। स्वाभाविक ही सबसे बड़े लोन बड़े-बड़े उद्योग घरानों द्वारा लिये जाते हैं। हालाँकि रिज़र्व बैंक सहित कोई भी बैंक इन बड़े डिफ़ॉल्टरों का नाम तो सार्वजनिक नहीं करता मगर इन कम्पनियों की बैलेंस शीट से काफ़ी कुछ स्पष्ट हो जाता है। मार्च 2015 में अकेले रिलायंस समूह के ऊपर कुल कर्जा रुपये 1.25 लाख करोड़ का था, कमोबेश यही हालात देश के बाकी अन्य उद्योग घरानों के भी हैं। स्पष्ट है कि इस कुल कर्जे का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा बैंकों से लिए लोन से भी आता है। स्वाभाविक ही ये उद्योग घराने ही सबसे बड़े डिफ़ॉल्टर भी होते हैं।

सेल्फ़ी संस्कृति- पूँजीवादी युग में अलगाव एवं व्यक्तिवाद की चरम अभिव्यक्ति

जो परिस्थितियाँ सेल्फ़ी जैसी आत्मकेन्द्रित सनक को पैदा कर रही हैं, वही फ़ासीवादी बर्बरता को भी खाद-पानी दे रही हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में सेल्फ़ी की सनक का सबसे बड़ा ब्राण्ड अम्बैसडर एक ऐसा व्यक्ति है जो आज के दौर में फ़ासीवाद का प्रतीक पुरुष भी बन चुका है। दूसरों के दुखों व तकलीफों के प्रति संवेदनहीन और खासकर शोषित-उत्पीड़ित जनता के संघर्षशील जीवन से कोई सरोकार न रखने वाले आत्मकेन्द्रित व आत्ममुग्ध निम्नबुर्जुआ प्राणी ही फ़ासीवाद का सामाजिक आधार होते हैं।

शेयर बाज़ार का गोरखधन्धा

शेयर बाज़ार वित्तीय बाज़ार का एक अंग है जो एक मायावी जंजाल प्रतीत होता है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे शैतान की खाला भी नहीं समझ सकती। सभी बड़े अखबारों का एक पन्ना वित्तीय बाज़ार की कारगुजारियों को ही समर्पित रहता है। समाचार चैनलों पर भी शेयरों के दामों की गतिविधियाँ मिनट-मिनट में अपडेट होती रहती हैं। निवेशकों की सेहत वित्तीय बाज़ार की सेहत से एकरूप होती है। शेयरों के बाज़ार भावों के चढ़ने-गिरने का उनकी सेहत पर भी सीधा असर पड़ता है। बिना हाथ-पैर चलाये तुरन्त अमीर बन जाने की चाहत में लोग शेयर बाज़ार में पैसा लगाते हैं और आये दिन बर्बाद होते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई कंगाल-बर्बाद ही होता है, कुछ बड़े खिलाड़ी भी रहते हैं जो मोटा पैसा ले उड़ते हैं। यह सब कुछ कैसे घटित होता है और कैसे चन्द मिनटों में ही बाज़ार से अरबों रुपये की पूँजी छूमन्तर हो जाती है और लोग सड़कों पर आ जाते हैं, यह जानना काफ़ी दिलचस्प है।