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कलाकार का सामाजिक दायित्व क्या है?

सच्चे कलाकार को जनता के दुखों को अपने कैनवास, सेल्यूलोईड या संगीत में उतार लाना होगा। इस कथन में ही यह निहित है कि मौजूदा बाज़ार पर चलने वाली व्यवस्था में एक कलाकार को अपनी कलाकृति को बाजारू माल नहीं बल्कि जनपक्षधर औज़ार बनाना होगा। आज जिस समाज में हम जी रहे हैं वह मानवद्रोही और कलाद्रोही है और नैसर्गिक तौर पर कोई भी कलाकार इस समाज की प्रभावी विचारधारा से ही निगमन करता है परंतु उसकी कला उसकी पूँजीवादी विचारधारा के नज़रिये के विरोध में रहती है। कला इसलिए ही एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण पर टिके मौजूदा समाज के खिलाफ़ विद्रोह के साथ ही संगति में रहती है। आज जब देश में फासीवादी सरकार जनता के हक अधिकारों को अपने बूटों तले कुचल रही है तो क्या इन मसलों पर कलाकारों द्वारा एक जनपक्षधर विरोध देश में उठता दिख रहा है? नहींं। हालाँकि कलाकार भी इन सभी मुद्दों से अलहदा नहींं हैं। इस सवाल पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।

‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश के 1% लोग देश की 73% सम्पत्ति पर कब्जा करके बैठे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति में 16000 गुना की वृद्धि हुई है, विजय माल्या और नीरव मोदी जो 9000 करोड़ और 11000 करोड़ रुपये लोन लेकर विदेश भाग गये। पनामा और पैराडाइज़ पेपर के खुलासे के बाद सरकार की नंगयी साफ तौर पर जगजाहिर हो गयी कि इनका मकसद काला धन लाना नहीं उसे सफ़ेद धन में तब्दील करना है। इस साल रिकॉर्ड ब्रेक करते हुए सरकार ने एनपीए के मातहत 1,44,093 करोड़ रुपये माफ़ कर दिया। एक तरफ धन्नासेठों-मालिकों के लिए पलकें बिछाकर काम किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कश्मीर से तूतीकोरिन तक जनता के प्रतिरोध को डंडे और बन्दूक के दम पर दबाया जा रहा है। छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित, महिलाएँ सब पर चौतरफा हमला किया जा रहा है। 2 करोड़ नौकरियाँ हर साल देने का वादा, नमामि गंगे में 7000 करोड़ रुपये खर्च किये जाने, 2019 तक सबको बिजली जैसे लोकलुभावन वायदों की हकीकत सबके सामने खुल रही है। अच्छे दिन आये पर धन्नासेठों के लिए, आम जनता की हालात बद से बदतर ही हुई है।

तमाशा-ए-सीबीआई

अपने फासीवादी एजेंडों को अमल में लाने की कोशिश में भाजपा विभिन्न सरकारी संस्थाओं के प्रमुख पदों पर लगातार अपने करीबी लोगों को बिठाती रही है फिर चाहे वो विश्वविद्यालय, एफ़टीआईआई हो या सीबीएफसी हो। राकेश अस्थाना को सीबीआई का विशेष निदेशक बनाना इसी श्रृंखला की एक कड़ी भर था। राकेश अस्थाना के इतिहास पर भी एक निगाह डालने की आवश्यकता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से राकेश अस्थाना की नजदीकियाँ दो दशक पुरानी हैं। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के प्रधानमन्त्री थे तब अस्थाना गुजरात के पुलिस महकमे में उच्च अधिकारी थे। उनकी गिनती नरेन्द्र मोदी के नजदीकी अधिकारियों में होती थी। 2002 में हुए गोधरा काण्ड को उन्होंने पूर्व नियोजित नहीं बल्कि ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कहा था। जबकि 2009 में आयी जाँच रिपोर्ट में साबित हुआ है कि यह पूर्वनिर्धारित था। उनपर वित्तीय अनियमितता के आरोप भी लगे है। अभी हाल में एक रिटायर्ड पी.एस.आई. ने सूरत के पुलिस कमिश्नर रहे राकेश अस्थाना पर 2013-2015 के दौरान पुलिस वेलफेयर फण्ड के 20 करोड़ रुपये अवैध तरीके से भाजपा को चुनावी चन्दे के तौर पर देने का आरोप लगाया था।

जमाल ख़शोज़ी की मौत पर साम्राज्यवादियों के आँसू परन्तु यमन के नरसंहार पर चुप्पी!

सऊदी अरब के खुफिया एजेंटों ने सऊदी अरब मूल के अमरीकन पत्रकार जमाल ख़शोजी को तुर्की के सऊदी अरब के कॉन्सुलेट में मार दिया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दरिया में बहा दिया। इसपर पश्चिमी जगत की मुख्यधारा मीडिया हाय तौबा करने में लगा हुआ है। यह बात समझ लेनी होगी कि ख़शोजी कोई जनपक्षधर पत्रकार नहींं था। कुछ समय पहले तक वह सऊदी अरब की सत्ता के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थक था। अमरीका में रहते हुए उसने अमरीका के ‘प्रगतिशील’ विचारों का प्रचार करना शुरू किया और पश्चिमी देशों के सरीखे ‘जनवाद’ को सऊदी अरब में लागू करने की बात कह रहा था। वह सऊदी अरब की राजशाही को मध्यकालीन रिवाजों को त्यागने की नसीहत ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के जरिये दे रहा था। हालाँकि उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वह बहुत कुछ जानता था और सऊदी अरब की सत्ता का पिट्ठू न रहकर राजशाही की मन्द आलोचना कर रहा था। वह दरबार के अन्दर ना होते हुए भी दरबार के बारे में बहुत कुछ जानता था।

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार भारत बेरोजगारी दर में एशिया में शीर्ष पर

इसी साल फरवरी महीने में भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र रेलवे द्वारा 89,409 पदों के लिए रिक्तियाँ निकाली गयीं, जिसके लिए 2.8 करोड़ से भी अधिक आवेदन प्राप्त किये गये। मतलब हर पद के लिए औसतन 311 लोगों के बीच मुकाबला होगा। आवेदन भरने वालों में मैट्रिक पास से लेकर पी.एच.डी. डिग्री धारक तक लोग मौजूद थे। आवेदकों की उम्र 18 साल से लेकर 35 साल के बीच है, अर्थात् एक पूर्ण युवा और नौजवान आबादी। उपरोक्त संख्या अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भारत में बेरोजगारी का आलम क्या है। यह सरकार द्वारा किये गये हर उस दावे को झुठलाने के लिए काफी है जिसमें वह दावा करती है कि उसने देश में रोजगार पैदा किया है। साथ ही यह सरकार की मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं की पोल भी खोल कर रख देती है। यह कोई ऐसी पहली घटना नहींं है। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में चपरासी के 315 पदों के लिए 23 लाख आवेदन भरे गये थे, वहीं पश्चिम बंगाल में भी चपरासी और गार्ड की नौकरी की लिए 25 लाख लोगों ने आवेदन भरा था। दोनों ही जगह स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पीएचडी डिग्री धारक लोग भी उस भीड़ में मौजूद थे। ऐसे तमाम और भी कई उदाहरण हैं जो देश में बेरोजगारी की तस्वीर खुलेआम बयाँ करते हैं।

सबरीमाला के निहितार्थ

भाजपा को एक तरफ जहाँ मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक मुद्दे में महिला सशक्तिकरण नज़र आ रहा था वहीं अब उसको हिन्दू महिलाओं के मन्दिर में प्रवेश जैसे मुद्दे पर धर्म और परम्पराओं में हस्तक्षेप लगता है। इस पूरे मामले में यह भी पूरी तरह स्पष्ट होता है कि असल में बीजेपी सरकार को न तो स्त्रियों से कुछ लेना देना है न ही महिला सशक्तिकरण से, उनका लक्ष्य केवल और केवल धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करके सत्ता हासिल करना है। बीजेपी-आरएसएस की “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते” संस्कृति पर अगर लिखा जाए तो कई किताबें लिखनी पड़ सकती हैं, आगे हम इसके कुछ उदाहरण भी रखेंगे, फिलहाल हम अपना ध्यान सबरीमाला के मुद्दे पर केन्द्रित करते हैं।

‘मी टू’ मुहिम : एक समालोचना

अपने उत्पीड़न के विरुद्ध किसी व्यक्ति का बोलना तभी एक फलदायी प्रक्रिया बन सकता है जब ऐसी सभी आवाज़ें एक सामूहिकता में संघटित हों और उस सामाजिक व्य़वस्था को निशाने पर लेते हुए सड़कों पर लामबंद होने की दिशा में आगे बढ़ें जो ऐसे तमाम उत्पीड़नों की जन्मदात्री है। ‘मी टू’ के दौरान बेनकाब होने वाले चेहरे, मु‍मकिन है कि, कुछ समय तक सकपका जायें या चुप्पी साध जायें, चन्द लोग फिल्मों आदि के प्रोजेक्ट से (कुछ समय के लिए) निकाले जा सकते हैं, पर आप देख लीजियेगा, ऐसे तमाम लोग कुछ समय बीतते ही अपने सामाजिक रुतबे और बेशर्म हँसी के साथ फिर से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होंगे क्योंकि समाज में वर्चस्वशील पुरुषस्वामित्ववाद उन्हें पूरा सहारा-संरक्षण और प्रोत्साहन देगा। मीडिया, मनोरंजन उद्योग राजनीति और साम‍ाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद यौन-ड्रैक्युला गले में दाँत धँसा देने के लिए स्त्रियों पर फिर भी घात लगाये रहेंगे। बस, अब वे यह काम थोड़ा अधिक चौकन्ना होकर करेंगे।

सीबीआई का घमासान और संघ का लोकसभा चुनाव हेतु ‘राम मन्दिर’ शंखनाद

पाँच राज्य में विधानसभा के नतीजे सामने आ चुके हैं और कांग्रेस ने पाँच राज्य में से तीन पर हाँफते-हाँफते सरकार बना ली है। यह चुनावी नतीजे मोदी की उतरती लहर को पुख्ता करते हैं और जनता के अंदर सरकार के खिलाफ़ गुस्से की ही अभिव्यक्ति है। चुनावी नतीजों के विश्लेषण में जाने पर यह साफ हो जाता है कि शहरी से लेकर ग्रामीण आबादी में भाजपा के वोट प्रतिशत में नुकसान हुआ है। वसुंधरा राजे और ‘मामा’ शिवराज सिंह की निकम्मी सरकारों के खिलाफ जनता में गुस्सा था परंतु ईवीएम के जादू और संघ के भीषण राम मंदिर प्रचार ने भाजपा को इन दोनों राज्य में टक्कर पर पहुंचा दिया। यह चुनाव जिस पृष्ठभूमि पर लड़ा गया और आगामी लोकसभा चुनाव तक संघ जिस ओर कदम बढ़ा रहा है हम यहाँ विस्तार से बात करेंगे।

ब्राजील में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत, विश्व स्तर पर नया फासिस्ट उभार और आने वाले समय की चुनौतियाँ

ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि संकटग्रस्त बुर्जुआ वर्ग ने अपनी रक्षा के लिए कुत्तेु की जंज़ीर को ढीला छोड़ दिया है। दैत्य-दुर्ग के पिछवाड़े सम्‍भावित तूफान से आतंकित अमेरिकी साम्राज्यवाद भी इस फासिस्ट की पीठ पर खड़ा है। एक दिलचस्प जानकारी यह भी है कि जायर बोलसोनारो इतालवी-जर्मन मूल का ब्राजीली नागरिक है। उसका नाना हिटलर की नात्सी सेना में सिपाही था। ब्राजील में बोलसोनारो का सत्तारूढ़ होना अपने-आप में इस सच्चाई को साबित करता है कि तथा‍कथित समाजवाद का जो नया सामाजिक जनवादी मॉडल लातिन अमेरिका के कई देशों में गत क़रीब दो दशकों के दौरान स्थापित हुआ था (जिसके हमारे देश के संसदीय जड़वामन वामपन्थी भी खूब मुरीद हो गये थे), वह सामाजिक जनवादी गुलाबी लहर (‘पिंक टाइड’) भी अब उतार पर है।

हरियाणा में प्रत्यक्ष छात्र संघ चुनाव के लिए छात्रों का आन्दोलन और सरकार की तानाशाही

हरियाणा मे 22 साल बाद छात्र संघ चुनाव हुए। 1996 मे बंसीलाल सरकार ने गुण्डागर्दी का बहाना बनाकर छात्र संघ चुनावों को बन्द कर दिया था। उसके बाद से ही प्रदेश के छात्रों की यह माँग लगातार उठती रही है कि छात्र संघ चुनाव बहाल किये जायें ताकि प्रदेश के छात्र अपने हकों की आवाज़ उचित मंच के माध्यम से उठा सकें। पिछले लम्बे समय से हरियाणा में चाहे किसी भी पार्टी कि सरकार रही हो, छात्रों को उनके इस लोकतान्त्रिक अधिकार से वंचित रख रही है। सरकारी पक्ष का कहना है कि इससे गुण्डागर्दी बढ़ जायेगी। अगर ऐसा है तो फिर एमपी, एमएलए से लेकर सरपंच तक के चुनाव भी बन्द कर दिये जाने चाहिए क्योंकि उन चुनावों मे गुण्डागर्दी, बाहुबल और धनबल के के सिवाय और तो कुछ होने की सम्भावना ही नगण्य है।