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कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन विधेयक : मेहनतकशों का नज़रिया

ग़रीब, निम्‍न मध्‍यम और मध्‍यम किसानों की बहुसंख्‍या की नियति पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में तबाह होने की ही है। छोटे पैमाने के उत्‍पादन और इस समूचे वर्ग को बचाने का कोई भी वायदा या आश्‍वासन इन वर्गों को देना उनके साथ ग़द्दारी और विश्‍वासघात है और उन्‍हें राजनीतिक तौर पर धनी किसानों और कुलकों का पिछलग्‍गू बनाना है। तो फिर इनके बीच में हमें क्‍या करना चाहिए? जैसा कि लेनिन ने कहा था: सच बोलना चाहिए! सच बोलना ही क्रान्तिकारी होता है। हमें पूँजीवादी समाज में उन्‍हें उनकी इस अनिवार्य नियति के बारे में बताना चाहिए, उनकी सबसे अहम माँग यानी रोज़गार के हक़ की माँग के बारे में सचेत बनाना चाहिए और उन्‍हें बताना चाहिए कि उनका भविष्‍य समाजवादी खेती, यानी सहकारी, सामूहिक या राजकीय फार्मों की खेती की व्‍यवस्‍था में ही है। केवल ऐसी व्‍यवस्‍था ही उन्‍हें ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा और अनिश्चितता से स्‍थायी तौर पर मुक्ति दिला सकती है। दूरगामी तौर पर, समाजवादी क्रान्ति ही हमारा लक्ष्‍य है। तात्‍कालिक तौर पर, रोज़गार गारण्‍टी की लड़ाई और खेत मज़दूरों के लिए सभी श्रम क़ानूनों की लड़ाई, और सभी कर्जों से मुक्ति की लड़ाई ही हमारी लड़ाई हो सकती है। केवल ऐसा कार्यक्रम ही गाँवों में वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाएगा और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग को एक स्‍वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करेगा और समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार करेगा।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा?

जैसे-जैसे देश में असन्तोष और ग़ुस्सा बढ़ेगा, लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उनकों बाँटने के लिए हिन्दुत्व के जुमले को और भी ज़्यादा उछाला जायेगा, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में पेश किया जायेगा, ताकि इन भयंकर स्थितियों के लिए जिम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी-शाह सरकार को जनता कठघरे में न खड़े। और यदि कोई इस सच्चाई को समझता है और मोदी सरकार का विरोध करता है, तो उसे ‘हिन्दू राष्ट्र’ का शत्रु करार दिया जायेगा, जेलों में डाला जायेगा, प्रताड़ित किया जायेगा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। क्या देश में ठीक यही नहीं हो रहा है? सोचिए।

एनपीआर के ख़िलाफ़ देशव्यापी जनबहिष्कार है अगला क़दम!

यह समझना बहुत ज़रूरी है कि एक अच्छी-ख़ासी आम हिन्दू आबादी भी संघ परिवार के प्रचार के प्रभाव में है। उसे सीएए-एनआरसी-एनपीआर की सच्चाई नहीं पता है। वह भी बेरोज़गारी, महँगाई और पहुँच से दूर होती शिक्षा, चिकित्सा और आवास से परेशान है, नाराज़ है, असन्तुष्ट है। और यही नाराज़गी उसमें एक ग़ुस्से और प्रतिक्रिया को जन्म दे रही है। सही राजनीतिक शिक्षा और चेतना के साथ यह नाराज़गी सही शत्रु को पहचान सकती है और उसे निशाना बना सकती है, यानी कि मौजूदा फ़ासीवादी सत्ता और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को। लेकिन राजनीतिक चेतना और शिक्षा की कमी के कारण फ़ासीवादी शक्तियाँ उनकी अन्धी प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन, यानी मुसलमान और दलित, देने में कामयाब हो जाती हैं।

राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर एक अहम बहस के चुनिन्दा दस्तावेज़

‘ललकार’ की ओर से राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर और विशेष तौर पर पंजाबी भाषा, पंजाबी राष्ट्रीयता, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कतिपय अंगों के पंजाब का हिस्सा होने, हरियाणवी बोलियों, हिन्दी भाषा के इतिहास और चरित्र पर जो अवस्थितियाँ रखी जाती रही हैं, उन्हें हम भयंकर अस्मितावादी विचलन से ग्रस्त मानते हैं। यह अस्मितावादी विचलन एक अन्य बेहद अहम और आज देश में प्रमुख स्थान रखने वाले मुद्दे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर भी प्रकट हुआ है, जिसमें कि ‘ललकार’ (और उसके सहयोगी अख़बार ‘मुक्तिमार्ग’) ने असम में नागरिकता रजिस्टर को घुमाफिराकर सही ठहराया है, या कम-से-कम असम में एनआरसी की माँग को वहाँ की राष्ट्रीयता के भारतीय राज्य द्वारा राष्ट्रीय दमन के कारण और प्रवासियों के आने के चलते वहाँ के संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ने का नतीजा बताया है। इस रूप में असम में एनआरसी की माँग को राष्ट्रीय भावनाओं और अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, अस्मिता और भाषा की सुरक्षा की भावना की अभिव्यक्ति बताया है। यह पूरी अवस्थिति समूचे राष्ट्रीय प्रश्न पर एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी अवस्थिति से मीलों दूर है और गम्भीर राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी विचलन का शिकार है।

एनआरसी के ड्रैगन को समझिए! नाम में ही सब कुछ रखा है, लेकिन आपका नाम कहाँ है?

एनआरसी प्रक्रिया में हर भारतीय की नागरिकता सन्दिग्ध मान ली जायेगी, आपको लाइन लगाकर यह सिद्ध करना होगा कि आपका जन्म 1972 से पहले भारत में हुआ है और यहीं रहते थे, यदि उसके बाद हुआ है तो आपके माता-पिता/दादा-दादी का जन्म उस अवधि से पूर्व भारत में हुआ था और वह यहाँ रह रहे थे। जिसके लिए आपके पास ऐसा दस्तावेज़ होना चाहिए। जन्म पंजीकरण के क़ानून को लागू हुए अभी जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं लेकिन आपको एनआरसी के लिए दश्को पुराने अपने बुज़ुर्गों का जन्म प्रमाण चाहिए होगा।

कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी

सरकारों की चौकसी और बेहतर सार्वज‍निक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत इस तरह के संक्रमण को महामारी में तब्दील होने से रोका जा सकता था। परन्तु नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में दुनिया के तमाम मुल्क़ों में बेतहाशा निजीकरण के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था लचर हो चुकी है जिसकी वजह से इस बीमारी की रोकथाम उचित ढंग से नहीं हो सकी। तमाम देशों की सरकारों ने भी इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए सही समय पर चौकसी नहीं दिखायी। साम्राज्यवादी लूट की बदौलत विलासिता के शिखर पर बैठे अमेरिका तक में कोरोना वायरस के परीक्षण के लिए किट और N95 फ़ेसमास्क पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो सके जिसकी वजह से वहाँ इस बीमारी को फैलने से नहीं रोका जा सका।

राष्‍ट्रीय दमन क्‍या होता है? भाषा के प्रश्‍न का इससे क्‍या रिश्‍ता है? मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति

यह प्रश्‍न आज कुछ लोगों को बुरी तरह से भ्रमित कर रहा है। कुछ को लगता है कि यदि किसी राज्‍य के बहुसंख्‍यक भाषाई समुदाय की जनता की भाषा का दमन होता है तो वह अपने आप में राष्‍ट्रीय दमन और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन का मसला होता है। उन्‍हें यह भी लगता है कि असम और पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में एन.आर.सी. उचित है क्‍योंकि यह वहां की जनता की राष्‍ट्रीय दमन के विरुद्ध ”राष्‍ट्रीय भावनाओं की अभिव्‍यक्ति” है और इस रूप में सकारात्‍मक है। तमाम क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट साथियों को यह बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है! वाकई वामपंथी दायरे में अस्मितावाद के शिकार कुछ लोग हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं। राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर ऐसे लोग बुरी तरह से दिग्‍भ्रमित हैं। इसलिए इस प्रश्‍न को समझना बेहद ज़रूरी है कि दमित राष्‍ट्रीयता किसे कहते हैं और राष्‍ट्रीय दमन का मतलब क्‍या होता है। इस प्रश्‍न पर लेनिन, स्‍तालिन और तुर्की के महान माओवादी चिन्‍तक इब्राहिम केपकाया ने शानदार काम किया है।

विचारधारा के पीछे अपनी कायरता को मत छिपाओ नवाज़ुद्दीन

बाज़ार के हाथों बिक चुके अभिनेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है और न ही नवाज़ से यह उम्‍मीद रखी जा सकती है। नवाज़ सरीखा बॉलीवुड का कोई भी अभिनेता अपने कैरियर में ऊपर पहुँचने के लिए बहुत समझौते करता है। इसके लिए वह उन सभी सिद्धान्‍तों को बलि चढ़ाने से हिचकता नहीं है। किसी फासीवादी प्रयोजनमूलक फिल्म में काम करने को ”कला के लिए काम करना’ बताना लोगों की आँख में धूल झोंकना है।

कैथी कॉलवित्ज़ –एक उत्कृष्ट सर्वहारा कलाकार

कॉलवित्ज़, जो एक महान जर्मनप्रिंटमेकर व मूर्तिकार थीं, अपने समय के कलाकारों से अलग एक स्वतन्त्र और रैडिकल कलाकार के रूप में उभर कर आती है। उन्होंने शुरू से ही कलाकार होने के नाते समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझा और अपनी पक्षधरता तय की। उनके चित्रों में हम शुरुआत से ही गरीब व शोषित लोगों को पाते हैं, एक ऐसे समाज का चेहरा देखते हैं जहाँ भूख है, गरीबी है, बदहाली है और संघर्ष है! उनकी कला ने जनता के अनन्त दुखों को आवाज़ देने का काम किया है। उनकी कलाकृतियों में ज़्यादातर मज़दूर तबके से आने वाले लोगों का चित्रण मिलता है। वह “सौंदर्यपसंद” कलाकारों से बिलकुल भिन्न थीं। प्रचलित सौंदर्यशास्त्र से अलग उनके लिए ख़ूबसूरती का अलग ही पैमाना था, उनमें बुर्जुआ या मध्य वर्ग के तौर-तरीकों व ज़िन्दगी के प्रति कोई आकर्षण नहींं महसूस होता।