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यूएपीए : जनप्रतिरोध को कुचलने का औज़ार

एनसीआरबी के रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ पिछले 5 सालों में 7840 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिसमें मात्र 155 लोगों पर ही आरोप साबित किया जा सका। अपवादों को छोड़कर, न्यायपालिका सीधे-सीधे सरकार के इशारों पर काम कर रही है और एनआईए, सीबीआई, आईबी, ईडी आदि एजेंसियों की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता की बात करना तो एक मज़ाक से अधिक कुछ भी नहीं है!

फ़िलिस्तीन की जनता के बहादुराना संघर्ष ने एक बार फिर ज़ायनवादियों को धूल चटाई और पीछे हटने को मजबूर किया!

आज यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इंसाफ़ और आज़ादी के लिए फ़िलिस्तीन का संघर्ष अकेले उनका संघर्ष नहीं है। यह पूरी दुनिया में नस्लवाद और साम्राज्यवादी दबंगई के विरुद्ध शानदार लड़ाई का एक प्रतीक है। पूरी दुनिया का इंसाफ़पसन्द अवाम उनके पक्ष में बार-बार लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरता रहा है। साम्राज्यवादी ताकतों के अलावा भारत के संघी फ़ासिस्टों का झूठा और जहरीला प्रचार फ़िलिस्तीन के संघर्ष की बहुत ही उल्टी तस्वीर पेश करता है। जनता के इस ऐतिहासिक संघर्ष को आतंकवाद का रूप दे देता है। एक बड़ी आबादी फ़िलिस्तीन के संघर्ष को या तो जानती नहीं या फिर साम्राज्यवादी और संघियों के जहरीले प्रचार को जानती है। इसलिए फ़िलिस्तीन के संघर्ष की सच्चाई को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है।

कोरोना महामारी और ध्वस्त चिकित्सा व्यवस्था के बीच जलती और दफ़्न होती इंसानी लाशें

वायरल संक्रमण प्रकृति और मनुष्य की अन्तर्क्रिया के दौरान अनिवार्य रूप से पैदा होते ही हैं। वे मनुष्यों के बीच बीमारी के रूप में भी फैलते हैं। लेकिन वे महामारियों का रूप अक्ससर पूँजीवादी मुनाफ़ाखोर व्यवस्थाा के कारण लेते हैं। निश्चित तौर पर, यदि देश में एक सुचारू स्वास्थ्य व्यवस्था होती तो मौतों की संख्या को घटाया जा सकता था। लेकिन हमारे देश में स्वास्थ्य व्यवस्था को मुनाफ़ाखोरी की भेट चढ़ा दिया गया है। इसका नतीजा देश की जनता को कोरोना महामारी के दौरान भुगतना पड़ा।

‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका के सम्पादक द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त और सोवियत इतिहास का संघवादी-संशोधनवादी विकृतिकरण

जब कोई व्यक्ति या समूह अपनी विजातीय कार्यदिशा को सही साबित करने के लिए इरादतन झूठ बोले, इतिहास के दस्तावेज़ों को ग़लत और मनमाने तरीक़े से उद्धृत करे, सिद्धान्तगत प्रश्नों और ऐतिहासिक तथ्यों को मिस्कोट और मिसरिप्रेज़ेन्ट करे तो निश्चित ही विचारधारात्मक-राजनीतिक पतन की फिसलन भरी डगर पर ऐसा व्यक्ति या समूह द्रुत गति से राजनीतिक निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा होता है। यही हालत ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर और ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की हो गयी है। क़ौमी और भाषाई सवाल पर बहस में पिट जाने पर (जिस बहस के अस्तित्व को यह महोदय शुरू से ही नकारते रहे हैं, लेकिन इस पर बाद में आयेंगे) सम्पादक महोदय घटिया क़िस्म के कपट और बेईमानी पर उतर आये हैं।

हमारा आख़िरी जवाब – कुतर्कों, कठदलीली, कूढ़मग़ज़ी और कुलकपरस्ती की पवनचक्की के पंखों में गोल-गोल घिसट रहे दोन किहोते दि ला पटना और “यथार्थवादी” बौड़म मण्डली

जैसे ही हम किसी भी प्रश्न पर उनकी मूर्खतापूर्ण अवस्थिति को इंगित कर आलोचना का प्रकाश उस पर डालते हैं वह मेंढक की तरह कुद्दियाँ मारकर अपनी अवस्थिति बदल लेते हैं! सबएटॉमिक कण का व्यवहार प्रेक्षण में ऐसा ही होता है। अगर उसका संवेग (momentum) पता चलता है तो अवस्थिति (position) नहीं पता चलती और अगर अवस्थिति पता चल जाती है तो संवेग पता नहीं चलता है। माटसाब की नज़र में अक्तूबर क्रान्ति में धनी किसान-कुलक वर्ग सहयोगी हैं भी और नहीं भी, ‘किसान बुर्जुआज़ी’ पूंजीपति वर्ग है भी और नहीं भी, समाजवादी समाज में श्रमशक्ति माल है भी और नहीं भी! उनकी अवस्थिति श्रोडिंगर की बिल्ली की तरह मृत भी है और जीवित भी है!

भूख और बीमारी से मरते लोगों के बीच राम मन्दिर के भूमि पूजन का प्रहसन

अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के इतिहास को पीछे जाकर देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने क़िस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनायेंगे? इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पीछे ले जाने वाला और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताक़तें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उनकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में है, जिसके बारे में दावे से कहा भी नहीं जा सकता है कि वह हुआ था भी या नहीं। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद ऐसी ही एक ताक़त है जो आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फ़ायदा उठाते हुए उसे धर्म के आधार पर बाँट देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा साबित होती है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक बड़े हिस्से को एक ऐसे सवाल पर आपस में बाँट देता है जो वास्तव में उसके लिए कोई सवाल है ही नहीं।

षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क्या है

षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं। मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है। और ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।

फ़ासिस्टों ने किस तरह आपदा को अवसर में बदला!

भारत में फ़ासीवादी सरकार ने इस संकट को भी अपने फ़ासीवादी प्रयोग का हिस्सा बना लिया और थाली-ताली बजवाकर, मोमबत्ती जलवाकर जनता का एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर यह पता लगाने में एक हद तक सफल भी हो गयी कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा और किस हद तक तर्क और विज्ञान को ताक पर रखकर आरएसएस के फ़ासीवादी प्रचार के दायरे में आ चुका है। दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये फ़ासीवादी अनुष्ठान तब आयोजित किये जा रहे थे जब सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे विभाजनकारी और आरएसएस के फ़ासीवादी मंसूबे को अमली जामा पहनाने वाले काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशभर में सैकड़ों जगहों पर शाहीनबाग़ की तर्ज़ पर महिलाओं ने मोर्चा सँभाल रखा था। इन बहादुर महिलाओं के क़दम से क़दम मिलते हुए पुरुष, छात्र, कर्मचारी, मज़दूर यानि देश का हर तबक़ा बड़ी तादाद में सड़कों पर था। सत्ता की शह पर फ़ासिस्ट गुण्डों द्वारा प्रदर्शन पर गोली चलवाने, अफ़वाह फैलाकर आन्दोलन को बदनाम करने, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अर्णब गोस्वामी जैसे पट्टलचाट सत्ता के दलाल पत्रकारों द्वारा फैलाये जा रहे झूठ, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर आन्दोलन को कमज़ोर करने की लाख कोशिशों के बावजूद जब आन्दोलनकारी महिलाएँ बहादुरी से इसका सामना करते हुए मैदान से पीछे नहीं हटी तब इन दरिन्दों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगो का ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया जिसमें दिल्ली पुलिस भी इन दंगाइयों के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगजनी और तोड़फोड़ में शामिल रही।

धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)

यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’: लफ़्फ़ाज़ि‍यों की आड़ में शिक्षा को आमजन से दूर करने की परियोजना

नयी शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद उच्च शिक्षा के हालात तो और भी बुरे होने वाले हैं। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफ़वाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई इत्यादि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी पद्धति के अनुसार ढालने के प्रयास थे। अब विदेशी शिक्षा माफ़ि‍या देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे। शिक्षा के मूलभूत ढाँचे की तो बात ही क्या करें यहाँ तो शिक्षकों का ही टोटा है। केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में क़रीब 70 हजार प्रोफ़ेसरों के पद ख़ाली हैं।