Category Archives: विज्ञान

विज्ञान के इतिहास का विज्ञान (पहली किस्त)

E=mc2 का फ़ार्मूला आइन्स्टीन और उनके विज्ञान के प्रति समर्पित जीवन के बारे में कुछ नहीं बोलता। न ही यह फार्मूला इस सिद्धान्त को विकसित करने में लगे परिश्रम व इसके उद्भव से जुड़ी बहसों को दिखाता है। हम अकादमिक किताबों में गैलीलियो के सापेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद सीधे आइन्स्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धान्त को पढ़ते हैं! समय का प्रभाव यानी ऐतिहासिकता अकादमिक विमर्शों में गायब होती है। विज्ञान का कोई भी अध्ययन या आकलन, जो कि ऐतिहासिकता से रिक्त हो, सतही होगा क्योंकि इन खोजों के नीचे उन लोगों की ज़िन्दगियाँ और उनकी बहसें दबी हुई हैं जिन्होंने इसे विकसित किया। यह विकास बेहद जटिल गति लिए हुए है। इस जटिल गति की छानबीन करना उन लोगों की ज़िन्दगियों में भी झाँकने को मजबूरकरता है जिन्होंने प्राकृतिक विज्ञान को उसका यह स्वरूप दिया, या कहें कि प्राकृतिक विज्ञान के मील के पत्थर इन व्यक्तियों के जीवन को भी कहा जा सकता है, जिन्होंने विज्ञान के सिद्धान्तों या खोजों में अपना जीवन लगा दिया।

आधुनिक भौतिकी तथा भौतिकवाद का विकास

हिग्स बुसॉन न मिलने की शर्त स्टीफेन हॅाकिंग हार गए हैं, परन्तु उनकी इस हार के बावजूद विज्ञान ने तरक्की की है। पीटर हिग्स के अनुसार पदार्थ में द्रव्यमान का गुण हिग्स बुसोन के कारण आता है। सर्न प्रयोगशाला के महाप्रयोग से मिले आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि हिग्स बुसोन ही वह बुनियादी कण है जो पदार्थ को द्रव्यमान देता है तथा ‘बिग बैंग’ या महाविस्फोट के कुछ पल बाद हिग्स फ़ील्ड व निर्वात मिलकर तमाम बुनियादी कणों को भार देते हैं। आज हम ब्रह्माण्ड को भी परखनली में परखे जाने वाले रसायन की तरह प्रयोगों से परख रहे हैं। हमारी प्रयोगशालाओं में ब्रह्माण्ड के रूप और उसके ‘उद्भव’ या ‘विकास’ को जाँचा जा रहा है। कोपरनिकस और ब्रूनो की कुर्बानी ज़ाया नहीं गयी। विज्ञान ने चर्च की धारणाओं के परखच्चे उड़ा दिये और सारे मिथकों के साथ धर्मशास्त्रों को विज्ञान ने गिलोटिन दे दिया। ख़ैर, हिग्स बुसोन मिलने से स्टैण्डर्ड मॉडल थ्योरी सत्यापित हो गयी है। तो क्या हमारा विज्ञान पूरा हो गया है? नहीं क़त्तई नहीं। यह सवाल ही ग़लत है। विज्ञान कभी भी सब कुछ जानने का दावा नहीं करता है और अगर कुछ वैज्ञानिक, अपने निश्चित दार्शनिक ‘बेंट ऑफ माइंड’ से जब इस अवधारणा को मानते हैं तब वे संकट के ‘ब्लैक होल’ में फँस जाते हैं। हमारा विज्ञान विकासशील है, ज्ञात और अज्ञात (ग़ौर करें, ‘अज्ञेय’ नहीं!) के द्वन्द्व में हम नए आयामों को जानते हैं और इससे नए अज्ञात की चुनौती पाते हैं। ज्ञात और अज्ञात के द्वन्द्व को न समझना ही संकट का आवाहन करता है, धर्मशास्त्रों की प्रेतात्मा फिर से विज्ञान में जीवित होने लगती है।

उत्तराखण्ड त्रासदीः यह पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति है!

पिछले कुछ वर्षों से आश्‍चर्यजनक रूप से नियमित अन्तराल पर दुनिया के किसी न किसी कोने में ऐसी विभीषिकाएँ घटित हो रही हैं जो इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व न सिर्फ मानवता के लिए घातक है बल्कि यह पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहें कि उसके समूचे पारिस्थितिक तन्त्र के लिए विनाश का सबब है। गत जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तराखण्ड में बादल फटने, भूस्खलन, हिमस्खलन और बाढ़ से आयी तबाही का जो ख़ौफ़नाक मंज़र देखने में आया वह ऐसी ही विनाशकारी घटनाओं का एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। इस त्रासदी से निपटने में पूरी तरह विफल साबित होने के बाद अपनी छीछालेदर से बचने के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने अभी भी इस त्रासदी में मारे गये लोगों की ठीक-ठीक संख्या नहीं बतायी है, परन्तु विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं और स्वतन्त्र एजेंसियों का दावा है कि यह संख्या 10 से 15 हज़ार हो सकती है। यही नहीं उत्तराखण्ड के सैकड़ों गाँव तबाह हो गये हैं और लाखों लोगों के लिए जीविका का संकट उत्पन्न हो गया है।

आर्कटिक पर कब्जे की जंग

इस तरह से यह साफ है कि ये सभी साम्राज्यवादी देश अपने साम्राज्यवादी हितों को लेकर बदहवास हो रहे हैं और कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे तो अमेरिका पर्यावरण को बचाने को लेकर और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को लेकर हमेशा ही नौटंकी करना रहता है लेकिन अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए सबसे पहले पर्यावरण का शत्रु बन जाता है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधनों के बँटवारे को लेकर हमेशा से ही साम्राज्यवादी देशों के बीच कुत्ता-घसीटी रही है। यही साम्राज्यवाद का चरित्र है। साम्राज्यवाद जो पूँजीवाद की चरम अवस्था है वह हमें बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं दे सकता। जब इसे मानवता की ही कोई चिन्ता नहीं है तो फिर पर्यावरण की चिन्ता का ही क्या मतलब रह जाता है। इस व्यवस्था का एक-एक दिन हमारे ऊपर भयंकर श्राप की तरह है। पर्यावरण की चिन्ता भी वही व्यवस्था कर सकती है जिसके केन्द्र में मानव हो न कि मुनाफा।

“विकास” की बेलगाम ऊर्जा

प्रश्न नाभिकीय उर्जा के निरपेक्ष विरोध का नहीं है, ऊर्जा के विभिन्न रूपों का उपयोग उपलब्ध तकनीक, समय एवं विज्ञान के विकास के सापेक्ष ही हो सकता है। मौजूदा तकनीक एवं व्यवस्था में नाभिकीय उर्जा के सुरक्षित प्रयोग की सम्भावना नहीं है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कभी ऐसी तकनीक ईजाद नहीं होगी। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के तहत इसकी उम्मीद कम ही है, क्योंकि ऐसे उपक्रम में निवेश करने की बजाय कोई भी पूँजीपति मरघट पर लकड़ी बेचने का व्यवसाय करना पसन्द करेगा। जनता की सुरक्षा और बेहतर जिन्दगी के लिए उपयोगी तकनोलॉजी के शोध और विकास में कोई निवेश नहीं करने वाला है। नतीजतन, परमाणु ऊर्जा का सुरक्षित और बेहतर इस्तेमाल आज मुश्किल है। लेकिन एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था और समाज में यह सम्भव हो सकता है।

कृत्रिम चेतना: एक कृत्रिम और मानवद्रोही परिकल्पना

कृत्रिम चेतना वास्तव में कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की चेतना का ही विस्तार है। यह स्वचालन की ही एक नयी मंजिल है। कुछ मानवीय कार्यों को, जो कि पूर्वाकलित किये जा सकते हैं, अंजाम देने के लिए कुछ ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकता है और किया जा रहा है जो स्वयं एक हद तक पहले से दर्ज और आकलित निर्णय ले सकते हैं। लेकिन यह कहना कि कृत्रिम चेतना से लैस रोबोट किसी दिन मनुष्य का स्थान ले लेंगे, एक निहायत मूर्खतापूर्ण सपना है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। जो मानव चेतना की प्रकृति और चरित्र को नहीं समझते हैं, वही इस खोखले सपने के नशे में डूब सकते हैं।

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल और भौतिकी का “संकट”

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल बुज़ुर्आ समाज और उसकी पतनोन्मुख संस्कृति के कटु आलोचक थे। यही पतन उन्होंने विज्ञान में भी देखा। बुज़ुर्आ समाज में पैदा हुआ श्रम का बँटवारा, मानसिक और शारीरिक श्रम के बँटवारा, ऐसे व्यक्तित्व और जीवन दर्शन का निर्माण करता है जो विखण्डित व भोंड़ा होता है। एक वैज्ञानिक भी समाज के इन्हीं लोगों में से आता है। वह भी इसी संस्कृति की फसल होती है। यही कारण है कि विज्ञान जिस द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी आधार पर खड़ा है, बुज़ुर्आ व्यक्तिव उसे महज़ भौड़े भौतिकवादी और आदर्शवादी दृष्टिकोण से समझने में नाकाम होता है। शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम में बँटे समाज में वस्तुगत व आत्मगत के बीच का सम्बन्ध कट जाता है और जब वस्तुगत से आत्मगत कट जाता है तब अवैज्ञानिक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक दर्शन-प्रत्ययवाद (आत्मगतता का छोर) और भोंड़ा भौतिकवाद (वस्तुगतता का छोर) तथा प्रत्यक्षवाद (दोनों के सम्बन्ध को हटा देना) व इनके अन्य तरह की शाखाएँ-उपशाखाएँ निकलती हैं।

आधुनिक भौतिकी और भौतिकवाद के लिए संकट

अगर हिग्स बुसॉन मिलता भी है, जिसकी सम्भावना स्वयं सर्न प्रयोग के वैज्ञानिकों के अनुसार नगण्य है, तो भी यह भौतिकवाद के लिए कोई ख़तरा नहीं होगा। यह पदार्थ जगत और पदार्थ के नये गुणों की खोज होगा और पदार्थ के इतिहास की खोज होगा। इससे भौतिकवाद के इस मूल तर्क पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि चेतना पदार्थ के पहले नहीं बाद में आती है और चेतना पदार्थ से स्वतन्त्र अस्तित्व में नहीं रह सकती बल्कि वह पदार्थ के ही एक विशिष्ट रूप के उन्नततम किस्म का गुण है। यानी, चेतना जैविक पदार्थ के उन्नततम रूप, मनुष्य का गुण है। अगर हिग्स बुसॉन मिलता है तो भी यह सत्य अपनी जगह कायम रहेगा। कोई फील्ड को ईश्वर का नाम दे देता है तो यह उस नाम देने वाले और एक हद तक फील्ड की बदनसीबी होगी, भौतिकवाद की नहीं! भौतिकवाद ने अपने एजेण्डे पर कभी यह सवाल रखा ही नहीं कि पदार्थ पैदा हुआ था या नहीं। यह भौतिकवाद की विषयवस्तु नहीं है। यह प्राकृतिक विज्ञान की विषय वस्तु है।

मानव ज्ञान का चरित्र और विकास

ज्ञान मूल रूप से व्यवहार पर टिका होता है। व्यवहार के दौरान ही इंसान ख़ुद के संवेदनाबोध को परखता है तथा संवेदनाबोध द्वारा पैदा हुई धारणाओं का भी व्यवहार में ही निर्माण करता है। व्यवहार का तात्पर्य सामाजिक व्यवहार है। ज्ञान सिर्फ सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होता है। सामाजिक सम्बन्धों में रहते हुए सामाजिक इंसान का व्यवहार। अगर कोई इंसान किसी वस्तु को जानना चाहता हो तो उसको वस्तु के वातावरण में आना ही होगा। कोई भी विद्वान किसी वस्तु या प्रक्रिया का ज्ञान घर बैठे नहीं प्राप्त कर सकता है। हालाँकि आज के वैज्ञानिक तथा इण्टरनेट के युग में यह बात चरितार्थ लगती है कि विद्वान सचमुच ही घर बैठे-बैठे कम्प्यूटर पर क्लिक करके ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु सच्चा व्यक्तिगत ज्ञान उन्हीं लोगो को प्राप्त होता है जो व्यवहार में लगे होते हैं। यह ज्ञान विद्वानों तक (लेखन तथा तकनीक द्वाराद्ध तभी पहुँचता है जब व्यवहार में लगे लोग वह ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए मानव ज्ञान के दो भाग होते हैं – प्रत्यक्ष ज्ञान व अप्रत्यक्ष ज्ञान। अप्रत्यक्ष ज्ञान दूसरों के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस तरह सम्पूर्ण ज्ञान भी सामाजिक होता है। यह मुख्यतः इंसान की उत्पादक कार्यवाही पर निर्भर करता है।

नाभिकीय ऊर्जा की शरण: देशहित में या पूँजी के हित में?

सवाल यह है ही नहीं कि नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं। किसी भी ऊर्जा स्रोत का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते कि उस पूरे उपक्रम के केन्द्र में मुनाफा नहीं बल्कि मनुष्य हो। नाभिकीय ऊर्जा के जिन स्वरूपों के सुरक्षित उपयोग की तकनोलॉजी आज मौजूद है, उनकी भी उपेक्षा की जाती है और उचित रूप से उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात, नाभिकीय रियेक्टर बनाने का काम किसी भी रूप में निजी हाथों में नहीं होना चाहिए क्योंकि इन कम्पनियों का सरोकार सुरक्षा नहीं बल्कि कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा होगा। तीसरी बात, नाभिकीय ऊर्जा के जिन रूपों का उपयोग सुरक्षित नहीं है, उन पर कारगर शोध और उसके बाद उसे व्यवहार में उतारने के कार्य किसी ऐसी व्यवस्था के तहत ही हो सकता है, जिसके लिए निवेश कोई समस्या न हो। यानी, कोई ऐसी व्यवस्था जिसके केन्द्र में पूँजी न होकर, मानव हित हों।