Category Archives: जन विद्रोह

षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क्या है

षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं। मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है। और ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

ओअक्साका शिक्षकों का संघर्ष: जुझारूपन और जन एकजुटता की मिसाल

नागरिक और शिक्षकों की मजबूत एकता का लम्बा इतिहास सत्ता के लिये बिना शक  चुनौती है। निजीकरण, नवउदारवाद और खुले बाज़ार की नीतियों को धड़ल्ले  से लागू करने के लिये इस एकता को समाप्त करना सत्ता की  प्राथमिक आवश्यकता थी क्योंेकि यह एकजुटता सत्ता  के शोषण और दमन के विरुद्ध मजबूत दीवार की तरह आज तक खड़ी रही है। सत्ता द्वारा नियोजित चौकसी की ठण्डी हिंसा राज्यों द्वारा प्रायोजित उग्र हिंसा के काल में बर्बरता को बहुत हद तक मान्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेकिन शिक्षकों और नागरिकों के बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद; मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया पर बदनाम करने के धुआँधार अभियान के बावजूद; पूँजीवादी सत्ता द्वारा लोहे के हाथों से लागू नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियाँ  शोषित जनता को साथ ले आती है।

कश्मीर: यह किसका लहू है कौन मरा!

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा सारी कश्मीर की अवाम को आतंकी के रूप में दिखाने की कोशिश कश्मीरी जनता के संघर्ष को बदनाम करने और कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के हर जुल्म को जायज ठहराने की घृणित चाल है। पिछले लगभग छ: दशकों से भी अधिक समय के दौरान भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी से उसकी आज़ादी की आकांक्षाएँ और प्रबल हुई हैं और साथ ही भारतीय राज्यसत्ता से उसका अलगाव भी बढ़ता रहा है। बहरहाल सैन्य दमन के बावजूद कश्मीरी जनता की स्वायत्तता और आत्मनिर्णय की माँग कभी भी दबायी नहीं जा सकती। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद के भीतर इस माँग के पूरा होने की सम्भावना नगण्य है। भारतीय शासक वर्ग अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार को बनाये रखेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक वर्ग अपने हितों को साधने के नज़रिये से कश्मीर को राष्ट्रीय शान का प्रश्न बनाए रखेंगे।

ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं।

विकल्प की राह खोजते लोग और नये विकल्प की समस्याएँ

दुनिया को स्पष्ट शब्दों में स्पष्ट विकल्प की ज़रूरत है, जो कि दिया जा सकता है और सम्भव है, बशर्ते कि दुनिया भर में क्रान्तिकारी शक्तियाँ अन्दर और बाहर, दोनों ओर से सामने आ रही चुनौतियों का सही तरीके से मुकाबला करें। आज पूरी दुनिया में जो पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन चल रहे हैं, वे अराजकतावाद, स्वतःस्फूर्ततावाद और तरह-तरह की विजातीय प्रवृत्तियों का शिकार हैं। इन आन्दोलनों में जनता स्वतःस्फूर्त तरीके से पूँजीवाद-विरोधी घृणा और नफ़रत से उतरी है। लेकिन पूँजीवाद के खि़लाफ़ यह घृणा रखना काफ़ी नहीं है; स्वतःस्फूर्तता काफ़ी नहीं है; एक पंक्ति में कहें तो महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। इन आन्दोलनों में अराजकतावाद और चॉम्स्कीपंथ का जो पुनरुत्थान होता दिख रहा है, वह लघुजीवी सिद्ध होगा; बल्कि कहना चाहिए कि इन स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों में बिखराव के साथ यह लघुजीवी सिद्ध होने भी लगा है। अराजकतावाद कोई विकल्प पेश नहीं कर सकता। हमें एक सुस्पष्ट, सुसंगत क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। और उसके लिए दुनिया भर के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को अपने भीतर मौजूद कमज़ोरियों, कठमुल्लावाद, धुरी-विहीन चिन्तन और आत्मसमर्पणवाद को त्यागना होगा और मार्क्‍सवाद के उसूलों पर खड़े होकर, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विज्ञान पर खड़े होकर इन चुनौतियों का सामना करना होगा। बिना क्रान्तिकारी विचारधारा, क्रान्तिकारी पार्टी और क्रान्तिकारी आन्दोलन के बिना कोई क्रान्ति नहीं हो सकती। आज अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों और कार्यक्रम-सम्बन्धी कठमुल्लावादी समझदारी से निजात पाकर विश्व भर में सर्वहारा क्रान्तिकारियों को एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा करने की तैयारी करनी होगी। आन्दोलन की संकट को दूर करने का यही रास्ता है।

मिस्र में जनता सैन्य तानाशाही के खि़लाफ़ सड़कों पर

सैन्य शासकों को यह लग रहा है कि किसी भी किस्म के सांगठनिक प्रतिरोध की कमी के कारण वह स्वतःस्फूर्त प्रदर्शनों को कुचल सकते हैं। एक हद तक यह प्रक्रिया कुछ समय के लिए वाकई चल सकती है। लेकिन मिस्र के क्रान्तिकारी भी इस बीच एकजुट होने का प्रयास कर रहे हैं और आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लेने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन फिलहाल राजनीतिक और विचारधारात्मक कमज़ोरियों के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। इस ख़ाली जगह को फिलहाल धार्मिक कट्टरपंथी और उदार पूँजीवाद के पक्षधर भर रहे हैं।

वर्तमान संकट और जनता के आन्दोलनः क्या पूँजीवाद- विरोध पर्याप्त है?

ये सभी आन्दोलन पूँजीवाद की अजरता-अमरता के विक्षिप्त दावों को तो वस्तुगत तौर पर रद्द करते हैं, लेकिन ये पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं पेश करते। ये पूँजीवाद के लक्षणों के स्वतःस्फूर्त विरोध पर जाकर ख़त्म हो जाते हैं, जो निश्चित तौर पर आज बहुत बड़ा रूप अख्तियार कर चुका है। लेकिन यह पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं हैं। बिना किसी सुपरिभाषित और सुविचारित लक्ष्य या उद्देश्य के; बिना किसी संगठन के; बिना किसी स्पष्ट विचारधारा के; बिना किसी अनुभवी नेतृत्व के, मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन असली प्रश्न तक पहुँच ही नहीं सकते। कि पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है, यह पहले भी साबित हो चुका था। अब इसे फिर से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आज ज़रूरत है कि हम विकल्प का एक कारगर मॉडल पेश करें और उसे लागू करने की कूव्वत रखने वाला एक नेतृत्व और संगठन खड़ा करें।

गद्दाफ़ी की मौत के बाद अरब जनउभार: किस ओर?

पूरा अरब जनउभार वास्तव में उस घड़ी से आगे जा चुका है जिसे क्रान्तिकारी घड़ी कहा जा सकता था। मिस्र ही इस बार भी अग्रिम कतार में था और वहाँ कोई भी जनक्रान्ति पूरे अरब विश्व में एक ‘चेन रिएक्शन’ शुरू कर सकती थी। लेकिन किसी विकल्प, विचारधारा, संगठन और क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में यह घड़ी बीत गयी है। यह आने वाले समय के सभी जनान्दोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण सबक दे गया है। स्वतःस्फूर्त जनान्दोलन और पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। विकल्प का स्पष्ट ढाँचा और उसे लागू कर सकने के लिए सही विचारधारात्मक समझ वाला नेतृत्व और संगठन अपरिहार्य है, यदि वास्तव में हम एक बेहतर समय में प्रवेश करना चाहते हैं।

नौजवान जब भी जागा, इतिहास ने करवट बदली है!

मिस्र के बहादुर नौजवानों ने सारी दुनिया के नौजवानों के सामने एक नज़ीर पेश की है। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान मिस्र के युवाओं से प्रेरणा लेकर अपने देश में जारी इस लूटतन्त्र के ख़िलाफ आगे बढ़ेंगे? क्या वे अपने देश में भयानक शोषण के शिकार करोड़ों मज़दूरों और भारी ग़रीब आबादी के साथ खड़े होंगे?