Category Archives: संशोधनवाद

चीन के सामाजिक फासीवादी शासकों का चरित्र एक बार फिर बेनकाब

1976 में माओ की मृत्यु के बाद से चीन ने समाजवाद के मार्ग से विपथगमन किया और देघपन्थी ‘‘बाज़ार समाजवाद’‘ का चोला अपना लिया। इसके बाद से मेहनतकश आबादी की जीवन स्थितियाँ लगातार रसातल में जा रही हैं। हर साल कोयला खदानों में ही हज़ारों मज़दूर अपनी जान गवाँ देते हैं तो दूसरी तरफ समाजवादी व्यवस्था की ताकत की नींव पर खड़े होकर संशोधनवादी शासक आज साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभर रहे हैं। यही कारण है कि चीन में अरबपतियों और करोड़पति पूँजीपतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। 2006 की ‘फॉर्चून’ पत्रिका के अनुसार दुनिया के अरबपतियों की सूची में सात चीनी उद्योगपति थे। ये तस्वीरें चीन में अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई को दिखाती हैं।

स्त्री मुक्ति का रास्ता पूँजीवादी संसद में आरक्षण से नहीं समूचे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के आमूल परिवर्तन से होकर जाता है!

संसद में महिलाओं को आरक्षण? एक ऐसे निकाय में आरक्षण को लेकर बहस और झगड़े का क्या अर्थ है जो किसी भी रूप में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करता; जो जनता को गुमराह करने के लिए की जाने वाली बहसबाज़ी का अड्डा हो; जो पूँजीपतियों के मामलों का प्रबन्धन करने वाला एक निकाय हो। जो संसद वास्तव में देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती ही नहीं है, उसमें स्त्रियों को आरक्षण दे दिया जाय या न दिया जाय, इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? संसद में महिला आरक्षण को लेकर आम जनता की ताक़तों का बँट जाना नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के मुद्दे पर बँट जाने से भी अधिक विडम्बनापूर्ण है।

टाटा की काली करतूतें और उसकी नैनो

क्या टाटा को या नैनो के स्पेयर पार्ट्स बनाने वाली सहयोगी कम्पनियों को, मैन्युफ़ैक्चरिंग के लिये कच्चा माल उनके द्वारा बनायी जा रही अन्य गाड़ियों की अपेक्षा सस्ता मिला होगा? नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता क्योंकि कच्चे माल के उत्पादन पर टाटा जैसे लोगों का ही कब्जा है और वे अपने मुनाफ़े में कमी करने से रहे। क्या टाटा ने नैनो परियोजना में लगे प्रबन्धन अधिकारियों और इन्जीनियरों को कम वेतन दिया होगा? ऐसा तो कदापि हो ही नहीं सकता। उनको तो और अधिक ही दिया गया होगा। तो फ़िर टाटा गाड़ी की लागत कहाँ से पूरा करेगा? यह एक अहम सवाल है। और इसका जवाब एकदम साफ़ है। वह लागत पूरी करेगा और मुनाफ़ा भी कमायेगा; मज़दूरों, मेहनतकशों के खून को निचोड़कर। उसके लिये कम से कम कीमत पर खेती की जमीन खरीदेगा और किसानों पर विरोध करने पर गोलियाँ बरसायेगा। निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों से कम से कम कीमत पर ज्यादा से ज्यादा घण्टे काम करवायेगा तब कहीं जाकर उसकी गाड़ी तैयार होगी। टाटा ये सब करेगा तभी जाकर इतनी कम कीमत पर वह गाड़ी बना पायेगा, वरना इसके अलावा कोई रास्ता नहीं।

संसदीय वामपंथियों का अमेरिका-प्रेम!

जब इन संसदीय वामपंथी बातबहादुरों से पूछा गया कि ‘महोदय, आपकी कथनी और करनी में यह मायावी विरोधभास कैसे? इसे कैसे समझा जाय?’ तो इनका कहना था कि आपकी पार्टी विचारधारा और व्यक्तिगत जीवन में फ़र्क करती है! बाप रे बाप! हम तो चक्कर ही खा गये! कैसी विचित्र दैवीय अलौकिक तर्कपद्धति है! हमने तो मार्क्सवाद के बारे में जितना पढ़ा तो उससे हमें लगा था कि राजनीतिक व्यक्तिगत होता है और व्यक्तिगत राजनीतिक। इनमें कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। और यह भी कहीं पढ़ा था शायद कि जैसा जीवन होता है उसका प्रभाव विचारधारा और राजनीति पर दिखने लगता है! कोई हमसे यह भी कह रहा था कि अमेरिका के प्रति आपका यह प्रेम दरअसल इसी बात को दिखलाता है कि व्यक्तिगत जीवन में आप जैसे जीते हैं उसी की छाया आपकी राजनीति और विचारधारा पर भी नज़र आती है।

संसदीय बातबहादुरों के कारनामे

जब भूमण्डलीकरण की रफ़्तार तेज़ थी तो लगने लगा था कि ऐसे नकली मार्क्सवादियों की ज़रूरत बुर्जुआ राजनीति में समाप्त हो जाएगी। लेकिन विश्व पूँजीवाद के थिंक टैंक्स को यह बात जल्दी ही समझ में आ गई कि एन.जी.ओ. और नकली वामपंथ जैसे कुछ सेफ्टी वाल्वों की ज़रूरत अभी लम्बे समय तक बनी रहेगी। नतीजतन, यूरोप, एशिया और अफ्रीका में नकली वामपंथ के नए-नए रूप पैदा हो रहे हैं। नकली वामपंथ पूँजीवादी व्यवस्था की एक सुरक्षा पंक्ति का काम कर रहा है। यह उदारीकरण की बेलगाम होती प्रक्रिया में स्पीड ब्रेकर का काम इस व्यवस्था के दूरगामी हित में कर रहा है। यह लाल मिर्च खाकर ‘‘विरोध-विरोध’’ की रट लगाने वाले तोते हैं। ये तब तक शोर मचाते रहेंगे जब तक जनता के युवा अगुआ दस्ते इस ज़ालिम व्यवस्था के साथ-साथ इनकी गर्दन भी न मरोड़ दें।