Category Archives: स्‍मृति शेष

राम शरण शर्मा (1920-2011): जनता का इतिहासकार

निश्चित तौर पर, हर इंसान कभी न कभी मरता है। लेकिन कुछ ही इंसान होते हैं जो अपने जीवन के दौरान अपने क्षेत्र की संरचना और सीमा को परिभाषित करते हैं। प्रो. शर्मा ऐसे ही शख़्स थे। वे जब तक जीवित रहे, उन्होंने भारतीय प्राचीन इतिहास के लेखन के क्षितिज को परिभाषित किया। उनका योगदान महज़ ऐतिहासिक शोध के धरातल पर नहीं था, बल्कि इतिहास-लेखन की पहुँच (अप्रोच) और पद्धति (मेथड) के धरातल पर था। और यही वह चीज़ है जो उन्हें महान इतिहासकार बनाती है और इस मामले में उन्हें डी-डी- कोसाम्बी, गॉर्डन चाइल्ड, हेनरी पिरेन, ई-पी- थॉमसन, मार्क ब्लॉक, क्रिस्टोफर हिल, ज्यॉफरी स्टे डि क्रोआ, एरिक हॉब्सबॉम आदि जैसे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इतिहासकारों की श्रेणी में खड़ा करता है। ऐसे उत्कृष्ट मनुष्य और मार्क्सवादी इतिहासकार को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि।

बिस्मिल के शहादत दिवस 19 दिसम्बर को क्रान्तिकारी जन-एकजुटता दिवस के रुप में मनाया गया

एक तरफ छात्र-नौजवान अपने नारों, पर्चों से क्रान्तिकारी विरासत को लोगों के दिलों में फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ ऐसे तमाम फ़ासीवादी व बुर्जुआ संगठन ‘बिस्मिल’ की क्रान्तिकारी व साम्प्रदायिक विरोधी विरासत को ग़लत तरीक़े से पेश करके कलंकित करने का काम कर रहे थे। मज़दूरों का नाम लेकर उनकी पीठ में छुरा भोंकने वाले कुछ संशोधनवादी “मौन जुलूस” (मुर्दा जुलूस) निकालकर यह बता रहे थे कि आज के दौर में उनकी राजनीति किसका पक्ष ले रही है? ज़ाहिर सी बात है कि मौन रहने से यह वर्तमान व्यवस्था का ही पक्ष लेगी।

केन के जल से बना कवि

जब भी कविता की सांस्कृतिक सार्थकता के समर्थक कवि और आत्मीय बेबाक अन्वेषणों और निजी सघन अनुभूतियों की कविता का ज़िक्र होगा, कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आयेंगे। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए अलग तरह की कलात्मक अनुभूति और रचना की नर्मी और गुदाजी का अहसास होता है। वह शिल्प के कटे-छटेपन और पॉलिश के लिए भी याद आते हैं। उनकी विशेषता है कि उन्होंने कविता में करोड़ों कर्म के उत्सव मनाये। वे हर रचना में मगन मन रहे। एकान्तवास की एक पंक्ति नहीं रची। साथ ही उनके मन में उत्पीड़ित, दुखी, संघर्षशील जनता से अथाह प्रेम था। उनकी कविता सिर्फ पढ़े जाने के लिए नहीं लगती है, बल्कि कवि होने की सीख लेने के लिए भी ज़रूरी लगती है।

नहीं बुझेगी संकल्पों, संघषों और नव-जागरण की वह मशाल!

शिवराम आज भले ही भौतिक रूप में हमसे बिछड़े गये हों, लेकिन उनके द्वारा साहित्य, समाज व संस्कृति के क्षेत्र में किये गये काम हमारी स्मृतियों में एक भौतिक-शक्ति के रूप में मौजूद रहेंगे और हमारा व आनेवाली पीढ़ियों का मार्ग-दर्शन करेंगे। वे हमारे सपनों, इरादों और संघर्षों में एक तेजोदीप्त मशाल की तरह जीवित रहेंगे।

जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ

नागार्जुन की काव्ययात्रा काफी विराट फलक लिये हुए है। बहुआयामी रूपों में वो हमारे सामने प्रकट होते हैं जिन पर विस्तार से बात कर पाना इस छोटे-से लेख में कदापि सम्भव नहीं है। तथापि हम विस्तार में जाने का लोभ संवरण करते हुए इतना ज़रूर कहेंगे कि उनकी कविताओं में, वे चाहे प्रकृति को लेकर हो या, अन्याय के विषयों पर लिखी गयी हों, सामाजिक असमानता, वर्ग-भेद, शोषण-उत्पीड़न, वर्ग-संघर्ष कभी भी पटाक्षेप में नहीं गया। बल्कि वह खुरदरी ज़मीन सदैव कहीं न कहीं बरकरार रही है, जिस परिवेश में वह कविता लिखी जा रही है। यही सरोकारी भाव नागार्जुन को जनकवि का दर्जा प्रदान करती है।

जनकवि ‘गिर्दा’ जिये रहेंगे

जनकवि गिरीश ‘गिर्दा’ ने गत 22 अगस्त को जब अन्तिम साँस ली तो जैसे उत्तराखण्ड आन्दोलन का समूचा संघर्ष एकबारगी समूचे उत्तराखण्डवासियों की आँखों के सामने फिर से प्रकट हो गया। सभी की पलकों पर आँसू, दिल में उदासी छा गयी थी, किन्तु सभी की जुबान पर ‘गिर्दा जिन्दाबाद’ ‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, गिर्दा तेरा नाम रहेगा’ जैसे इंकलाबी नारे तो गूंजे ही, समूचे राज्य में आज भी जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे लोगों-संगठनों के बीच गिरीश तिवारी यानी गिर्दा के लिखे-गाये गीत ग़मगीन वातावरण के बावजूद सुर्ख बुराँस के मौसम की तरह खिल उठे। यह है किसी व्यक्ति या रचना का जनता की पीड़ा, संघर्ष और सपनों से जुड़कर चलने की प्रतिध्वनि जन कोरस। यानी नयी समाज व्यवस्था के लिए नये जीवन मूल्यों की लड़ाई की विरासत का सच्चा सेनानी होने का अर्थ और आयाम।

फ़ै़ज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर

फै़ज को अवाम का गायक कहा जाय तो ठीक ही होगा। उनकी कविता में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में बसे हुए बेसहारा लोगों, यतीमों की आवाज़ें दर्ज है, उनकी उम्मीदों ने जगह पायी है। अदीबों की दुनियां उसे मुसलसल जद्दोजहद करते शायर के रूप में जानती है। सियासी कारकूनों की निगाह में फै़ज के लफ्ज ‘खतरनाक लफ्ज’ है। अवाम के दिलों में सोई आग को हवा देने वाले लफ्ज है। बिलाशक यही वजह होगी जिसके एवज़ में फ़ैज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारहों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद की चिनगियाँ कभी बुझी नहीं, उनकी मुहब्बत कभी बूढ़ी नहीं हुई।

प्रो. दलीप एस. स्वामी : एक जनपक्षधर अर्थशास्त्री

श्री दलीप स्वामी एक मार्क्सवादी थे और आजीवन अपने विचारों पर उनका विश्वास बना रहा। उनका दृढ़ विश्वास था कि इस लुटेरी व्यवस्था का एकमात्र विकल्प समाजवाद ही है। वे कहते थे कि अर्थशास्त्र का पठन–पाठन उनके लिए महज़ जीवनवृत्ति का माध्‍यम नहीं बल्कि समाजवाद को समझने और उसकी समझदारी को विकसित करने का वैचारिक औज़ार है।

जनता का इतिहास लेखक : हावर्ड ज़िन

इतिहास का निर्माण जनता करती है लेकिन स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में पढ़ायी जाने वाली इतिहास की किताबों में जनता की भूमिका प्राय: नदारद रहती है। शासक वर्ग हमेशा अपने नज़रिये से इतिहास लिखवाने की कोशिश करते हैं और उसे ही प्रचलित और स्वीकार्य बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। जनता के पक्ष से लिखी गयी इतिहास की पुस्तकें अक्सर एक छोटे दायरे तक सीमित रह जाती हैं। लेकिन कुछ इतिहासकार इस दायरे को तोड़कर इतिहास की जनपरक व्याख्या को पाठकों के बहुत बड़े समुदाय तक ले जाने में सफल रहे हैं। हावर्ड ज़िन, जिनका इसी वर्ष 27 जनवरी को निधन हो गया, इन्हीं में से एक थे।

क्रान्तिकारी कवि ज्वालामुखी नहीं रहे

‘आह्वान’ और इसके साथी संगठनों से ज्वालामुखी बहुत करीबी जुड़ाव महसूस करते थे। भारतीय समाज की सच्चाइयों और क्रान्ति की मंजिल की पहचान करने और नये रास्तों के सन्धान की हमारी कोशिशों में बहुत से मतभेदों के बावजूद वे हमारी क्रान्तिकारी भावना और जोश के भागीदार थे और हमारे बहुत से आयोजनों में उनकी मौजूदगी युवा कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणादायी होती थी। हम ‘आह्वान’ की पूरी टीम की ओर से जनसंघर्षों के इस सहयोद्धा कवि को क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।