Category Archives: स्‍मृति शेष

गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा

गाब्रियाल गार्सिया मार्खेस, यथार्थ के कवि, जो इतिहास से जादू करते हुए उपन्यास में जीवन का तानाबाना बुनते हैं, जिसमें लोग संघर्ष करते हैं, प्यार करते हैं, हारते हैं, दबाये जाते हैं और विद्रोह करते हैं। ब्रेष्ट ने कहा था साहित्य को यथार्थ का “हू-ब-हू” चित्रण नहीं बल्कि पक्षधर लेखन करना चाहिए। मार्खेस के उपन्यासों में, विशेष कर “एकान्त के सौ वर्ष”, “ऑटम ऑफ दी पेट्रियार्क” और “लव एण्ड दी अदर डीमन” में उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट दिखती है। मार्खेस के जाने के साथ निश्चित तौर पर लातिन अमेरिकी साहित्य का एक गौरवशाली युग समाप्त हो गया। उनकी विरासत का मूल्यांकन अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा क्योंकि उनकी रचनाओं में जो वैविध्य और दायरा मौजूद है, उसका आलोचनात्मक विवेचन एक लेख के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस लेख में मार्खेस के जाने के बाद उन्हें याद करते हुए हम उनकी रचना संसार पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। आगे हम ‘आह्वान’ में और भी विस्तार से मार्खेस की विरासत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण रखेंगे।

पीट सीगर (1919-2014) – जनता की आवाज़ का एक बेमिसाल नुमाइन्दा

सीगर 1990 के दशक में भी अपनी काँपती आवाज़ में जनसभाओं और आन्दोलनों में गाते रहे। उनकी आवाज़ में एक ऐसी ईमानदारी, जीवन के प्रति भरोसा और प्यार, इंसानियत के प्रति विश्वास और साथीपन झलकता था कि लगभग हमेशा ही समूची भीड़ उनके साथ गाने लगती थी। 2000 के दशक में भी वयोवृद्ध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सांगीतिक सक्रियता को छोड़ा नहीं। यहाँ तक कि उन्होंने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन में भी गाया।

नेल्सन मण्डेला

मण्डेला के इस ऐतिहासिक विश्वासघात का नतीजा यह हुआ कि औपचारिक रूप से रंगभेद की समाप्ति के दो दशकों के बाद भी दक्षिण अफ्रीका में वर्गभेद पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गया है। श्वेत धनिक शासकों के साथ-साथ काला धनिक वर्ग भी जुड़ गया है। आज दक्षिण अफ्रीका (लेसोथो के बाद) दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार वहाँ की लगभग आधी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है। अश्वेतों की कुल आबादी कुल आबादी का 80 फ़ीसदी होने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका की कुल सम्पदा के मात्र 5 फ़ीसदी पर ही उनका नियन्त्रण है। जहाँ श्वेत यूरोपीय नगरों जैसे आलीशान वातावरण में रहते हैं वहीं अधिकांश अश्वेत झुग्गी-झोपड़ियों की नारकीय परिस्थितियों में जीवन बिताने को मजबूर हैं। 25 फ़ीसदी लोग बेरोज़गार हैं।

कॉ. शालिनी: सामाजिक परिवर्तन की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने को समर्पित एक ऊर्जस्वी जीवन

कॉ. शालिनी का जीवन, क्रान्तिकर्म के प्रति उनका एकनिष्ठ समर्पण, अपने निजी सुख-दुख और स्वप्नों-आकांक्षाओं को पूरी तरह जनमुक्ति संग्राम में अपनी भूमिका के अधीन कर देने की उनकी प्रतिबद्धता और कम्युनिस्ट जीवन मूल्यों तथा संस्कारों के प्रति उनका अटूट विश्वास आज के दौर में एक मिसाल है। इतिहास में जितने भी सामाजिक परिवर्तन हुए उनकी अग्रणी कतारों में ऐसे ही नौजवान थे। हमारे देश में भी एक नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों की बुनियाद खड़े करनेवालों की अग्रिम कतारों में कॉ. शालिनी होंगी और आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत भी। उन्हें हमारा क्रान्तिकारी सलाम!

चिनुआ अचेबे को श्रृद्धांजलि

बकौल चिनुआ अचेबे उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये अफ्रीका की सांस्कृतिक विभिन्नताओं को इसलिए चित्रित किया, क्योंकि उसकी मौजूदगी को विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के बरक्स दिखाया जा सके। अपने एक निबन्ध ‘द रोल ऑफ़ ए राइटर इन न्यू नेशन’ में उन्होंने ज़ोर दिया कि दुनिया को इस बात का एहसास दिलाना ज़रूरी है कि अफ्रीकियों के पास भी अपनी सभ्यता-संस्कृति है। हालाँकि उनके लेखन में और विचारों में कई जगह विरोधाभास मिलते हैं, लेकिन सत्तावाद और निरंकुशता का विरोध और जनपक्षधरता उनकी विशेषता रही। आह्वान की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि!

अमीरी बराका को श्रृद्धांजली

अफ्रीकी-अमेरिकी जनता और दुनियाभर के मेहनतकशों एवं शोषितों-उत्पीड़ितों के मुक्ति संघर्षों को अपनी कलम से आवाज़ देनेवाले लेखक, कलाकार, नाटककार, गीतकार, कवि और प्रखर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी तथा कार्यकर्ता अमीरी बराका का पिछले दिनों 9 जनवरी 2014 को निधन हो गया। उनके लिए कला समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का हथियार थी। वह कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि जनता के संघर्षों के भागीदार थे। अमीरी बराका (ली रॉइ जोन्स) का जन्म 7 अक्टूबर 1934 को अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित न्यूयार्क शहर में हुआ। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1960 के दशक में काली जनता के सिविल राइट मूवमेण्ट में शिरकत से की। इस पूरे दौर में वह काले राष्ट्रवाद के हिमायती थे। 1970 के दशक के मध्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उनका मोहभंग हो गया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद उनके चिन्तन का आधार बन गया।

चन्द्रशेखर आज़ाद – ग़रीब मेहनतकश जनता की क्रान्ति-चेतना के प्रतीक

आज़ाद का जन्म बेहद गरीबी, अशिक्षा और धार्मिक कट्टरता में हुआ था। भगतसिंह आदि से उम्र में वे केवल एक-दो साल ही बड़े थे। वे पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों से सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता बने जिसका लक्ष्य था भारत में धर्मनिरपेक्ष वर्गविहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना। आज़ाद भगतसिंह की तरह नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन वे शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे वेदान्ती या आध्यात्मिक भी नहीं थे। धर्म को निजी विश्वास की चीज़ मानते थे और सच्चे धर्मनिरपेक्षवादी की तरह उनका यहा पक्का विश्वास था कि राज्य को पूरी तरह धर्म से अलग किया जाना चाहिए।

सामाजिक परिवर्तन की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने को समर्पित एक ऊर्जस्वी जीवन का अन्त!

कॉ. शालिनी ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के न्यासी मण्डल की सदस्य, ‘राहुल फाउण्डेशन’ की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। प्रगतिशील, जनपक्षधर और क्रान्तिकारी साहित्य के प्रकाशन तथा उसे व्यापक जन तक पहुँचाने के काम को भारत में सामाजिक बदलाव के संघर्ष का एक बेहद ज़रूरी मोर्चा मानकर वे पूरी तल्लीनता और मेहनत के साथ इसमें जुटी हुई थीं। अपने छोटे-से जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने विभिन्न मोर्चों पर सामाजिक-राजनीतिक कामों को समर्पित किये।

एरिक हॉब्सबॉमः एक हिस्टोरियोग्राफिकल श्रद्धांजलि

हॉब्सबॉम एक जटिल व्यक्तित्व थे। बौद्धिक ईमानदारी और विपर्यय के दौर में जीने के चलते पैदा होने वाले निराशावाद के द्वन्द्व के कारण यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। लेकिन निश्चित तौर पर वह उन भूतपूर्व मार्क्सवादियों से लाख गुना बेहतर बुद्धिजीवी और इंसान थे, जो पूरी तरह से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की गोद में बैठ गये थे और द्वन्द्वमुक्त हो गये थे; न ही हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्सवाद में सोचे-समझे तौर पर कोई विकृति पैदा करने की कोशिश की, हालाँकि उनकी समझ पर बहस हो सकती है; हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के प्रति कभी कोई असम्मान या गाली-गलौच जैसी निकृष्ट हरकत नहीं की, जैसा कि आजकल के कई राजनीतिक नौदौलतिये कर रहे हैं, जो कि अपने आपको मार्क्सवादी भी कहते हैं; हॉब्सबॉम जीवनपर्यन्त बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे से आत्मिक तौर पर जुड़े रहे और लगातार आशाओं के उद्गमों की तलाश करते रहे। लेकिन अनिरन्तर और असंगतिपूर्ण मार्क्सवादी अप्रोच और पद्धति के कारण वह अक्सर अपनी इस तलाश में नाकाम रहे।

एक जुझारू जनवादी पत्रकार – गणेशशंकर विद्यार्थी

भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में जिन्होंने त्याग बलिदान और जुझारूपन के नये प्रतिमान स्थापित किये, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी भी शामिल हैं। अपनी जनपक्षधर निर्भय पत्रकारिता के दम पर विद्यार्थी जी ने विदेशी हुकूमत तथा उनके देशी टुकड़खोरों को बार-बार जनता के सामने नंगा किया था। वे आजीवन राष्ट्रीय जागरण के प्रति संकल्पबद्ध रहे। विद्यार्थी जी ने तथाकथित वस्तुपरकता का नाम लेते हुए कभी भी वैचारिक तटस्थता की दुहाई नहीं दी। हिन्दी प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय जागरण का वैचारिक आधार तैयार करने में तथा उसे और व्यापक बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की थी। उस दौर में विद्यार्थी जी के द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ ने साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय पत्रकारिता की भूमिका तो निभायी ही साथ-साथ जुझारू पत्रकारों तथा क्रान्तिकारियों की एक पूरी पीढ़ी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम भी किया था।