Category Archives: स्‍मृति शेष

विदा कॉमरेड लालबहादुर वर्मा! लाल सलाम!

डॉ.वर्मा आजीवन प्रगति, मुक्ति और बदलाव के आकांक्षी रहे, लेकिन इन मूल्यों की व्याख्या और इन्हें हासिल करने के रास्तों के बारे में उनके विचारों में बदलाव आता गया। अपनी युवावस्था में एक उदारतावादी बुद्धिजीवी से मार्क्सवाद तक का सफ़र उन्होंने एक लम्बी प्रक्रिया में तय किया और फिर बाद के दिनों में मार्क्सवाद की अपनी अलग व्याख्या तक, उनकी विचार यात्रा बहुत उतार-चढ़ावों-भटकावों से भरी रही, लेकिन वे जिस भी विचार के साथ रहे, निरन्तर बहस-मुबाहसा और संवाद उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा।

विदा कॉमरेड मीनाक्षी! लाल सलाम!

22 अप्रैल को अनुराग पुस्तकालय में का. मीनाक्षी की स्मृति सभा में उपस्थित कामरेडों ने अपनी वरिष्ठतम कामरेड के व्यक्तित्व और जीवन के विविध पक्षों और रंगों को भावविह्वल होकर याद किया, उनके साथ बिताये गये अपने दिनों की चर्चा की और यह संकल्प लिया कि वे शोक को शक्ति में बदलकर आजीवन मज़दूर क्रान्ति और मानव-मुक्ति की उस परियोजना को मूर्त रूप देने में जुटे रहेंगे जिसमें का. मीनाक्षी ने अपना पूरा जीवन लगा दिया।

विष्णु खरे : अपनी राह खुद बनाने वाला विद्रोही प्रयोगधर्मी कवि

9 फरवरी 1940 को छिंदवाड़ा (म.प्र.) में जन्मे विष्णु खरे ने मस्तिष्काघात के बाद विगत 19 सितम्बर, 2018 को दिल्ली में निधन से पहले एक लम्बा सर्जनात्मक और प्रयोग-संकुल जीवन बिताया, फिर भी वो लगातार इतना कुछ नया कर रहे थे कि सहज ही ये सोचने को जी चाहता है कि अभी उन्हें जाना नहीं था, अभी तो उन्हें काफी कुछ करना था। उनका सर्जनात्मक जीवन आधे सदी से भी अधिक लम्बा रहा। कविताएँ वे 1956 से, यानी 16 वर्ष की आयु से लिखने लगे थे। 1960 में टी.एस.एलियट की कविताओं का उनका अनुवाद ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ’ नाम से प्रकाशित हुआ।

साथी नितिन नहीं रहे… साथी नितिन को लाल सलाम

11 मई की भोर में दिल का दौरा पड़ने से नौजवान भारत सभा की राष्ट्रीय केन्द्रीय परिषद के सदस्य और दिल्ली  में आंगनबाड़ी स्त्री मज़दूरों के बीच संगठनकर्ता के तौर पर काम कर रहे साथी नितिन का आकस्मिक निधन हो गया। वह मात्र 30 वर्ष के थे। पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत ख़राब चल रही थी और परीक्षणों में कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने की रपट सामने आयी थी। आज भोर में उन्होंने सीने में तेज़ दर्द की शिकायत की जिसके बाद उनके परिवार वालों ने उन्हें एण्टैसिड दी क्योंंकि वे दर्द का असली कारण नहीं समझ पाये। वास्तव में, दर्द दिल का दौरा पड़ने से हो रहा था। उन्हें समय पर अस्पतताल नहीं ले जाया जा सका जिसके कारण अन्तत: भोर में 5:30 पर उनके दिल की धड़कन बन्द  हो गयी और पिछले 10 वर्षों से युवाओं और मज़दूरों के हक़ों के लिये निरंतर संघर्ष करने वाला और शहीदेआज़म भगतसिंह के आदर्शों को यथार्थ में बदलने के लिये जीने वाला यह शानदार युवा साथी हमारा साथ छोड़ गया। नितिन की मौत युवा आन्दो लन और मज़दूर आन्दोलन की क्षति है और उनके जाने से खाली हुई जगह को लम्बे  समय तक नहीं भरा जा सकेगा।

रिचर्ड लेविंस – विज्ञान और समाज को समर्पित द्वन्द्वात्मक जीववैज्ञानिक

एक मार्क्सवादी होने के नाते लेविंस केवल एक क्लर्क वैज्ञानिक बनने में यकीन नहीं रखते थे, उनका मानना था कि विज्ञान एक सामाजिक सम्पत्ति है और इसका अध्ययन बिना उस समाज को बनाने वाली बहुसंख्यक जनता के जीवन को शोषण से मुक्त किये और बिना समृद्ध बनाने के लिए समर्पित किये व्यर्थ है। उनका कहना था कि विज्ञान को समझना समाज और दुनिया को बदलने के लिए ज़रूरी है क्योंकि बिना बदलाव के विज्ञान को समझे बदलाव ला पाना सम्भव नहीं है ।

साथी नवकरण की याद में

नवकरण के चले जाने से क्रान्तिकारी आन्दोलन को बड़ा आघात लगा है। यह किसी एक संगठन की क्षति नहीं बल्कि समूचे क्रान्तिकारी आन्दोलन की क्षति है। ऐसे ज़िन्दादिल नौजवान को श्रद्धांजलि देकर हमें आज उसके देखे हुए सपनों को अपनी आँखों में भरकर क्रान्ति के बीहड़ रास्ते पर चलते जाना होगा और उन सामाजिक कारकों को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर देना होगा जिनके कारण हमारा प्यारा साथी हमारे बीच नहीं है। नवकरण जीवन से हार अवश्य गया लेकिन उसका छोटा-सा राजनीतिक जीवन भी दूसरों को प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त है। समूचा ‘आह्वान’ समूह तहे-दिल से साथी नवकरण को श्रृद्धांजलि देता है और उसके सपनों को साकार करने का संघर्ष जारी रखने की शपथ को एक बार फिर दुहराता है। साथी नवकरण को लाल सलाम! इंक़लाब ज़िन्दाबाद!

वीरेन डंगवाल की छह कविताएँ

आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
सोचो तो तारंता बाबू और ज़रा बताओ तो
काहे हुए चले जाते हो ख़ामख़ाह
इतने निरुपाय?

अमर शहीद करतार सिंह सराभा के 100वें शहादत दिवस (16 नवम्बर) के अवसर पर

16 नवम्बर 1915 को मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में शहादत पाने वाले करतार सिंह सराभा का जन्म लुधियाना जिले के सराभा गाँव में सन् 1896 में हुआ था। माता–पिता का साया बचपन में ही इनके सिर से उठ जाने पर दादा जी ने इनका पालन–पोषण किया। लुधियाना से मैट्रिक पास करने के बाद ये इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए सान फ्रांसिस्को, अमेरिका चले गये। 1907 के बाद से काफी भारतीय विशेषकर पंजाबी लोग अमेरिका और कनाडा में मज़दूरी के लिए जा कर बस चुके थे। इन सभी को वहाँ आये दिन ज़ि‍ल्लत और अपमान का सामना करना पड़ता था। अमेरिकी गोरे इन्हें काले और गन्दे लोग कहकर सम्बोधित करते थे। इनसे अपमानजनक सवाल–जवाब किए जाते और खिल्ली उड़ाई जाती थी कि 33 करोड़ भारतीय लोगों को 4-5 लाख गोरों ने गुलाम बना रखा है! जब इन भारतीयों से पूछा जाता कि तुम्हारा झण्डा कौन–सा है तो वे यूनियन जैक की तरफ इशारा करते, इस पर अमेरिकी गोरे ठहाका मारते हुए कहते कि ये तो अंग्रेज़ों का झण्डा है तुम्हारा कैसे हो गया। प्रवासी भारतीयों को अब खोयी हुई आज़ादी की क़ीमत समझ में आयी। देश को आज़ाद कराने की कसमसाहट पैदा हुई और मीटिंगों के दौर चले।

जीवन की अपराजेयता और साधारणता के सौन्दर्य का संधान करने वाला कवि वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल की कविता का रास्ता देखने में सहज, लेकिन वास्तव में काफी बीहड़ था। उदात्तता और सूक्ष्मतग्राही संवेदना उनके सहज गुण हैं। ये कविताएँ भारतीय जीवन के दुःसह पीड़ादायी संक्रमण के दशकों की आशा-निराशा, संघर्ष-पराजय और स्वप्नों के ऐतिहासिक दस्तावेज के समान हैं। वीरेन ने अपने ढंग से निराला, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन जैसे अग्रज कवियों की परम्परा को आगे विस्तार दिया और साथ ही नाज़िम हिकमत की सर्जनात्मकता से भी काफी कुछ अपनाया, जो उनके प्रिय कवि थे। जीवन-काल में उनके तीन संकलन प्रकाशित हुए – ‘इसी दुनिया में’ (1991), ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ (2002) और ‘स्याहीताल’ (2010)। उनकी ढेरों कविताएँ और ढेर सारा गद्य अभी भी अप्रकाशित है। नाज़िम हिकमत की कुछ कविताओं का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘पहल-पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित हुआ था, लेकिन बहुतेरी अभी भी अप्रकाशित हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रोजेविच आदि कई विश्वविख्यात कवियों की कविताओं के भी बेहतरीन अनुवाद किये थे। उनकी कविताएँ उत्तरवर्ती पीढ़ियों को ज़िन्दादिली के साथ जीने, ज़िद के साथ लड़ने और उम्मीदों के साथ रचने के लिए हमेशा प्रेरित और शिक्षित करती रहेंगी। पाब्लो नेरूदा ने कहा थाः “कविता आदमी के भीतर से निकलती एक गहरी पुकार है।” वीरेन डंगवाल की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ

फ़िलिस्तीनी कवि समीह अल-क़ासिम की स्मृति में

समीह अल क़ासिम आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन फ़िलिस्तीन की मुक्ति के लिए उठने वाली हर आवाज़ में, अन्याय के प्रतिरोध में उठने वाली हर मुट्ठी में वह ज़िन्दा हैं। उनकी कविताएँ आज़ाद फ़िलिस्तीन के हर नारे में गूँज रही हैं।