Category Archives: न्‍यायपालिका

बिनायक सेन: पूँजीवादी न्याय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति

वैसे तो इस देश की अभागी जनता को पूँजीवादी लोकतन्त्र के मानकों पर खरा उतरने वाला लोकतन्त्र भी कभी नहीं मिला, लेकिन पहले के मुकाबले आज की स्थितियों में फ़र्क़ ज़रूर है। उदारीकरण और निजीकरण के पिछले दो दशकों के इतिहास ने राज्य की भूमिका को दो स्तरों पर परिवर्तित किया है। निजी पूँजी की लूट को रोक पाना या एक हद तक नियमित कर पाना भी उसके लिए असम्भव है। वस्तुगत तौर पर उसकी भूमिका सहायक की ही हो सकती है, क्योंकि यह पूँजीवाद की ज़रूरत है। ऐसे में निजी पूँजी के विस्तार के ख़िलाफ अगर तात्कालिक दृष्टि से भी कोई व्यक्ति या संगठन कार्य करता है, उसे अवरुद्ध करता है तो राज्य उसका निर्मम दमन करेगा। दूसरे इन नीतियों के प्रभाव में जहाँ एक तरफ छोटे से मध्यवर्ग के लिए अकूत धन-सम्पदा और ख़ुशहाली पैदा हुई है, वहीं देश की व्यापक जनता के लिए ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी और महँगाई के रूप में भारी विपन्नता पैदा हुई है। देश के शासक वर्ग भी जानते हैं कि वे ज्वालामुखी के दहाने पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहे हैं और यह ज्वालामुखी भविष्य में जनविद्रोह के रूप में फूटेगा ही, जिसके आसार अभी से नज़र आने लगे हैं। इस विस्फोट को यथासम्भव विलम्बित करने के लिए राज्य अपने दमनतन्त्र को तीखा करते हुए दबे पाँव एक अघोषित आपातकाल पैदा करने की ओर अग्रसर है।

पूँजीपतियों के लिए सुशासन जनता के लिए भ्रष्ट प्रशासन

तमाम चुनावी मदारी जनता को बरगलाने के लिए नये-नये नुस्ख़े ईजाद करते रहते हैं। बिहार में भाजपा व जद (यू) के गठबन्धन वाली सरकार के मुख्यमन्त्री नितीश कुमार इस खेल के काफी मँझे हुए खिलाड़ी हैं। अपने इस कार्यकाल की शुरुआत में उन्होंने ‘‘जनता को रिपोर्ट कार्ड’‘ देने की परम्परा शुरू की थी, जिसे अब केन्द्र सरकार भी निभा रही है। रिपोर्ट कार्ड नामक मायावी जाल इसलिए बुना जाता है, ताकि इसके लच्छेदार शब्दों व भ्रामक आँकड़ों को सुनने के बाद जनता अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर विकास के झूठे नारे पर अन्धी होकर नाचती रहे।

पूँजीवादी न्याय बेनक़ाबः हज़ारों निर्दोष नागरिकों के हत्यारे आज़ाद

जब पूँजीवादी राजसत्ता के सभी प्रमुख अंग पूँजी के हितों की सेवा में लगे हुए थे तो न्यायपालिका क्यों पीछे रहती। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने वॉरेन एण्डरसन और अन्य अभियुक्तों पर लगे आरोपों को धारा 304(II) से धारा 304 ए के तहत ला दिया। यानी कि वह धारा जो सड़क पर लापरवाही से वाहन चालन के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में लगाई जाती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अहमदी की इस सेवा से सभी अभियुक्तों को काफी राहत मिली क्योंकि पहले लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर 10 साल की कैद हो सकती थी, और बाद में लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर अधिक से अधिक 2 वर्ष की कैद और जुर्माना हो सकता था। बाद में अपील पर कैद रद्द कर सिर्फ जुर्माना भी लगाया जा सकता था। 40,000 लोगों की जघन्य हत्या को भारत के सम्माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक यातायात दुर्घटना में तब्दील कर दिया!

पूँजीवादी न्याय का असली चरित्र

कानून की किताब में कुछ भी लिखा हो, अमीरों के लिए कानून का एक रुख़ होता है और ग़रीबों के लिए दूसरा। कानून के समक्ष समानता की सारी बातें किताबों में दबी रहती हैं। पूँजीवादी न्याय पूँजी के वर्चस्व का ही अंग होता है। इस प्रक्रिया ही ऐसी होती है कि कोई ग़रीब आदमी उस तक पहुँच ही नहीं पाता है। और अमीरों को तो न्याय व्यवस्था उनके दरवाज़े पर आकर न्याय देती है। और सबकुछ बेचने-खरीदने वाली व्यवस्था में न्याय का भी हश्र कमोबेश वैसा ही हो जाता है, जैसे कि किसी भी माल का।

जयराम रमेश को गुस्सा क्यों आता है?

इस देश की जनता की धुर विरोधी, प्रगतिशीलता एवं उदारवाद का छद्म चोला पहनने वाली संसदीय पार्टियों एवं उनके पतित नेताओं की न तो औपनिवेशिक अवशेषों से कोई दुश्मनी है और न ही सामन्ती बर्बर देशी मानव विरोधी परम्पराओं से। जयराम रमेश जिस औपनिवेशिक प्रतीक चिन्ह गाउन का विरोध कर उतार फेंकने की बात करते हैं उसी औपनिवेशिक शासन की दी हुई शिक्षा व्यवस्था व न्यायपालिका को ढो रहे हैं। आज भी भारत में उसी लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को सुधारों के पैबन्दों और जालसाज़ी से लागू किया गया है। मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रमुख मक़सद ऐसे भारतीय मस्तिष्क का निर्माण करना था जो देखने में देशी लगे लेकिन दिमाग से पूर्णतया लुटेरे अंग्रेजों का पक्षधर हो। पिछले साठ सालों में शिक्षा को हाशिये पर रखा गया। आज़ादी के समय सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य बताया गया था। आज उसी शिक्षा को नित नये कानूनों द्वारा बाज़ार की वस्तु बनाया जा रहा है। अंग्रेजियत को थोपा गया और रोज़गार के तमाम क्षेत्रों को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़े रखने की साजिश जारी रही। देश के अन्दर ही बर्बरता और असमानता को दीर्घकालिक बनाये रखने का एक कुचक्र रचा गया जो आज भी जारी है। शिक्षा के उसी औपनिवेशिक खाद से पली-बढ़ी आज की शिक्षा और उसमें प्रशिक्षित उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय अपने ही देश के ग़रीब मज़दूरों व अशिक्षितों से नफरत करता है, उसे गँवार समझता है और अपनी मेधा, ज्ञान और शिक्षा का प्रयोग ठीक उन्हीं औपनिवेशिक शासकों की तरह ग़रीबों के शरीर के खून का एक-एक क़तरा निचोड़ने के लिये करता है। तब जयराम रमेश को गुस्सा नहीं आता। जाहिर है, जब वे नुमाइन्दगी ही इसी खाए-पिये अघाए मध्यवर्ग की कर रहे हैं, तो उससे गुस्सा कैसा?

खाप पंचायतों के फ़रमान और पूँजीवादी लोकतंत्र की दुविधा

खाप पंचायतों और इस प्रकार के सभी निरंकुश सामाजिक-आर्थिक निकायों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए तर्कप्रसार, वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, जाति-विरोधी प्रचार-प्रसार के कामों को हाथ में लेना होगा। युवाओं के बीच विशेष रूप से इन अभियानों को सांस्कृतिक रूपों के सहारे चलाना होगा। लेकिन इन सभी कार्यभारों को पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आमूल-चूल रूप से बदल डालने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन का हिस्सा बनाना होगा। युवाओं को इस पूरे काम में ख़ास तौर पर आगे आना चाहिए और भारतीय समाज में एक नये प्रकार के पुनर्जागरण और प्रबोधन के आन्दोलन का अगुआ बनना चाहिए। इसके बग़ैर हम इस मामले में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।

गुजरात : पूँजीवादी इंसाफ का रास्ता बेइन्तहा लम्बा, टेढ़ा–मेढ़ा और थकाऊ है

आज गुजरात में हुआ, कल कहीं और होगा। आज मोदी ने किया, कल कोई और करेगा। क्या आज़ादी के बाद के 63 वर्ष इस बात की गवाही नहीं देते ? अगर इस कुचक्र से मुक्ति पानी है तो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता और समाज के ही विकल्प के बारे में सोचना होगा। हर इंसाफ़पसन्द नौजवान का आज यही फ़र्ज़ बनता है।

माया कोडनानी और जयदीप पटेल की गिरफ्तारी और गुजरात नरसंहार पीड़ितों को इंसाफ़!

जिस तरह से जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद जनरल डायर को जुल्मी अंग्रेज सरकार ने सम्मानित करने का काम किया था उसी तरह से मोदी ने भी चुन–चुनकर गुजरात कत्लेआम में शामिल लोगों को सम्मानित करने का काम किया। लेकिन जनरल डायर जैसे हत्यारों का क्या अंजाम हुआ, वो तो जगज़ाहिर हैं। लेकिन इसके साथ कुछ ऐसे सवाल भी हैं जिसपर बात किये बिना इस मामले को समझा नहीं जा सकता।

न्यायालय का शोकगीत और हम

पूँजीवादी समाज पर लोगों का विश्वास बना रहे इसके लिए न्यायपालिका राज करने वाले धनिक वर्ग के लोगों में से भी कुछ को सज़ा सुना देती है । पर ऐसे मामले गिनती के होते हैं जबकि हज़ारों–लाखों ऐसे मामले होते हैं जिनमें ग़रीब आदमी को ही दोषी ठहराया जाता है । ‘इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते’ जैसी टिप्पणी से न्यायपालिका यह भी जताना चाहती है कि जर्जर होती इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है । यानी इस आदमखोर पूंजीवादी समाज में लुटते हुए जीना पड़ेगा । पर ढाँचे के पैरोकार और बुद्धिजीवी ‘इतिहास के अन्त’ और पूँजीवाद को मानव–विकास की अन्तिम मंजिल बताने का कितना भी राग अलापते रहें, तमाम बहादुर, संवेदनशील और इंसाफपसन्द नौजवान इस पर यक़ीन नहीं करेंगे । वे न्यायपालिका को दिखला देंगे कि वाकई भगवान इस देश का कुछ नहीं कर सकता है । अगर कोई कर सकता है तो वे इस देश के आम नौजवान और मेहनतक़श हैं ।

न्यायपालिका का स्पष्ट होता जनविरोधी चरित्र

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि समाज के ऐसे लोग जिनकी आर्थिक–सामाजिक हैसियत दिल्ली में जीवन बिताने लायक नहीं है, वे दिल्ली छोड़ दें । ऐसे लोगों को राजधानी में रहने का कोई हक नहीं है । इन मामलों से न्यायपालिका का वर्ग चरित्र साफ़ उजागर होता है और अगर सज़ा मिलने की दर को देखा जाय कि जिन मामलों में ग़रीब फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को सज़ा मिलती है और जिनमें अमीर फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को, तो साफ़ देखा जा सकता है कि न्यायपालिका का जनविरोधी चरित्र किस तरह और अधिक प्रत्यक्ष होता जा रहा है ।