Category Archives: साम्राज्‍यवाद

इज़रायली जियनवादियों का फ़िलिस्तीनी जनता पर नया हमला

इतने वर्षों के संघर्ष के बाद इज़रायली जनता का भी एक बड़ा हिस्सा इस बात को समझने लगा है कि इज़रायल-फ़िलिस्तीन समस्या का “दो-राज्य समाधान” ही सम्भव और वांछित समाधान है। लेकिन साम्राज्यवाद और उसके टुकड़ों पर पलने वाले जियनवाद के रहते यह समाधान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इनके ख़िलाफ़ संघर्ष आज अरब जनता के एजेण्डे पर सबसे ऊपर है और इस संघर्ष के नतीजे पर ही इज़रायल-फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान निर्भर करता है। फ़िलिस्तीनी जनता को कोई सेना और हथियारों का जखीरा नहीं हरा सकता।

अमेरिका के जनतंत्र-प्रेम की हक़ीक़त

विश्व भर में अपने आप को लोकतंत्र का रखवाला बताने वाले और मानव अधिकारों की पहरेदारी का ढोंग रचाने वाले अमेरिका का असली चेहरा अब उभर कर सामने आने लगा है। आज दुनिया भर में अमेरिकी दादागीरी इतने नंगे रूप में सामने आ चुकी है कि ‘अमेरिकी जनतंत्र’ के चेहरे पर पड़े मानवता के नक़ाब को हटाने पर अब कुछ अमेरिकी बुद्धिजीवी व मीडिया भी मजबूर है। हालाँकि, उनका स्वर अमेरिकी ज़्यादतियों के लिए माफ़ी माँगने वाला ज़्यादा, और अमेरिकी साम्राज्यवाद की पुंसत्वपूर्ण ख़िलाफ़त करने वाला कम है।

साम्राज्यवादियों के लिए कुछ सबक

साम्राज्यवादियों की इतिहास से कुछ ख़ास दुश्मनी या खुन्नस है। इतिहास उन्हें जो सबक सिखाना चाहता है वे उसे सीखते ही नहीं हैं। पहले वियतनाम युद्ध में, कोरिया युद्ध में, इराक और अफगानिस्तान में, और भी तमाम देशों में हुए साम्राज्यवादी हमलों और हस्तक्षेपों में यह बात साबित हुई है कि युद्ध में निर्णायक जनता होती है हथियार नहीं। वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मंसूबों को नाकाम बनाते हुए वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वहाँ की जनता ने अमेरिकी सेना को मार–मारकर खदेड़ा। कोरिया में भी अमेरिकी सेना का हश्र उत्तर कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ ऐसा ही किया। इराक और अफगानिस्तान पर कब्जे के बावजूद यह बात साबित हो गई कि युद्ध अभी ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि जनता का जवाब तो अब मिलना शुरू हुआ है और कब्जे के बाद हुए छापामार हमलों में हजारों अमेरिकी और मित्र देशों के सैनिक मारे जा चुके हैं। और सबसे नया उदाहरण है इजरायल की अत्याधुनिक हथियारों और अमेरिकी हथियारों से लैस सेना की लेबनान के एक छोटे–से छापामार समूह हिज़्बुल्लाह के हाथों शर्मनाक शिकस्त।

यासूकुनी, शिंज़ो एबे और जापान की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ

पिछले कुछ समय में जापान के भीतर अंधराष्ट्रवाद काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। इसमें वहाँ की दक्षिणपंथी ताक़तों को काफ़ी योगदान रहा है जो लम्बे समय से जापानी स्वाभिमान की बात करती रही हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपमानित होने को याद दिलाते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि जापान ने कोई युद्ध अपराध नहीं किया बल्कि वह तो अपने एशियाई पड़ोसियों को पश्चिमी गुलामी से मुक्त करा रहा था। यासूकूनी में एक स्वतंत्र संगठन द्वारा ऐसी प्रदर्शनियों का आयोजन भी किया जाता है जिसमें ऐसे दृष्टिकोण से ही तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। यासूकूनी धार्मिक से ज़्यादा जापान के उभरते राष्ट्रवाद का प्रतीक चिन्ह बन गया है।

तारीख़ सभी साम्राज्यवादियों की मुश्तरक़ा दुश्मन है…. और तारीख़ जनता बनाती है!

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि साम्राज्यवाद ने एशिया और अफ्रीका के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की जो लूट मचाई वह इतिहास में अद्वितीय है। पश्चिम ने हमें सिविलाइज नहीं किया है। बल्कि यह कहना चाहिए कि पश्चिम में सभ्यता, जनवाद, आजादी, समानता, भ्रातृत्व आदि के सिद्धान्त पैदा करने का अतिरिक्त समय वहाँ के लोगों को पूरब से लूटी गई भौतिक सम्पदा के कारण मिल पाया। ब्रिटेन का औद्योगीकरण भारत से होने वाली लूट के कारण हो पाया। यही बात फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और उनके उपनिवेशों के बारे में भी कही जा सकती है। यह सच है कि पश्चिम में प्रबोधन और नवजागरण के कारण तमाम मुक्तिदायी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि हम नस्ली तौर पर कमजोर हैं और वे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ। नस्ली श्रेष्ठता और हीनता के तमाम सिद्धान्त विज्ञान ने गलत साबित कर दिये हैं। आज पश्चिम का जो शानदार विकास हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण एशिया और अफ्रीका की साम्राज्यवादी लूट है।

एक बग़दाद अमेरिका के भीतर…

जिस तरह बुश प्रशासन ने एक युद्ध इराक, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन के करोड़ों लोगों पर थोपा है, उसी तरह उसने एक युद्ध अमेरिका के भीतर ही अमेरिकी मजदूर वर्ग और आम जनता के ख़िलाफ छेड़ रखा है, आजादी के सभी संजीदा हिमायतियों, अश्वेतों, अरब मूल के लोगों, मुलैटो और चिकानो लोगों के ख़िलाफ छेड़ रखा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद एक ऐसी मानवद्रोही ताकत है जो सिर्फ़ मध्य–पूर्व की आम जनता को ही नहीं, बल्कि अपने देश की आम जनता को भी तबाही–बरबादी के गड्ढे में धकेल रही है। यह पूरी दुनिया को बरबाद करके अपनी विशाल पूँजी के लिए मुनाफे की चरागाह में तब्दील कर देना चाहता है। इसकी सही जगह इतिहास का कूड़ेदान है। दुनिया भर के आम मेहनतकश, छात्र और नौजवान दुनिया को वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर नहीं बनने देंगे।

पूँजीवाद की नई गुलामी

आज अगर दिल्ली, बंगलोर, कोलकाता और मुम्बई जैसे महानगरों के मध्यवर्गीय नौजवानों का साक्षात्कार लिया जाय तो उनमें कइयों का सपना होगा कि वे अमेरिका जाएँ। वैश्विक मीडिया और हॉलीवुड की फ़िल्मों ने अमेरिका की छवि एक स्वर्ग जैसे ऐश्वर्यपूर्ण, तमाम सुख-सुविधाओं से लैस देश की बनाई है, जहाँ कोई “ग़रीब” नहीं, और अगर है, तो वो भी कार में चलता है। नतीजतन, अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों के मध्यवर्ग का स्वप्नदेश बन गया है-‘एवरीबाडी वॉण्ट्स टू फ्लाई टू अमेरिका’।

प्रधानमंत्री महोदय की अमेरिका-यात्रा

भारत का पूँजीपति वर्ग कोई कठपुतली दलाल या घुटनाटेकू पूँजीपति वर्ग नहीं है। वह सभी से सम्बन्ध रखकर अपना हित साधाने में माहिर है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि साम्राज्यवाद पर उसकी आर्थिक निर्भरता है, लेकिन यह निर्भरता किसी एक साम्राज्यवादी देश पर नहीं है बल्कि पूरे विश्व साम्राज्यवाद पर है। वह किसी एक पर निर्भर होकर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता पर ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता और इसलिए वह विश्व पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के अलग-अलग धड़ों पर अपनी आर्थिक निर्भरता के बीच इतनी कुशलता से तालमेल करता रहा है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता बरकरार रहे।