Category Archives: साम्राज्‍यवाद

प्रथम विश्वयुद्ध के साम्राज्यवादी नरसंहार के सौ वर्षों के अवसर पर

आज प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पश्चात फ़िर से इसके कारणों की जाँच-पड़ताल करना कोई अकादमिक कवायद नहीं है। आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और आज भी साम्राज्यवाद द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अनेकों युद्ध थोपे जा रहे हैं। इसलिये यह समझना आज भी ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्यों और किस तरह से युद्धों को जन्म देता है। वैसे तो हर कोई प्रथम विश्व युद्ध के बारे में जानता है लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे, इस बारे में बहुत सारे भ्रम फैले हुए हैं या फिर अधिक सटीक शब्दों में कहें तो फैलाये गये हैं। अनेकों भाड़े के इतिहासकार इस युद्ध को इस तरह से पेश करते हैं मानो यह कुछ शासकों की निजी महत्त्वाकांक्षा व सनक के कारण हुआ था। अधिकतर इसकी पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ग़ायब कर देते हैं

यूक्रेन विवाद के निहितार्थ

साम्राज्यवादी ताक़तें युद्धों को अपने हिसाब से चाहे जितना विनियमित व अनुकूलित करने की कोशिश करें, साम्राज्यवादी युद्ध के अपने तर्क होते हैं, ये साम्राज्यवादी हुक़ूमतों की चाहतों से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवादी तन्त्र के अपने अन्तर्निहित तर्क से पैदा होते हैं। विश्वयुद्ध की सम्भावना पूरी तरह निर्मूल नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी अगर मौटे तौर पर बात करें तो पहले की तुलना में कम प्रतीत होती हैं। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है, तब तक मानवता को युद्धों से निजात मिलना मुश्किल है। युद्ध होता ही रहेगा चाहे वह ‘हॉटवॉर’ के रूप में हो या ‘कोल्डवॉर’ के रूप में, गृहयुद्ध के रूप में, क्षेत्रीय युद्ध या फिर विश्वयुद्ध के रूप में क्योंकि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध।

गाज़ा में इज़रायल द्वारा जारी बर्बर जनसंहार के विरुद्ध देशभर में विरोध प्रदर्शन

इस सदी के बर्बरतम नरसंहार, यानी गाज़ा के नागरिकों पर जारी इज़रायल के हवाई हमलों के विरुद्ध दुनियाभर में विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत में बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े साथियों ने इसपर पहल लेने में अहम भूमिका निभायी और देश के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन आयोजित करने में आगे रहे।

ये खून बेकार नहीं जायेगा! इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कब्र अरब की धरती पर खुदेगी!

हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।

आर्कटिक पर कब्जे की जंग

इस तरह से यह साफ है कि ये सभी साम्राज्यवादी देश अपने साम्राज्यवादी हितों को लेकर बदहवास हो रहे हैं और कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे तो अमेरिका पर्यावरण को बचाने को लेकर और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को लेकर हमेशा ही नौटंकी करना रहता है लेकिन अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए सबसे पहले पर्यावरण का शत्रु बन जाता है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधनों के बँटवारे को लेकर हमेशा से ही साम्राज्यवादी देशों के बीच कुत्ता-घसीटी रही है। यही साम्राज्यवाद का चरित्र है। साम्राज्यवाद जो पूँजीवाद की चरम अवस्था है वह हमें बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं दे सकता। जब इसे मानवता की ही कोई चिन्ता नहीं है तो फिर पर्यावरण की चिन्ता का ही क्या मतलब रह जाता है। इस व्यवस्था का एक-एक दिन हमारे ऊपर भयंकर श्राप की तरह है। पर्यावरण की चिन्ता भी वही व्यवस्था कर सकती है जिसके केन्द्र में मानव हो न कि मुनाफा।

वियतनाम युद्ध और ओबामा के झूठ

वियतनाम युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सबसे बुरी यादों में से एक है। यह पूरे अमेरिकी जनमानस के लिए एक सदमा था जिसमें पहली बार साम्राज्यवादी अमेरिका को स्पष्ट तौर पर समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर करना पड़ा और दुम दबाकर भागना पड़ा। इसलिए, अगर अमेरिकी साम्राज्यवादी हमेशा से वियतनाम युद्ध की कड़वी सच्चाइयों को अपने झूठों से ढँकने और उस राष्ट्रीय अमेरिकी शर्म पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इन प्रयासों को अंजाम देने वाले राष्ट्रपतियों में मई महीने में अमेरिका “प्रगतिशील” अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा का नाम भी शुमार हो गया।

“विश्व शान्ति” के वाहक हथियारों के सौदागर

आम तौर पर यह माना जाता है कि युद्ध राजनीतिक कारणों से होते हैं तथा अधिकांशतः आत्मरक्षा/आत्मसम्मान हेतु लड़े जाते हैं। बुज़ुर्आ संचार माध्यमों के द्वारा व्यापक जनसमुदाय में इस धारणा की स्वीकृति हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है। युद्धाभ्यास, युद्धसामग्री की ख़रीद-फ़रोख़्त हथियारों के प्रेक्षण आदि जैसी सैन्य क्रियाओं को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोड़ते हुए शोषित-उत्पीड़ित जनता को गौरवान्वित करने हेतु प्रोत्साहित करने का कार्य पूँजीवादी भाड़े के भोंपू निरन्तर करते रहते हैं। परन्तु यह तथ्य स्पष्ट है कि पूँजीवाद की उत्तरजीविता को बरकरार रखने तथा अकूत मुनाफ़े की हवस ने दो महायुद्धों व 50 के दशक के बाद विश्व के बड़े भूभाग (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) पर चलने वाले क्रमिक युद्धों को जन्म दिया। द्वितीय विश्वयोद्धोत्तर काल में लड़े गये अधिकांश युद्ध साम्राज्यवादी आर्थिक हितों के अनुकूल ही रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अकूत सम्पदा की लूट के बाद यदि किसी को सर्वाधिक लाभ हुआ तो वे थीं हथियार निर्माता कम्पनियाँ! युद्ध सामग्री के वैश्विक व्यापार की विशेषता निरन्तर लाभ की मौजूदगी है। हथियारों का यह व्यवसाय सर्वाधिक लाभकारी है।

कद्दाफ़ी की सत्ता का पतनः विद्रोह की विजय या साम्राज्यवादी हमले की जीत?

कद्दाफ़ी की सत्ता का पतन किसी जनविद्रोह के बूते नहीं हुआ है। यह लीबिया में नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के बाद पैदा हुआ पूँजीवाद और पूँजीवादी शासक वर्गों के गठबन्धन का संकट था; यह कद्दाफ़ी की अधिक से अधिक गैर-जनवादी और तानाशाह होती जा रही सत्ता का संकट था; जिसका अन्त हमें एक ऐसे नतीजे के रूप में मिला है, जिसे जनता की जीत या विजय का नाम कतई नहीं दिया जा सकता है। लीबिया की जनता को अपने देश के मामलों का फैसला करने का हक़ है। लेकिन साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने उस प्रक्रिया को बाधित कर दिया है और एक रूप में यह प्रगति की रथ को पीछे ले गया है।

नार्वे के नरसंहार की अन्तःकथा

इस घटना ने एक बार फिर इस इतिहाससिद्ध तथ्य को फ़िर पुख़्ता किया है कि मज़हबी, नस्ली और सांस्कृतिक कट्टरपंथी आर्थिक कट्टरपंथ की ही जारज औलादें है। इतिहास और वर्तमान दौर में भी फ़ासीवादी ताक़तों के उभार ने यही साबित किया है।