Category Archives: साम्राज्‍यवाद

यमन पर हमला अरब के शेखों और शाहों की मानवद्रोही सत्ताओं की बौखलाहट की निशानी है

ग़ौरतलब है कि 1932 में इब्न सऊद द्वारा सऊदी राजतंत्र स्थापित करने और सऊदी अरब में तेल की खोज के बाद उसके अमेरिका से गँठजोड़ से पहले यमन अरब प्रायद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली देश था। सऊदी राजतंत्र के अस्तित्व में आने के दो वर्ष के भीतर ही सऊदी अरब व यमन में युद्ध छिड़ गया जिसके बाद 1934 में हुए ताईफ़ समझौते के तहत यमन को अपना कुछ हिस्सा सऊदी अरब को लीज़ पर देना पड़ा और यमन के मज़दूरों को सऊदी अरब में काम करने की मंजूरी मिल गई। नाज़रान, असीर, जिज़ान जैसे इलाकों की लीज़ ख़त्म होने के बावजूद सऊदी अरब ने वापस ही नहीं किया जिसको लेकर यमन में अभी तक असंतोष व्याप्त है। ग़ौरतलब है कि ये वही इलाके हैं जहाँ शेखों के निरंकुश शासन के खि़लाफ़ बग़ावत की चिंगारी भी समय-समय पर भड़कती रही हैं। यमन पर सऊदी हमले की वजह से जहाँ एक ओर यमन के भीतर राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा हुई है वहीं सऊदी अरब के इलाकों में भी बग़ावत की चिंगारी एक बार फिर भड़कने की सम्भावना बढ़ गई है।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

पेशावर की चीख़ें

पाकिस्तान और ऐसे ही कई मुल्कों में आतंकवाद दरअसल साम्राज्यवादी पूँजीवाद और देशी पूँजीवाद की सम्मिलित लूट की शिकार जनता के प्रतिरोध को बाँटने के लिए खड़े किये गये धार्मिक कट्टरपन्थ का नतीजा है। इस दुरभिसन्धि में जनता दोनों ही आतंक का निशाना बनती है चाहे वह धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद हो या फिर उसके नाम पर राज्य द्वारा किया जाने वाला दमनकारी आतंकवाद।

स्वयंसेविता, नोबल पुरस्कार की राजनीति और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक विरोध-पक्ष संगठित करने की मुहिम

नवउदारवादी नीतियों के अमल ने आज पिछड़े ग़रीब देशों में जो अभाव, दरिद्रता और दुखदर्द पैदा किया है उसने साम्राज्यवाद को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव करने की ज़मीन दी। उसने अनुदान की मदद से स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल फैलाया और उसके ज़रिये सुधारों के माध्यम से व्यवस्था के सताये हुए लोगों में स्वीकृति निर्मित करने का काम किया। साम्राज्यवादियों के इस ख़तरनाक कुचक्र को समझे बग़ैर हम बचपन बचाओ जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की भूमिका को नहीं समझ सकते। यानी जनता के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी से लोगों का ध्यान हटाना और जनान्दोलनों के बरक्स एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण करना। ज़ाहिर है, पूँजीवाद की सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय वामपन्थियों के कमजोर पड़ने के चलते यह भूमिका अब इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने अत्यन्त प्रभावी ढंग से अख़्ति‍यार कर ली है।

शार्ली एब्दो और बोको हरम: साम्राज्यवादी ताक़तों का दुरंगा चरित्र

हर तरह के धार्मिक कट्टरपन्थ का इस्तेमाल उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों, जनान्दोलनों और जन संघर्षों को कमज़ोर करने, बाँटने और विसर्जित करने के लिए करता आया है। साम्राज्यवाद द्वारा धार्मिक कट्टरपन्थ के व्यवस्थित इस्तेमाल की शुरूआत हमें आज से सौ वर्ष पहले ‘साइक्स-पीको’ समझौते और दूसरे विश्व युद्ध के बाद ट्रूमैन डॉक्ट्रिन के काल से देखनी चाहिए जिसके अनुसार यूरोपीय-अमेरिकी शक्तियाँ और प्रतिक्रियावादी खाड़ी के राजशाहियों और अमीरों द्वारा अरब विश्व में इस्लामी दक्षिणपन्थी ताक़तों को हथियार के तौर पर तैयार करने की योजना थी ताकि कम्युनिज़्म के प्रेत और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद के बढ़ते ख़तरे को रोका जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डीवाइट डी. आइजेनहावर ने व्हाइट हाउस के हॉल में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं का स्वागत किया था। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ और इण्टेलिजेंस सेवाओं ने दशाब्दियों तक ‘जेहादियों’ से लेकर नरमपन्थी इस्लामी समूहों को बढ़ावा दिया। अमेरिका के नेतृत्व में ही कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ अफ़गान जेहादियों पर भी खाड़ी की राजशाहियों और अमीरों ने ख़ज़ाने लुटाये। विश्व भर से जेहादी अफ़गान पहुँचने लगें। यह अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेंस्‍की ही था जिसने एक लाख से ज़्यादा जिहादियों के सामने अफ़गानिस्तान के वाम धड़े की सरकार के ख़िलाफ़ और सोवियत संघ को युद्ध में उलझाने के लिए खैबर दर्रे की एक पहाड़ी पर खड़ा हो एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में कुरान लिए ऐलान किया था ‘ये दोनों तुम्हें आज़ाद करेगें!’ राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफ़गान मुजाहिद्दीन के नेताओं का स्वागत व्हाइट हाउस में किया था और कहा था कि ‘ये हमारे राष्ट्र के संस्थापकों के नैतिक समतुल्य हैं’। गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे जेहादी भाड़े के टट्टुओं को वाशिंगटन और जेफ़रसन के महान व्यक्तित्व तक ऊँचा उठाया गया!

गहराते वैश्विक साम्राज्यवादी संकट के साये में जी20 शिखर सम्मेलन

सबसे पहले तो यह साफ़ कर लेना बेहद ज़रूरी है कि हम छात्रों-नौजवानों को इस बात से क्या मतलब है कि 20 देशों के मुखिया साथ मिलकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं और इससे हमारी ज़िन्दगियों पर क्या असर पड़ने वाला है? दरअसल, इस सम्मेलन में, जिसमें कि मोदी के साथ अन्य 19 लुटेरे शामिल हैं, उन सभी प्रश्नों पर चर्चा की गयी है, जो हमारी ज़िन्दगी के साथ बेहद करीबी से जुडे़ हुए हैं। पिछले करीब 8 वर्षों से साम्राज्यवादी संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़ रखी है, हालाँकि उसके पहले भी करीब तीन दशक से विश्व पूँजीवाद सतत् एक मन्द मन्दी का शिकार रहा था, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में टूटती रही थी। लेकिन 2007 से जारी आर्थिक संकट पिछले 80 वर्षों का सबसे भयंकर और अब तक का सबसे ढाँचागत संकट सिद्ध हुआ है। इससे कैसे उबरा जाये और विश्व-भर के मेहनतकश अवाम को कैसे और अधिक लूटा जाये, यही इस सम्मेलन का मूल मुद्दा था।

इबोला महामारी: प्राकृतिक? या साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की देन

इबोला के कारण आकस्मिक नहीं हैं बल्कि अफ़्रीका के सामाजिक-आर्थिक इतिहास में उसके कारण निहित हैं। उपनिवेशवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अफ़्रीका को पिछड़ा बनाया जाना और उसके बाद भी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और प्रकृति के दोहन ने ही वे स्थितियाँ पैदा की हैं, जिनका प्रकोप अफ़्रीका को आये दिन नयी-नयी महामारियों के रूप में झेलना पड़ता है। इबोला इन महामारियों की श्रृंखला में सबसे भयंकर साबित हो रही है। लेकिन निश्चित तौर पर, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यह आख़िरी महामारी नहीं साबित होगी। अफ़्रीका की जनता को समय रहते इस आदमखोर व्यवस्था की असलियत को समझना होगा और उसे उखाड़ फेंकना होगा।

ड्रोन हमले – अमेरिकी हुक्मरानों का खूँखार चेहरा

‘कण्ट्रोल रूम’ में बैठे आपरेटरों के लिए यह सब एक वीडियो गेम की तरह होता है। सामने खड़े इन्सानों को मारने की तुलना में कम्प्यूटर स्क्रीन पर दिखायी दे रहे ‘टारगेट’ को बटन दबाकर उड़ा देना कहीं आसान होता है। इसलिए हमले की क्रूरता और भी बढ़ जाती है। शादी, मातम, या अन्य अवसरों पर इकट्ठा हुए लोगों के भारी समूह एक बटन दबाकर उड़ा दिये जाते हैं। घरों में सो रहे लोगों को एक पल में मलबे के ढेर में मिला दिया जाता है। बसों-कारों में बैठी सवारियों की ज़िन्दगी का सफ़र किसी “आतंकवादी” के सवार होने के शक के आधार पर ख़त्म कर दिया जाता है। यहाँ तक कि अकसर हमले के बाद घायलों और मृतकों के पारिवारिक सदस्यों, आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तक को फिर से मिसाइल दाग कर निशाना बनाया जाता है।

इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

आईएस जैसे बर्बर इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन की अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों द्वारा पैदाइश और उनका पालन-पोषण कोई नयी बात नहीं है। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही कम्युनिज़्म और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद को मात देने के लिए अमेरिका इस्लामिक दक्षिणपन्थ के साथ गठजोड़ बनाता आया है जिसकी वजह से समय-समय पर वहाँ ऐसे इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन उभरते रहे हैं।

गाज़ा में इज़रायल की हार और आगे की सम्भावनाएँ

किसी हद तक फ़िलिस्तीनी जनता का भविष्य समूचे अरब क्षेत्र में जन मुक्ति संघर्ष के आगे बढ़ने के भविष्य के साथ भी जुड़ा है। आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता के नये दौर के गति पकड़ने का भी इस पर अनुकूल सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मुक्ति की मंज़िल अभी दूर है, पर इतना सिद्ध हो चुका है कि असीम सामरिक शक्ति के बूते भी एक छोटे से देश की जनता को ग़ुलाम बनाकर रख पाना मुमकिन नहीं। जनता अजेय होती है। आने वाले दिनों में भी फ़िलिस्तीन में ज़ायनवादी ज़ुल्म और अँधेरगर्दी जारी रहेगी, लेकिन इतना तय है कि हर अत्याचार का जवाब फ़िलिस्तीनी जनता ज़्यादा से ज़्यादा जुझारू प्रतिरोध द्वारा देगी। ज़ायनवादियों को आने वाले दिनों में कुछ महत्त्वपूर्ण रियायतें देने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। और देर से ही सही, फ़िलिस्तीनी जन जब निर्णायक विजय की मंज़िल के करीब होंगे तो उनके तमाम अरब बन्धु भी तब मुक्ति संघर्ष के पथ पर आगे क़दम बढ़ा चुके रहेंगे।