Category Archives: साम्राज्‍यवाद

फ़िलिस्तीन की जनता के बहादुराना संघर्ष ने एक बार फिर ज़ायनवादियों को धूल चटाई और पीछे हटने को मजबूर किया!

आज यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इंसाफ़ और आज़ादी के लिए फ़िलिस्तीन का संघर्ष अकेले उनका संघर्ष नहीं है। यह पूरी दुनिया में नस्लवाद और साम्राज्यवादी दबंगई के विरुद्ध शानदार लड़ाई का एक प्रतीक है। पूरी दुनिया का इंसाफ़पसन्द अवाम उनके पक्ष में बार-बार लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरता रहा है। साम्राज्यवादी ताकतों के अलावा भारत के संघी फ़ासिस्टों का झूठा और जहरीला प्रचार फ़िलिस्तीन के संघर्ष की बहुत ही उल्टी तस्वीर पेश करता है। जनता के इस ऐतिहासिक संघर्ष को आतंकवाद का रूप दे देता है। एक बड़ी आबादी फ़िलिस्तीन के संघर्ष को या तो जानती नहीं या फिर साम्राज्यवादी और संघियों के जहरीले प्रचार को जानती है। इसलिए फ़िलिस्तीन के संघर्ष की सच्चाई को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है।

साम्राज्यवादी ताकतों की छाया में अज़रबैजान और आर्मेनिया का युद्ध

अज़रबैजान ने उन्नत युद्ध तकनीक, सेना और तुर्की समर्थित सीरियन लिबरेशन आर्मी के दम पर आर्मेनिया पर 27 सितम्बर को युद्ध थोप दिया। यह युद्ध कॉकेशिया के काले पहाडों के भूभाग नागोर्नो काराबाख के लिए था। युद्ध में 5000 से अधिक लोगों की जान गई और हजारों लोग विस्थापित हुए। युद्ध 6 हफ्ते बाद आर्मेनिया के हार स्वीकार करने पर ही थमा। दोनों देश ने रूस की मध्यस्थता में शान्ति प्रस्ताव स्वीकार किया।

जमाल ख़शोज़ी की मौत पर साम्राज्यवादियों के आँसू परन्तु यमन के नरसंहार पर चुप्पी!

सऊदी अरब के खुफिया एजेंटों ने सऊदी अरब मूल के अमरीकन पत्रकार जमाल ख़शोजी को तुर्की के सऊदी अरब के कॉन्सुलेट में मार दिया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दरिया में बहा दिया। इसपर पश्चिमी जगत की मुख्यधारा मीडिया हाय तौबा करने में लगा हुआ है। यह बात समझ लेनी होगी कि ख़शोजी कोई जनपक्षधर पत्रकार नहींं था। कुछ समय पहले तक वह सऊदी अरब की सत्ता के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थक था। अमरीका में रहते हुए उसने अमरीका के ‘प्रगतिशील’ विचारों का प्रचार करना शुरू किया और पश्चिमी देशों के सरीखे ‘जनवाद’ को सऊदी अरब में लागू करने की बात कह रहा था। वह सऊदी अरब की राजशाही को मध्यकालीन रिवाजों को त्यागने की नसीहत ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के जरिये दे रहा था। हालाँकि उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वह बहुत कुछ जानता था और सऊदी अरब की सत्ता का पिट्ठू न रहकर राजशाही की मन्द आलोचना कर रहा था। वह दरबार के अन्दर ना होते हुए भी दरबार के बारे में बहुत कुछ जानता था।

साम्राज्यवादी लुटेरे युद्धों का खामियाज़ा भुगत रहे आम लोग

दुनिया को जनतंत्र और मानवता का पाठ पढ़ाने वाला अमरिका सीरिया में भी वही युद्ध-अपराध दोहरा रहा है जो उसने 1990 में इराक में किया था, जिसमें पाँच लाख बच्चे सिर्फ भूख से मर गए थे। एक रिपोर्ट के अनुसार इराक़ पर लगे प्रतिबंधों की वजह से 5,76,000 बच्चे मर गए थे। इज़राइल की हिफ़ा यूनिवर्सिटी के इराक़ मामलों के विशेषज्ञ अमितज़्यार बरम के अनुसार 1991 से 1997 के बीच 5 लाख इराक़ी कुपोषण, बचाव योग्य बीमारियों, दवाओं की कमी और प्रतिबन्धों की वजह से पैदा हुए अन्य कारणों के कारण मारे गए थे। इनमें से अधिकतर बूढ़े और बच्चे थे।

चिलकोट रिपोर्ट: च्यूँटी तक नहीं काटती

क्या किसी भी देश को एक दूसरे सम्प्रभु देश पर जबरन हमला करने का अधिकार सिर्फ इस बात से प्राप्त हो जाता है कि फलाँ देश के पास जानलेवा हथियार है। इस आधार पर तो सबसे पहले हमला अमेरिका और ब्रिटेन पर होना चाहिए, क्योंकि उनके पास रासायनिक ही नहीं बल्कि उससे भी कई गुना खतरनाक परमाणु और अन्य किस्म के हथियार हैं। दरसल इस तर्क का मकसद अमेरिकी-आंग्ल साम्राज्यवाद के एक विचलन को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए (जो दरअसल साम्राज्यवाद के तर्क को ही पुष्ट करता है और उसकी स्वाभाविक चेतस तार्किकता का अंग है) अरब देशों में दशकों से जारी उनके इस साम्राज्यवादी मुहिम को सवालों से परे करना है।

राष्ट्रवाद : एक ऐतिहासिक परिघटना का इतिहास और वर्तमान

उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।

ब्रिटेन का यू‍रोपीय संघ से बाहर जाना: साम्राज्यवादी संकट के गहराते भँवर का नतीजा

ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं।

अमरीकी चुनाव और ट्रम्प परिघटना

हमारा मकसद इस चुनाव के ज़रिये मौजूदा दौर को समझना है और अमरीका के राजनीतिक पटल पर मौजूद ताकतों का मूल्यांकन करना है। चुनाव के परिणामों में जाये बिना हम अपनी बात आगे जारी रखते हैं। यह मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फैलाये जा रहे नस्लवाद, मुस्लिम विरोध, शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर अमरीका को फिर से महान बनाने के नारों को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ट्रम्प के चुनावी प्रचार को अमरीका के टुटपुंजिया वर्ग और श्वेत वाईट कॅालर मज़दूरों के एक हिस्से ने ज़बरदस्त भावना के साथ फैलाया है।

पेरिस पर आतंकी हमला : आदमखोर साम्राज्यवाद की कीमत चुकाती जनता

फ्रांस वह पहला देश है जिसने फ़िलिस्तीन के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस प्रतिबन्ध के बावजूद जनता सड़कों पर उतरती है और उन्हें पुलिस के अत्याचारों को झेलना पड़ता है। कुछ दिनों पहले फिलिस्तीन पर चल रहे इज़राइल के हमले, वहाँ की ज़मीन पर अवैध कब्जे और मासूम बच्चों की मौत के ख़िलाफ़ शान्तिपूर्ण विरोध और बी.डी.एस. (बाईकॉट, डाइवेस्टमेंट और सैंक्शन) का समर्थन कर रहे 12 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। इतना ही नहीं फ्रांस के उच्चतम न्यायालय ने बी.डी.एस. का समर्थन कर रहे इन 12 कार्यकताओं के ख़िलाफ आपराधिक सज़ा को सही ठहराया। इन कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ भेदभाव प्रतिरोध क़ानून लगाया गया। इनका दोष इतना था कि ये टी-शर्ट पहन कर जिस पर बी.डी.एस. और ये लोग “लांग लिव पैलेस्टाइन, बायकॉट इज़रायल!” लिखा था, शान्तिपूर्वक तरीके से ‘सुपरमार्केट’ में लोगों के बीच अपना परचा बाँट रहे थे। परचे में लिखा थाः ‘इजराइल के उत्पादों को खरीदने का अर्थ होगा गाज़ा में अपराधों को वैध करार देना!’ इस अपराध के लिए उनपर मुकदमा चला और उन्हें 50,000 डॉलर जुर्माना भरना पड़ा। इस सज़ा ने बी.डी.एस. को अन्तरनिहित रूप से भेदभावपूर्ण बताया। यह घटना फ्रांस का इज़राइल को खुला समर्थन नहीं तो और क्या दर्शाती है? यदि रूस, ईरान या सूडान के प्रति बहिष्कार का कोई आन्दोलन हो तो वह फ्रांस में मान्य है लेकिन इज़रायल के ख़िलाफ कोई भी आवाज़ भेदभावपूर्ण करार दे दी जाती है जिसकी तुलना यहूदी-विरोध से की जाती है।

युद्ध, शरणार्थी एवं प्रवासन संकट पूँजीवाद की नेमतें हैं

इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन की वजह समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं जहाँ से आज विस्थापन सबसे अधिक हो रहा है। आँकड़े इस बात की ताईद करते हैं कि हाल के वर्षों में जिन देशों में साम्राज्यवादी दख़ल बढ़ी है वो ही वे देश हैं जहाँ सबसे अधिक लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है, मसलन सीरिया, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, इराक व लीबिया। पिछले डेढ़ दशक में इन देशों में अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी दख़ल से पैदा हुई हिंसा और अराजकता ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इस हिंसा में भारी संख्या में जानमाल की तबाही हुई है और जो लोग बचे हैं वे भी सुरक्षित जीवन के लिए अपने रिहायशी इलाकों को छोड़ने पर मज़बूर कर दिये गये हैं। अमेरिका ने 2001 में अफ़गानिस्तान पर तथा 2003 में इराक़ पर हमला किया जिसकी वजह से इन दो देशों से लाखों लोग विस्थापित हुए जो आज भी पड़ोसी मुल्कों में शरणार्थी बनकर नारकीय जीवन बिताने को मज़बूर हैं। 2011 में मिस्र में होस्नी मुबारक की सत्ता के पतन के बाद सीरिया में स्वतःस्फूर्त तरीके से एक जनबग़ावत की शुरुआत हुई थी जिसका लाभ उठाकर अमेरिका ने सऊदी अरब की मदद से इस्लामिक स्टेट नामक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन को वित्तीय एवं सैन्य प्रशिक्षण के ज़रिये मदद पहुँचाकर सीरिया के गृहयुद्ध को और भी ज़्यादा विनाशकारी बनाने में अपनी भूमिका निभायी जिसका नतीजा यह हुआ है कि 2011 के बाद से अकेले सीरिया से ही 1 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें से 40 लाख लोग तो वतन तक छोड़ चुके हैं।