Category Archives: शिक्षा स्‍वास्‍थ्य और रोजगार

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा पर कॉरपोरेट पूँजी के शिकंजे को क़ानूनी जामा पहनाने की कवायद

नयी शिक्षा नीति-2020 भेदभावपूर्ण दोहरी शिक्षा प्रणाली को ख़त्म कर न्याय और समानता पर आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू करने के नाम पर न सिर्फ़ महँगे निजी स्कूलों के शोषणकारी जाल को बनाये रखता है बल्कि उसे और ज्यादा मजबूत बनाता है। शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क करने की जगह पीपीपी मॉडल के तहत इसे भी मुनाफ़े के मातहत कर दिया गया है। शिक्षा नीति बात तो बड़ी-बड़ी कर रही है किन्तु इसकी बातों और इसमें सुझाये गये प्रावधानों में विरोधाभास है। यह नीति शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को उन्नत करने की बात कहती है किन्तु दूसरी तरफ़ दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए सरकार की ज़िम्मेदारी को ख़त्म करने की बात कहती है।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’: लफ़्फ़ाज़ि‍यों की आड़ में शिक्षा को आमजन से दूर करने की परियोजना

नयी शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद उच्च शिक्षा के हालात तो और भी बुरे होने वाले हैं। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफ़वाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई इत्यादि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी पद्धति के अनुसार ढालने के प्रयास थे। अब विदेशी शिक्षा माफ़ि‍या देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे। शिक्षा के मूलभूत ढाँचे की तो बात ही क्या करें यहाँ तो शिक्षकों का ही टोटा है। केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में क़रीब 70 हजार प्रोफ़ेसरों के पद ख़ाली हैं।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

फ़ासीवादी मोदी राज में विकराल होती बेरोज़गारी

हर साल 2 करोड़ रोज़गार पैदा करने का सपना दिखाकर सत्ता में आयी मोदी सरकार अब रहे-सहे रोज़गार के अवसरों को भी निगलती जा रही है। देश की जनता की मेहनत से खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर को औने-पौने दामों में अपने आकाओं को सौंप रही है। 3 मार्च 2020 को लोकसभा में वित्त-राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया कि सरकार 28 सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी बेचने की सैद्धान्तिक मंज़ूरी दे दी गयी है। जिसमें ऐसी भी कम्पनियाँ हैं जो सालों से फ़ायदे में थीं और हर साल करोड़ों रुपये टैक्स के रूप में सरकार को देती भी थीं। आने वाले दिनों में छँटनी की मार सार्वजनिक और निजी दोनों ही सेक्टर में तेज़ होने वाली है।

कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी

सरकारों की चौकसी और बेहतर सार्वज‍निक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत इस तरह के संक्रमण को महामारी में तब्दील होने से रोका जा सकता था। परन्तु नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में दुनिया के तमाम मुल्क़ों में बेतहाशा निजीकरण के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था लचर हो चुकी है जिसकी वजह से इस बीमारी की रोकथाम उचित ढंग से नहीं हो सकी। तमाम देशों की सरकारों ने भी इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए सही समय पर चौकसी नहीं दिखायी। साम्राज्यवादी लूट की बदौलत विलासिता के शिखर पर बैठे अमेरिका तक में कोरोना वायरस के परीक्षण के लिए किट और N95 फ़ेसमास्क पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो सके जिसकी वजह से वहाँ इस बीमारी को फैलने से नहीं रोका जा सका।

‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश के 1% लोग देश की 73% सम्पत्ति पर कब्जा करके बैठे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति में 16000 गुना की वृद्धि हुई है, विजय माल्या और नीरव मोदी जो 9000 करोड़ और 11000 करोड़ रुपये लोन लेकर विदेश भाग गये। पनामा और पैराडाइज़ पेपर के खुलासे के बाद सरकार की नंगयी साफ तौर पर जगजाहिर हो गयी कि इनका मकसद काला धन लाना नहीं उसे सफ़ेद धन में तब्दील करना है। इस साल रिकॉर्ड ब्रेक करते हुए सरकार ने एनपीए के मातहत 1,44,093 करोड़ रुपये माफ़ कर दिया। एक तरफ धन्नासेठों-मालिकों के लिए पलकें बिछाकर काम किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कश्मीर से तूतीकोरिन तक जनता के प्रतिरोध को डंडे और बन्दूक के दम पर दबाया जा रहा है। छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित, महिलाएँ सब पर चौतरफा हमला किया जा रहा है। 2 करोड़ नौकरियाँ हर साल देने का वादा, नमामि गंगे में 7000 करोड़ रुपये खर्च किये जाने, 2019 तक सबको बिजली जैसे लोकलुभावन वायदों की हकीकत सबके सामने खुल रही है। अच्छे दिन आये पर धन्नासेठों के लिए, आम जनता की हालात बद से बदतर ही हुई है।

बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को बेचने का षड्यंत्र

यह बात भी उतनी ही सच है कि ज्यादतर निजी शिक्षण संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहींं कराते। एक तरफ बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को निजी विश्वविद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह खुलते रहे वहीं सरकारी विश्वविद्यालयों की हालत बद से बदतर होती रही। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 677 विश्वविद्यालय है जिनके अन्तर्गत करीब 37,204 कॉलेज है। लेकिन वास्तविकता में इनमे से ज्यादातर सिर्फ डिग्री देने वाले संस्थान भर है। एक हालिया सर्वे के अनुसार सिर्फ 18 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी कर पाने के लायक है वहीं केवल 5 प्रतिशत अन्य विषयों के स्नातक छात्र नौकरी करने के लायक है। देशभर के विश्वविद्यालयों में करीब 65000 शिक्षकों के पद खाली हैं। राज्य विश्वविद्यालय की बात छोड़ भी दें तो देश के सैंतालीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 47 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं। यहाँ तक की आईआईटी जैसे संस्थानों में भी करीब 40 प्रतिशत पद खाली हैं। ऐसे वक़्त में जब उच्च शिक्षा पर सरकारी खर्चे बढ़ाने की जरूरत है उस वक्त सरकार शिक्षा से विनिवेश की तैयारी कर रही है।

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार भारत बेरोजगारी दर में एशिया में शीर्ष पर

इसी साल फरवरी महीने में भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र रेलवे द्वारा 89,409 पदों के लिए रिक्तियाँ निकाली गयीं, जिसके लिए 2.8 करोड़ से भी अधिक आवेदन प्राप्त किये गये। मतलब हर पद के लिए औसतन 311 लोगों के बीच मुकाबला होगा। आवेदन भरने वालों में मैट्रिक पास से लेकर पी.एच.डी. डिग्री धारक तक लोग मौजूद थे। आवेदकों की उम्र 18 साल से लेकर 35 साल के बीच है, अर्थात् एक पूर्ण युवा और नौजवान आबादी। उपरोक्त संख्या अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भारत में बेरोजगारी का आलम क्या है। यह सरकार द्वारा किये गये हर उस दावे को झुठलाने के लिए काफी है जिसमें वह दावा करती है कि उसने देश में रोजगार पैदा किया है। साथ ही यह सरकार की मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं की पोल भी खोल कर रख देती है। यह कोई ऐसी पहली घटना नहींं है। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में चपरासी के 315 पदों के लिए 23 लाख आवेदन भरे गये थे, वहीं पश्चिम बंगाल में भी चपरासी और गार्ड की नौकरी की लिए 25 लाख लोगों ने आवेदन भरा था। दोनों ही जगह स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पीएचडी डिग्री धारक लोग भी उस भीड़ में मौजूद थे। ऐसे तमाम और भी कई उदाहरण हैं जो देश में बेरोजगारी की तस्वीर खुलेआम बयाँ करते हैं।

‘पहाड़ों में जवानी ठहर सकती है’, बशर्ते…

कहते हैं कि ‘पहाड़ों में पानी और जवानी ठहर नहीं सकती’। यह कहावत पहाड़ के दर्द को बताती है। इसी ‘दर्द’ ने पहाड़ की जनता को अलग राज्य बनाने के संघर्ष के लिए उकसाया। लेकिन राज्य बनने के बाद भी जिन कारणों से पहाड़ की जनता की सारी उम्मीदें, आकांक्षाएँ टूटी हैं उन कारणों की पड़ताल किये बिना उत्तराखण्ड राज्य में किसी भी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अलग राज्य बनने के सत्रह वर्षों के दौरान जिस तरह पूँजी का प्रवेश, कॉरपोरेटों, भू-खनन माफियाओं की पहुँच बढ़ी है, उसने पूरे पहाड़ की जैव विविधता, पर्यावरण, नदियों, खेतों, वनों-बगीचों को तबाह कर दिया है।

भाजपा सरकार का नया नारा: “बहुत हुई बेरोज़गारी की मार, तलो पकौड़ा, लगाओ पान!”

इस तमाशे के बादशाह तो भाजपा सरकार के मुखिया हैं जिन्होंने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्ट उप इंडिया’ जैसे जुमलों का खूब बड़ा गुब्बारा फुलाया और उसकी हवा निकल जाने पर मेहनतकश अवाम को पकौड़े तलने और भीख माँगने की हिदायत दे रहें हैं। हाल ही में त्रिपुरा के चुनाव जीतने के बाद वहाँ के मुख्य मंत्री बिप्लब देव भी प्रधान सेवक के पदचिह्नों पर चलते हुए वहाँ के युवाओं को प्रवचन देते हुए कह रहे हैं कि सरकारी नौकरी के पीछे भागने की बजाये अगर युवा पान की दूकान लगाए तो 10 साल में उनके खाते में 5 लाख रुपये जमा हो जाएँगे।