एक ऐसे समाज में जिसमें पैसे की ताकत सबसे बड़ी ताकत है, जिसमें लालच, लोभ और मुनाफे का ही राज हो, वहाँ जन लोकपाल की अभ्रष्टीयता पर ऐसा दिव्य विश्वास क्यों? जन लोकपाल को नहीं ख़रीदा जा सकता, वह भ्रष्ट नहीं होगा, वह लालच-लोभ के वशीभूत नहीं होगा, या कारपोरेट घरानों की ताकत के आगे घुटने नहीं टेक देगा, इसकी क्या गारण्टी है? जब ऐसे जन लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति के प्रस्तावित सदस्य तक आज बिक रहे हैं, तो जन लोकपाल क्यों नहीं बिक सकता? सन्दर्भ आप समझ गये होंगे। न्यायपालिका में पोर-पोर तक में समाये भ्रष्टाचार के बारे में आज सभी जानते हैं। और यह जिला मजिस्ट्रेट के स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक में मौजूद है। एक पूँजीवादी समाज में जहाँ भौतिक प्रोत्साहन ही सबसे बड़ा प्रोत्साहन है, वहाँ हर चीज़ बिक सकती है। ऐसे में, जन लोकपाल के रूप में एक भस्मासुर ही पैदा होगा और कुछ नहीं।