Category Archives: बाल श्रम

सवाल की तरह खड़ी है हक़ीक़त

विदर्भ की गर्मी और आठ फुट की झुग्गियों में गुज़र करती यह आबादी जिसमें बच्चे भी शामिल हैं, सुबह से शाम तक काम करते देखे जा सकते हैं। अधिकांश परिवारों में महिलाएँ और बच्चे भी काम करते हैं। अधिकतर मज़दूर 40 से कम उम्र के हैं और अपने बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं परन्तु न तो आस-पास कोई सरकारी स्कूल है और न ही क्रेच की सुविधा। कुछ बड़े बच्चे माँ-बाप के साथ ही काम पर भी लग जाते हैं। गर्भवती महिलाओं को न तो किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधा की व्यवस्था है और न ही उनको आँगनबाड़ी आदि की जानकारी। इन मज़दूरों के आश्रित माता-पिता दूर इनके पैतृक निवास पर ही रहते हैं और उनके देख-रेख की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं के कन्धों पर होती है। केन्द्र सरकार की न्यूनतम मज़दूरी मानक के अनुसार इस सर्वेक्षण के समय अकुशल मज़दूर की मज़दूरी दर 207 रुपये प्रतिदिन और कुशल की 279 रुपये प्रतिदिन थी। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्धा केन्द्र सरकार द्वारा मज़दूरी के जोन ‘ग’ में स्थित है। मज़दूरों से पूछे जाने पर पता चला की अकुशल मज़दूर को रुपये 200 और कुशल को 350 से 400 रुपये तक मज़दूरी मिलती है जो सरकारी मानक के आसपास ही ठहरती है, परन्तु महीने में बमुश्किल से 20 दिन ही काम मिल पाने के कारण आमदनी बहुत कम है।

मानवद्रोही-मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का शिकार बनता मासूम बचपन

इस व्यवस्था में बच्चों की व्यापक आबादी का भविष्य अंधकारमय है यदि आप दिल से युवा हैं और चाहते हैं कि बच्चों को बचाया जाये तो इस मानवद्रोही व्यवस्था को जल्द को जल्द बदलने की मुहिम में जुड़ना होगा। इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने में प्रगतिशील व परिवर्तनकामी ताकतों को साथ आना होगा।

बच्चो को बचाओ! सपनों को बचाओ!

भारत में बच्चों की स्थिति बहुत ही ख़तरनाक है। यहाँ डेढ़ करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो बीड़ी, कालीन, कपड़ा उद्योग तथा खनन जैसे खतरनाक उद्योगों में काम करते हैं। उनकी आयु सीमा 5 से 14 वर्ष के बीच की है। इन ख़तरनाक उद्योगों में पैदा होने वाली गर्द, गन्ध, गैसें उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालती हैं। बीड़ी बनाने, कालीन बुनने, कपड़ों, चूड़ी, काँच के बर्तन आदि की कटाई-रंगाई, खनन, गाड़ियों के ग़ैराज, चाय की दुकानों, ढाबों आदि में बड़े पैमाने पर बच्चों से काम लिया जाता है। हालाँकि ग़ैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक यह आँकड़ा ढाई करोड़ तक जाता है।

मज़दूरों के बच्चों को लीलती पूँजीवादी व्यवस्था

मुनाफ़े की हवस में पगलाया यह समाज इंसानी ख़ून का प्यासा है! औरतों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने से भी उसे जब सन्तोष नहीं होता तो वह उन्हें बेचने, उनके शरीर को नोचने-खसोटने और उनके अंगों को निकालकर, उनका ख़ून निकालकर बेच देने की हद तक गिर जाता है। निठारी एक चेतावनी थी-पूरी इन्सानियत के लिए– इसने फ़िर से हमें चेताया था कि इन्सानियत को बचाना है तो पूँजीवाद का नाश करना ही होगा! बच्चों की गुमशुदगी की लगातार बढ़ती घटनाएँ एक बार फ़िर याद दिला रही हैं कि ग़रीबों और मेहनतकशों के ज़िन्दा रहने की शर्त है समाज के इस ढाँचे की तबाही!

बाल मजदूरों के खून से सना विकास का यह चकाचौंध

बाल मजदूरों को आज होटलों, एक्सपोर्ट घरों, भट्ठों, घरेलू नौकरी एवं अनेक ऐसे ही कामों से मुक्त करवाना इसका हल नहीं है । इसका प्रमुख कारण है आर्थिक असमानता, श्रम का शोषण, मजदूरों के सम्मुख कार्यों की ऐसी उपस्थिति जिसमें वह चयन नहीं करते बल्कि वह बेचने के लिए खुद को प्रस्तुत करते है । । शोषण ने श्रमिकों से शिक्षा, चिकित्सा, आवास सभी कुछ छीन लिया है, उनके सामने हमेशा एक यक्ष प्रश्न होता है, जिन्दा रहने की न्यूनतम शर्त, भोजन और वह भी उतना ही जिससे वह काम करने लायक बने रह सके । यह प्रमुख प्रश्न पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था की देन है और इसकी नियति भी । अत: आज अगर बाल मजदूरों को महज इन कामों से हटा दिया जाये तो ये पुन: उसी तरह के किसी काम में वापस आयेंगे क्योंकि इनके पास जीवित रहने के लिए और कोई विकल्प ही नहीं है ।

बाल श्रमिकों के हालात पर साम्राज्यवादियों का स्यापा

क्या इन बच्चों को इन परिस्थितियों में काम करने का शौक होता है ? क्या इनके माँ–बाप को इनसे कोई प्यार या लगाव नहीं होता, जो वे इन्हें खेलने–कूदने की बजाय चन्द रुपयों के लिए इस जोखिम भरी जिन्दगी में डाल देते हैं ? क्या इन बच्चों की कमाई पर इनके माँ–बाप आराम की जिन्दगी बसर करते हैं ? इन सवालों के जवाब के लिए हमें उद्योगों या घरों में काम पर लगे इन बच्चों की आर्थिक–सामाजिक पृष्ठभूमि को देखना होगा। ये वे बच्चे हैं जिनके माँ–बाप और पूरा परिवार दिन–रात हाड़–तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी नहीं जुटा पाते। जिस समय उन्हें बच्चों को स्कूल भेजना चाहिए, वे उन्हें फैक्ट्री, होटलों, ढाबों आदि के हवाले कर देते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो उनके लिए जी पाना भी मुश्किल हो जाएगा। वहीं दूसरी ओर इन नन्हें हाथों की मेहनत पर उद्योगों के मालिक मुनाफा पीटते हैं और दुनिया भर के ऐशो–आराम जुटाते हैं। समय–समय पर हमारी सरकार, आईएलओ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे पाखण्डी बच्चों के शोषण, महिलाओं के उत्पीड़न और दलितों के उत्पीड़न पर स्यापा करके अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। अगर हम इन अन्तरराष्ट्रीय मंचों को करीब से देखें तो पाएँगे कि इन संगठनों को फण्डिंग वही साम्राज्यवादी शक्तियाँ दे रही हैं जिनके संरक्षण में तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, कारपोरेशन, आदि अपनी ‘स्वेट शॉप्स’ में बच्चों की धमनियों और शिराओं से एक–एक बूँद रक्त निचोड़ लेने का काम धड़ल्ले से करती हैं। इनके तहत काम करने वाले गैर–सरकारी संगठन, एनजीओ, आदि जो इन्हीं के टुकड़ों पर पलने वाले पालतू जीव हैं, बाल श्रम पर बड़े–बड़े बुलक्के टपकाते हैं ताकि उनके आकाओं की कारस्तानी से असंतुष्ट जनता उनका तख्ता न पलट दे।