Category Archives: साहित्‍य और कला

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – दुख के कारणों की तलाश का कलाकार

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कला की मुख्य प्रवृत्ति पूँजीवादी नज़रिये पर तीखा प्रहार करना है। अपने नाटकों और कविताओं में इन्होंने शिक्षात्मक पहलू के साथ ही कलात्मकता के बेहतरीन मानदण्डों को बरकरार रखा। अपने नाटकों में ब्रेष्ट ने दुखों का केवल बख़ान करके ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि उनके कारणों की गहराई तक शिनाख़्त भी की। ब्रेष्ट ने अपने नाटकों में रूप और अन्तर्वस्तु दोनों ही दृष्टियों से एक अलग सौन्दर्यशास्त्र का अनुपालन किया, जिसे इन्होंने ‘एपिक थिएटर’ का नाम दिया।

पीट सीगर (1919-2014) – जनता की आवाज़ का एक बेमिसाल नुमाइन्दा

सीगर 1990 के दशक में भी अपनी काँपती आवाज़ में जनसभाओं और आन्दोलनों में गाते रहे। उनकी आवाज़ में एक ऐसी ईमानदारी, जीवन के प्रति भरोसा और प्यार, इंसानियत के प्रति विश्वास और साथीपन झलकता था कि लगभग हमेशा ही समूची भीड़ उनके साथ गाने लगती थी। 2000 के दशक में भी वयोवृद्ध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सांगीतिक सक्रियता को छोड़ा नहीं। यहाँ तक कि उन्होंने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन में भी गाया।

कविता – लेनिन जिन्दाबाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem – The Unconquerable Inscription / Bertolt Brecht

तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा,
अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो!

चिनुआ अचेबे को श्रृद्धांजलि

बकौल चिनुआ अचेबे उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये अफ्रीका की सांस्कृतिक विभिन्नताओं को इसलिए चित्रित किया, क्योंकि उसकी मौजूदगी को विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के बरक्स दिखाया जा सके। अपने एक निबन्ध ‘द रोल ऑफ़ ए राइटर इन न्यू नेशन’ में उन्होंने ज़ोर दिया कि दुनिया को इस बात का एहसास दिलाना ज़रूरी है कि अफ्रीकियों के पास भी अपनी सभ्यता-संस्कृति है। हालाँकि उनके लेखन में और विचारों में कई जगह विरोधाभास मिलते हैं, लेकिन सत्तावाद और निरंकुशता का विरोध और जनपक्षधरता उनकी विशेषता रही। आह्वान की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि!

अमीरी बराका को श्रृद्धांजली

अफ्रीकी-अमेरिकी जनता और दुनियाभर के मेहनतकशों एवं शोषितों-उत्पीड़ितों के मुक्ति संघर्षों को अपनी कलम से आवाज़ देनेवाले लेखक, कलाकार, नाटककार, गीतकार, कवि और प्रखर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी तथा कार्यकर्ता अमीरी बराका का पिछले दिनों 9 जनवरी 2014 को निधन हो गया। उनके लिए कला समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का हथियार थी। वह कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि जनता के संघर्षों के भागीदार थे। अमीरी बराका (ली रॉइ जोन्स) का जन्म 7 अक्टूबर 1934 को अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित न्यूयार्क शहर में हुआ। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1960 के दशक में काली जनता के सिविल राइट मूवमेण्ट में शिरकत से की। इस पूरे दौर में वह काले राष्ट्रवाद के हिमायती थे। 1970 के दशक के मध्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उनका मोहभंग हो गया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद उनके चिन्तन का आधार बन गया।

ज़ख़्म

बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे “गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या “अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाती हैं। दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा कर्फ्यूग्रस्त हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम.काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की ख़बरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिये पर ही छाप देते हैं। हाँ मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में ख़बर छपती है, नहीं तो सामान्य।

कविता : एस.ए.* सैनिक का गीत / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : Song of the S.A. Man / Bertolt Brecht

और मार्च करते हुए मेरे साथ था शामिल
जो था उनमें सबसे मोटा
और जब मैं चिल्लाया ‘रोटी दो काम दो’
तो मोटा भी चिल्लाया।
टुकड़ी के नेता के पैरों पर थे बूट
जबकि मेरे पैर थे गीले
मगर हम दोनों मार्च कर रहे थे
कदम मिलाकर जोशीले।
मैंने सोचा बायाँ रास्ता ले जायेगा आगे
उसने कहा मैं था ग़लत
मैंने माना उसका आदेश
और आँखें मूँदे चलता रहा पीछे।

उद्धरण

क्रान्ति शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से ही काँपने लगते हैं। यही वह अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जागृत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को ग़लत रास्ते पर ले जाती है। ये परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं। क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी तौर पर ओत-प्रोत रहनी चाहिए, जिसे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने को संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव बदलती रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि यह आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम इन्‍क़लाब ज़िन्दाबाद का नारा ऊँचा करते हैं।

सियाह हाशिये

आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया- सिर्फ़ एक दुकान बच गयी, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ थाः “यहाँ इमारतसाज़ी का सारा सामान मिलता है।’

हिटलर के तम्बू में व गुजरात – 2002

अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छाँट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े क़ानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर ख़ून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।