बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे “गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या “अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाती हैं। दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा कर्फ्यूग्रस्त हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम.काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की ख़बरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिये पर ही छाप देते हैं। हाँ मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में ख़बर छपती है, नहीं तो सामान्य।