Category Archives: साहित्‍य और कला

ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं

धुएँ से कजलाये

कोठे की भीत पर

बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी

राम-कथा व्यथा की

कि आज भी जो सत्य है

लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!

तसवीरें बनाने की

इच्छा अभी बाक़ी है–

कलाकार का सामाजिक दायित्व क्या है?

सच्चे कलाकार को जनता के दुखों को अपने कैनवास, सेल्यूलोईड या संगीत में उतार लाना होगा। इस कथन में ही यह निहित है कि मौजूदा बाज़ार पर चलने वाली व्यवस्था में एक कलाकार को अपनी कलाकृति को बाजारू माल नहीं बल्कि जनपक्षधर औज़ार बनाना होगा। आज जिस समाज में हम जी रहे हैं वह मानवद्रोही और कलाद्रोही है और नैसर्गिक तौर पर कोई भी कलाकार इस समाज की प्रभावी विचारधारा से ही निगमन करता है परंतु उसकी कला उसकी पूँजीवादी विचारधारा के नज़रिये के विरोध में रहती है। कला इसलिए ही एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण पर टिके मौजूदा समाज के खिलाफ़ विद्रोह के साथ ही संगति में रहती है। आज जब देश में फासीवादी सरकार जनता के हक अधिकारों को अपने बूटों तले कुचल रही है तो क्या इन मसलों पर कलाकारों द्वारा एक जनपक्षधर विरोध देश में उठता दिख रहा है? नहींं। हालाँकि कलाकार भी इन सभी मुद्दों से अलहदा नहींं हैं। इस सवाल पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।

कहानी : न्याय की दहलीज़ पर / फ्रांज़ काफ़्का Story : Before the Law / Franz Kafka

न्याय की दहलीज़ पर एक सन्तरी खड़ा है। इस सन्तरी के पास देहात से एक आदमी पहुँचता है, और न्याय के समक्ष दाखिले की इजाज़त मांगता है। पर सन्तरी कहता है कि वह उस वक्त उसके दाखिले को मंज़ूर नहीं कर सकता है। आदमी इस पर गौर करता है और फिर पूछता है क्या बाद में उसे अन्दर जाने की अनुमति मिल सकती है? “ऐसा मुमकिन है”, सन्तरी कहता है, “पर इस वक्त नहीं” चूँकि द्वार खुला है, बदस्तूर, और सन्तरी द्वार के किनारे खिसक गया है, वह आदमी द्वार से अन्दर झांकने के लिए झुकता है। यह देख सन्तरी हँसता है और कहता है, “अगर तुम्हें इतनी ही बेसब्री है, तो जाओ, मेरे मना करने के बावजूद अन्दर जाने की कोशिश कर ही लो, पर खयाल रखना, मैं ताकतवर हूँ, और सारे सन्तरियों में सबसे अदना हूँ।

कविता : कुण्डलाकार विचार / कात्यायनी

फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?
क्यों न जिएँ जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।
सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।

कविता : हक़ीकत / रॉक डाल्टन

चार घण्टों तक यातना देने के बाद
अपाचे तथा दो अन्य पुलिसवालों ने
क़ैदी को होश में लाने के लिये
उस पर बाल्टी भर पानी फेंकते हुए कहा:

पाठक मंच, जनवरी-फरवरी 2018 – हमारी कैसी आज़ादी? – गुरदास सिधानी

बिच्छुओं के डंक,
साँपों ने अपनी कुण्डलिया छोड़ दी
तो बिच्छुओं ने कुर्सी को आ घेरा
फर्क क्या रहा
साँप भी डसते थे
डंक बिछुओं ने भी मारने
शुरू कर दिए
साँपों ने अपना जहर उगला
बिच्छुओं ने भी नहीं हटाई नजरें उस पर से

सावित्रीबाई फुले की चार शीषर्कविहीन कविताएँ

“ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए खाली न बैठो और जा कर शिक्षा लो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बन्धन तोड़ो”

कविता : कवि का दायित्व / पाब्लो नेरुदा Poem : The Poet’s Duty / Pablo Neruda

उसके लिये जो कोई भी इस शुक्रवार की सुबह
समुद्र को नहीं सुन रहा है, उसके लिये जो भी घर या दफ्तर के
दड़बे में कैद है, कारखाने या स्त्री में
या गली या खदान में या सख्त जेल की कोठरी में:
उसके लिये मैं आता हूँ, और, बिना कुछ कहे या देखे,
मैं पहुँचता हूँ और खोलता हूँ उसके कैदखाने के दरवाज़े,
और शुरू होता है एक कम्पन, अनिश्चित और जिद्दी,
शुरू होता है बिजली का कड़कना

उद्धरण, जुलाई-अगस्‍त 2017

मानव श्रम तथा सृजनात्मकता का इतिहास मानव इतिहास से कहीं अधिक दिलचस्प और महत्वपूर्ण है। मनुष्य एक सौ वर्ष का होने से पहले ही मर जाता है , परन्तु उसकी कृतियाँ शताब्दियों तक अमर रहती हैं। विज्ञान की अभूतपूर्व उपलब्धियों तथा उसकी द्रुत प्रगति का यही कारण है  कि वैज्ञानिक अपने क्षेत्र विशेष के विकास के इतिहास की जानकारी रखते हैं । विज्ञान  तथा साहित्य में बहुत कुछ समान है : दोनों में प्रेक्षण, तुलना तथा अध्ययन प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। लेखक तथा वैज्ञानिक दोनों में कल्पना शक्ति तथा अन्तर्दृष्टि का होना आवश्यक है। मानव श्रम तथा सृजनात्मकता का इतिहास मानव इतिहास से कहीं अधिक दिलचस्प और महत्वपूर्ण है।