Category Archives: साहित्‍य और कला

प्रगतिशील साहित्य के युवा पाठकों से . . .

वह अपने को प्रगतिशील और जनवादी कहता है तो सिर्फ इसलिए कि आज साहित्य के बाज़ार में इसी ‘’प्रगतिशीलता’‘ और ‘‘जनवाद’‘ की कीमत है, इसलिए कि निर्वीर्य बुर्जुआ समाज ‘अन्त के दर्शन’ के अतिरिक्त अब और कोई भी नारा नहीं दे सकता, और इसलिए भी कि प्रबुद्ध और जागरूक पाठक आज भी प्रगतिशील माने जाने वाले साहित्य की तलाश करता रहता है। साथ ही, वह यह भी भली-भाँति समझता है कि आज भी अपने को वामपन्थी कहना ही साहित्य के इतिहास में स्थान पाने का पासपोर्ट है। वह प्रगतिशील और जनवादी लेखकों और जन संस्कृति कर्मियों के संगठन, संघ और मंच बनाता है, पर इन शब्दों का निहितार्थ तो दूर, शायद शब्दार्थ तक भूल चुका है।

नागार्जुन की जन्मशती के मौके पर…..

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है

नवारुण भट्टाचार्य की कविता

ज्वालामुखी के मुहाने पर
रखी हुई है एक केतली
वहीं निमन्त्रण है आज मेरा
चाय के लिए।
हे लेखक, प्रबल पराक्रमी कलमची
आप वहाँ जायेंगे?

जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ

नागार्जुन की काव्ययात्रा काफी विराट फलक लिये हुए है। बहुआयामी रूपों में वो हमारे सामने प्रकट होते हैं जिन पर विस्तार से बात कर पाना इस छोटे-से लेख में कदापि सम्भव नहीं है। तथापि हम विस्तार में जाने का लोभ संवरण करते हुए इतना ज़रूर कहेंगे कि उनकी कविताओं में, वे चाहे प्रकृति को लेकर हो या, अन्याय के विषयों पर लिखी गयी हों, सामाजिक असमानता, वर्ग-भेद, शोषण-उत्पीड़न, वर्ग-संघर्ष कभी भी पटाक्षेप में नहीं गया। बल्कि वह खुरदरी ज़मीन सदैव कहीं न कहीं बरकरार रही है, जिस परिवेश में वह कविता लिखी जा रही है। यही सरोकारी भाव नागार्जुन को जनकवि का दर्जा प्रदान करती है।

जनकवि ‘गिर्दा’ जिये रहेंगे

जनकवि गिरीश ‘गिर्दा’ ने गत 22 अगस्त को जब अन्तिम साँस ली तो जैसे उत्तराखण्ड आन्दोलन का समूचा संघर्ष एकबारगी समूचे उत्तराखण्डवासियों की आँखों के सामने फिर से प्रकट हो गया। सभी की पलकों पर आँसू, दिल में उदासी छा गयी थी, किन्तु सभी की जुबान पर ‘गिर्दा जिन्दाबाद’ ‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, गिर्दा तेरा नाम रहेगा’ जैसे इंकलाबी नारे तो गूंजे ही, समूचे राज्य में आज भी जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे लोगों-संगठनों के बीच गिरीश तिवारी यानी गिर्दा के लिखे-गाये गीत ग़मगीन वातावरण के बावजूद सुर्ख बुराँस के मौसम की तरह खिल उठे। यह है किसी व्यक्ति या रचना का जनता की पीड़ा, संघर्ष और सपनों से जुड़कर चलने की प्रतिध्वनि जन कोरस। यानी नयी समाज व्यवस्था के लिए नये जीवन मूल्यों की लड़ाई की विरासत का सच्चा सेनानी होने का अर्थ और आयाम।

उद्धरण

युवकों के सामने जो काम है, वह काफी कठिन है और उनके साधन बहुत थोड़े हैं। उनके मार्ग में बहुत सी बाधाएँ भी आ सकती हैं। लेकिन थोड़े किन्तु निष्ठावान व्यक्तियों की लगन उन पर विजय पा सकती है। युवकों को आगे जाना चाहिए। उनके सामने जो कठिन एवं बाधाओं से भरा हुआ मार्ग है, और उन्हें जो महान कार्य सम्पन्न करना है, उसे समझना होगा। उन्हें अपने दिल में यह बात रख लेनी चाहिए कि “सफलता मात्र एक संयोग है, जबकि बलिदान एक नियम है।”

15 अगस्त के मौक़े पर कुछ असुविधाजनक सवाल!

क्या प्रधानमन्त्री जी को पता है कि जब वे लालकिला की प्राचीर से भारतीय जन-गण को सम्बोधित कर रहे थे, उसके ठीक 24 घण्टा पहले अलीगढ़ में पुलिस इस देश की ‘जन’ पर गोलियाँ बरसा कर कइयों को लहूलुहान कर चुकी थी और तीन को मौत के घाट उतार चुकी थी। मारे गये किसानों की महज़ इतनी भर माँग थी कि ‘यमुना एक्सप्रेस वे’ के नाम जे.पी. समूह के लिए उनसे जो ज़मीन सरकार ने हथिया लिया है उसका उचित मुआवज़ा दिया जाये। बस इतनी सी बात।

उन्नीस सौ सत्रह, सात नवम्बर

मर रहा है रूसी साम्राज्य
शीत प्रसाद में सुनायी नहीं देती लहँगों की रेशमी सरसराहट
और न ही ज़ार की ईस्टर की प्रार्थनाएँ,
न ही साइबेरिया की ओर जाती सड़कों पर ज़ंजीरों का क्रन्दन…
मर रहा है, रूसी साम्राज्य मर रहा है…

अन्‍धकार है घना, मगर संघर्ष ठना है!

हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है ।
पंजों का कस बना हुआ है ।
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है ।
अन्धकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है ।

फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘इंतिसाब’

उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए ब़ाजुओं से संभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों11 से बहलते नहीं