प्रगतिशील साहित्य के युवा पाठकों से . . .
वह अपने को प्रगतिशील और जनवादी कहता है तो सिर्फ इसलिए कि आज साहित्य के बाज़ार में इसी ‘’प्रगतिशीलता’‘ और ‘‘जनवाद’‘ की कीमत है, इसलिए कि निर्वीर्य बुर्जुआ समाज ‘अन्त के दर्शन’ के अतिरिक्त अब और कोई भी नारा नहीं दे सकता, और इसलिए भी कि प्रबुद्ध और जागरूक पाठक आज भी प्रगतिशील माने जाने वाले साहित्य की तलाश करता रहता है। साथ ही, वह यह भी भली-भाँति समझता है कि आज भी अपने को वामपन्थी कहना ही साहित्य के इतिहास में स्थान पाने का पासपोर्ट है। वह प्रगतिशील और जनवादी लेखकों और जन संस्कृति कर्मियों के संगठन, संघ और मंच बनाता है, पर इन शब्दों का निहितार्थ तो दूर, शायद शब्दार्थ तक भूल चुका है।