Category Archives: सम्‍पादकीय

अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्धः प्रकृति, चरित्र और नियति

अण्णा हज़ारे का पूरा आन्दोलन वास्तव में मध्यम वर्गों के एक आत्मिक उभार के समान है। यह पूरा आन्दोलन व्यवस्था को कहीं भी कठघरे में खड़ा नहीं करता। यह अलग से भ्रष्टाचार को दूर कर देने का एक मसीहावादी, गैर-जनवादी, जन-विरोधी प्रतिक्रियावादी मॉडल पेश करता है, जो जनता से ज़्यादा प्रबुद्ध निरंकुश संरक्षक-नुमा नायकों पर भरोसा करता है। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के प्रावधानों से इसका पूरा चरित्र उजागर हो जाता है। इसमें मध्यम वर्गों की हिस्सेदारी की निश्चित वजहें थीं, और यह हिस्सेदारी भी राजनीतिक रूप से संलग्न, सचेत, संगठित और सक्रिय हिस्सेदारी नहीं थी, बल्कि एक मसीहा की अति-सक्रिय हिस्सेदारी के साथ टटपुंजिया असंलग्न, अचेत और निष्क्रिय हिस्सेदारी थी। यह भागीदारी देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के नाम पर जश्न मनाने का मौका ज़्यादा था और मीडिया इसमें पूरी मुस्तैदी से अपनी भूमिका निभा रहा था।

पश्चिम बंगाल : भारतीय वामपन्थ का संकट या संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवाद से खुले प्रतिक्रियावादी पूँजीवाद की ओर संक्रमण?

पश्चिम बंगाल में बीते विधानसभा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी)-नीत वाम मोर्चे की करारी हार के बाद जो दृश्य उपस्थित हुआ वह संशोधनवादी वामपन्थ ‘‘यानी, नाम में मार्क्‍सवादी, काम में पूँजीवादी’’ के पतन पर हमेशा ही उपस्थित होता है। पूरा मीडिया इसे वामपन्थ/मार्क्‍सवाद/कम्युनिज़्म के पतन की संज्ञा दे रहा था; खुले तौर पर पूँजीवादी (लोकतान्त्रिक!) अन्य पार्टियाँ भी यही गाना गा रही थीं। कुल मिलाकर, देश के पूँजीपति वर्ग की अगुवाई करने वालों ने हमेशा की तरह इस अवसर का पूरा लाभ उठाने की कोशिश की। 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने, 1990 में सोवियत संघ के पतन और 1976 के बाद चीन में ‘‘बाज़ार समाजवाद” का जुमला उछलने के बाद विश्व-भर के पूँजीवादी मीडिया ने भी यही उन्मादी शोर मचाया था कि यह मार्क्‍सवाद की पराजय है। यह बेहद नैसर्गिक है कि पूँजीवादी मीडिया ऐसा करे।

बजट 2011-2012 : पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा, पूँजीपतियों के लिए

प्रणब मुखर्जी अब बजट पेश करने की कला में माहिर हो चुके हैं। चिदम्बरम सख़्ती से सरकार की नवउदारवादी नीतियाँ प्रस्तुत करते थे। फालतू कम बोलते थे। मुखर्जी वही सारी नीतियाँ लागू कर रहे हैं, लेकिन वे अपने बजट भाषण में फालतू बातें इतनी बोलते हैं कि असल मुद्दे उनके बीच में खो-से जाते हैं। शायद इसीलिए चिदम्बरम को गृहमन्त्री बना दिया गया! क्योंकि वहाँ आवश्यकता से अधिक स्पष्टवादिता ही ज़्यादा काम आती है! वित्तमन्त्री को तो फालूदेबाज़ी में निपुण होना चाहिए। इस मामले में बाबू मोशाय का तजुरबा ज़्यादा काम आ रहा है!

अरब जनउभार के मायने

मौजूद अरब जनउभार अरब जनता के लिए सीखने की एक पाठशाला साबित होगा। इसलिए यह जनविद्रोह हर इंसाफपसन्द और साम्राज्यवाद से नफ़रत करने वाले इंसान के लिए ख़ुशी का सबब है। इसमें आम नौजवानों और स्त्रियों की ज़बरदस्त भागीदारी ख़ासतौर पर उम्मीद का संचार करती है। यह भविष्य के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है। निकट भविष्य में शायद साम्राज्यवाद इस अरब जनउभार से बस सिहरकर रह जाये, लेकिन वह भविष्य भी कोई शताब्दी दूर नहीं जब अरब एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका के साथ उन ज़मीनों में से एक बनेगा जहाँ जनता के बहादुर बेटे-बेटियाँ साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की कब्रें खोदेंगे। भारत के नौजवानों को भी मिस्र के नौजवानों से सीखने की ज़रूरत है। उन्हें भी अपने अन्दर अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ अपने दिलों में बग़ावत की ऐसी ही आग को जलाना होगा। कहीं ऐसा न हो कि जब निर्णय की घड़ी आये तो हम पीछे छूट जायें!

स्वयं एक भ्रष्टाचार है पूँजीवाद

अगर एक बार को यह मान भी लिया जाये कि कोई घोटाला-रहित पूँजीवाद सम्भव है तो भी पूँजीवादी व्यवस्था जिस रूप में मेहनतकश जनता को लूटकर अमीरज़ादों की तिजोरियाँ भरती है, वह एक भ्रष्टाचार है। यह एक ऐसा भ्रष्टाचार है जो पूँजीवादी संविधान और कानून-व्यवस्था द्वारा मान्यता-प्राप्त है। मुनाफा कमाने और पूँजी संचय करना या दूसरे शब्दों में कहें तो निजी सम्पत्ति खड़ी करने का अधिकार पूँजीवादी व्यवस्था के तहत एक मूलभूत अधिकार होता है। निजी मुनाफा कमाने की यह पूरी प्रक्रिया मज़दूरों के शोषण पर आधारित होती है। इसमें मज़दूर समस्त भौतिक सम्पदा का अपनी मेहनत के बूते उत्पादन तो करता है लेकिन उस पर उसका कोई अधिकार या नियन्त्रण नहीं होता है।

किस चीज़ का इन्तज़ार है और कब तक?

आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। इसके पास प्रगति की कोई सम्भावना-सम्पन्नता नहीं रह गयी है। वस्तुओं के व्यापक विश्व का सृजन करके भी यह बहुसंख्यक जनता को नर्क-सा जीवन दे रही है क्योंकि इसका मकसद बहुसंख्यक जनता का कल्याण, न्याय और समानता है ही नहीं। इसका एकमात्र लक्ष्य है लाभ! मुनाफा! किसी भी कीमत पर! इस मुनाफे की ख़ातिर पूरी दुनिया को साम्राज्यवादी युद्धों में धकेल दिया जाता है; अनाज को भूखे मरते लोगों के सामने गोदामों में सड़ा दिया जाता है; बच्चों और स्त्रियों का श्रम मण्डी में मिट्टी के मोल बिकता है; मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर होता जाता है; ग़रीब किसान उजड़ते हुए मुफलिसों की कतार में शामिल होते जाते हैं। यही वे नेमतें हैं जो पूँजीवाद आज हमें दे सकता है।

पूँजीवादी न्याय बेनक़ाबः हज़ारों निर्दोष नागरिकों के हत्यारे आज़ाद

जब पूँजीवादी राजसत्ता के सभी प्रमुख अंग पूँजी के हितों की सेवा में लगे हुए थे तो न्यायपालिका क्यों पीछे रहती। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने वॉरेन एण्डरसन और अन्य अभियुक्तों पर लगे आरोपों को धारा 304(II) से धारा 304 ए के तहत ला दिया। यानी कि वह धारा जो सड़क पर लापरवाही से वाहन चालन के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में लगाई जाती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अहमदी की इस सेवा से सभी अभियुक्तों को काफी राहत मिली क्योंकि पहले लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर 10 साल की कैद हो सकती थी, और बाद में लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर अधिक से अधिक 2 वर्ष की कैद और जुर्माना हो सकता था। बाद में अपील पर कैद रद्द कर सिर्फ जुर्माना भी लगाया जा सकता था। 40,000 लोगों की जघन्य हत्या को भारत के सम्माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक यातायात दुर्घटना में तब्दील कर दिया!

कॉमनवेल्थ में ‘‘कॉमन’‘ क्या और ‘‘वेल्थ’‘ किसका ?

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जो हज़ारों करोड़ रुपये की राशि आवण्टित है वह बड़ी–बड़ी ठेका कम्पनियों और ठेकेदारों की जेब में जा रही है। ठेकों के लिए दिल्ली सरकार के अफ़सरों–नौकरशाहों से लेकर मन्त्रियों और सचिवों तक को मोटी–मोटी रिश्वतें दी जा रही हैं। इन रिश्वतों के बदले बिककर नेताओं–नौकरशाहों का यह पूरा वर्ग काले धन की ज़बर्दस्त कमाई कर रहा है। इन निर्माण कार्यों के लिए आवण्टित फण्डों से ठेका कम्पनियाँ और ठेकेदार, निर्माण सामग्री बनाने वाली कम्पनियाँ, एकाउंटेंसी फर्में, और उनसे जुड़ी कम्पनियों के एक विशाल दायरे को अतिलाभ मिल रहा है। और ग़ौर करने की बात यह है कि यह हज़ारों करोड़ रुपये आम जनता की जेब से वसूले गये हैं। पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए कुछ ऐसी संरचनाओं का निर्माण किया जा रहा है जिनका कोई उपयोग नहीं होने वाला और इनके निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर, कॉमनवेल्थ खेलों के उदघाटन समारोह के लिए एक स्तम्भ का निर्माण किया जा रहा है जिसे उदघाटन समारोह के निर्माण के बाद 24 घण्टों के भीतर तोड़कर साफ़ कर दिया जाएगा!

एक और चुनाव सम्पन्न लेकिन सवाल हमेशा की तरह बरकरार है!

चीज़ें कभी अपने आप नहीं बदलतीं। उन्हें प्रयास करके बदलना पड़ता है। और इसके लिए बल लगाने की ज़रूरत होती है। आज ऐसी कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी शक्ति देश में मौजूद नहीं है जो जनता को इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ फ़ेंकने और एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था बनाने के लिए जागृत, गोलबन्द और संगठित कर सके। ऐसे में जनता विकल्पहीनता में इस या उस पार्टी के बीच झूलती रहती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में जनता के कुछ हिस्से कभी विद्रोह में उतरते भी हैं तो यह व्यवस्था ऐसे बिखरे प्रयासों को कुचल देती है। जब तक पूरे देश के पैमाने पर ऐसी किसी शक्ति को खड़ा नहीं किया जाता तब तक यह गोरखधन्धा चलता रहेगा।

मुम्बई पर आतंकवादी हमलाः सोचने के लिए कुछ ज़रूरी मुद्दे

कोई भी संवेदनशील और न्यायप्रिय नागरिक और नौजवान पूरे दिल से इन हमलों की निन्दा करेगा और इन्हें एक जघन्य अपराध मानेगा। हर कोई जानता है कि इन हमलों में तमाम आम, बेगुनाह लोगों की जानें गई हैं। उनके परिजनों-मित्रों के दर्द को हर कोई महसूस कर सकता है। इसमें कोई शक़ नहीं है कि ऐसे मानवताविरोधी कृत्यों की निन्दा सिर्फ़ औपचारिक रूप से दुख प्रकट करके नहीं की जा सकती और एक सोचने-समझने वाला इंसान अपने आपको ऐसे औपचारिक खेद-प्रकटीकरण तक सीमित नहीं रख सकता है। लेकिन हर विवेकवान नौजवान के लिए इस समय यह भी ज़रूरी है कि अंधराष्ट्रवादी उन्माद की लहर में बहने की बजाय वह संजीदगी के साथ आतंकवाद के मूल कारणों के बारे में सोचे? जिन आतंकवादियों ने मुम्बई में इस भयंकर हमले को अंजाम दिया वे जानते थे कि इसके बाद उनका बच पाना सम्भव नहीं है। इसके बावजूद वह कौन–सा जुनून और उन्माद था जो उनके सिर पर सवार था?