Category Archives: आर्थिक संकट

अमेरिकी ऋण सीमा “संकट”: विभ्रम और यथार्थ

श्रम की लूट व शोषण पर टिका पूँजीवाद स्वयं में संत नहीं हो सकता और नस्लवाद, जातिवाद तथा अन्य प्राक् पूँजीवादी मूल्यों-मान्यताओं का समाधान आज इस व्यवस्था में आमूल-चूल व्यवस्था परिवर्तन द्वारा ही सम्भव है। भारत में भी इसी व्यवस्था के भीतर संवैधानिक तरीकों के जरिए जाति समस्या के समाधान के सम्भव होने का राग अलापने वाले बुद्धिजीवियों को अपने आदर्श पूँजीवादी राज्य अमेरिका के समाज के इन तथ्यों पर भी नजर उठा कर देख लेना चाहिए।

बजट 2011-2012 : पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा, पूँजीपतियों के लिए

प्रणब मुखर्जी अब बजट पेश करने की कला में माहिर हो चुके हैं। चिदम्बरम सख़्ती से सरकार की नवउदारवादी नीतियाँ प्रस्तुत करते थे। फालतू कम बोलते थे। मुखर्जी वही सारी नीतियाँ लागू कर रहे हैं, लेकिन वे अपने बजट भाषण में फालतू बातें इतनी बोलते हैं कि असल मुद्दे उनके बीच में खो-से जाते हैं। शायद इसीलिए चिदम्बरम को गृहमन्त्री बना दिया गया! क्योंकि वहाँ आवश्यकता से अधिक स्पष्टवादिता ही ज़्यादा काम आती है! वित्तमन्त्री को तो फालूदेबाज़ी में निपुण होना चाहिए। इस मामले में बाबू मोशाय का तजुरबा ज़्यादा काम आ रहा है!

प्रो. प्रभात पटनायक के नाम एक खुला पत्र

आपकी राजनीतिक पक्षधरता आपको बौद्धिक तौर पर भी ईमानदार नहीं रहने देती है। इन दोनों के बीच द्वन्द्व चलता रहता है और अन्त वही होता है, जैसा कि हमेशा होता आया है – राजनीति की विजय होती है, और अर्थशास्त्र की पराजय! बेहतर होगा कि अपने मस्तिष्क के इस द्वन्द्व को किसी एक पार लगा दें। क्योंकि यह द्वन्द्व आपकी हर रचना में प्रकट हो जाता है और उसे ‘मास्टरपीस’ बनने से रोक देता है। या तो राजनीति के पक्ष में इस द्वन्द्व का समाधान हो जाये, या फिर आपकी अर्थशास्त्रियों वाली बौद्धिक ईमानदारी के ही पक्ष में इसका समाधान हो जाये। दोनों ही सूरत में तब आपका लेखन मास्टरपीस बनने की पूर्वशर्तें पूरा करने लगेगा। पहली सूरत में यह शानदार काउत्स्कीपन्थी लेखन बनेगा (जैसे कि साम्राज्यवाद पर आपका अति-साम्राज्यवाद वाला सिद्धान्त आया था, जिसकी आपने चर्चा ही करनी बन्द कर दी इस महामन्दी के बाद!) और दूसरी सूरत में यह एक अच्छा मार्क्सवादी आर्थिक लेखन बनेगा। और ऐसे में हम जैसे अर्थशास्त्र के विनम्र विद्यार्थी आपके लेखन से कन्फ्यूज़ हो जाने की बजाय, अधिक अच्छी अन्तर्दृष्टि विकसित कर पाने में समर्थ होंगे।

पॉल क्रुगमान का दर्द

क्रुगमान जैसे व्यवस्था-सेवक इस सच्चाई को नहीं समझ सकते या फिर समझ कर भी नासमझ बनते हैं और ‘विवेकवान पुरुषों’ की तरह पूँजीवादी व्यवस्था के संचालकों को भावी भयंकर विस्फोटों के बारे में सचेत करते रहते हैं। वास्तव में पॉल क्रुगमान, जोसेफ स्टिग्लिट्ज़, प्रभाट पटनायक, जयति घोष और सी.पी. चन्द्रशेखर जैसे अर्थशास्त्री कीन्सियाई अर्थशास्त्र के गुरुमन्त्र मुनाफ़े की हवस में आत्मघाती अराजक गति करती पूँजीवादी व्यवस्था की गति को कुछ नियमित करने में अपनी सारी ऊर्जा ख़र्च करते हैं। वास्तव में, सत्ता प्रतिष्ठानों में मोटी तनख़्वाहें उठाने वाले ये अर्थशास्त्री इसी सेवा का ही मेवा पाते हैं। जब इनकी ‘विवेकपूर्ण’ सलाहें नहीं मानी जाती हैं तो ये कुछ दुखी और बेचैन हो जाते हैं। पॉल क्रुगमान और उनके जैसे सभी कीन्स के चेलों का आज यही दर्द है कि पूरी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ता उनकी बात नहीं सुन रहे हैं और पूँजीवाद को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। लेकिन ये अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि व्यवस्था के पास भी और कोई विकल्प नहीं है। नियोजन और अराजकता के बीच जारी द्वन्द्व इस व्यवस्था के दायरे के भीतर हमेशा अराजकता की विजय के साथ समाप्त होता है।

यूरोपीय महाद्वीप के रंगमंच पर इक्कीसवीं सदी की ग्रीक त्रासदी

‘‘सभी ने सोचा था कि अब ‘दास कैपिटल’ की कभी कोई माँग नहीं होगी, लेकिन अब यह समझने के लिए तमाम बैंकर और मैनेजर भी ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं कि वे हमारे साथ क्या कारस्तानी करते रहे हैं।’‘ ये शब्द हैं जर्मनी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग के प्रबन्ध निदेशक जोअर्न श्यूट्रम्फ के जिन्होंने प्रसिद्ध समाचार एजेंसी रायटर को एक साक्षात्कार में यह बताया। इस वर्ष के मात्र चार महीनों में कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग ने मार्क्स की महान रचना ‘पूँजी’ की 1500 प्रतियाँ बेची हैं। बैंकर और मैनेजर ही नहीं बल्कि पूँजीवादी राजसत्ता के मुखिया भी आजकल उस जटिल वित्तीय ढाँचे को समझने के लिए ‘पूँजी’ पढ़ रहे हैं जो उन्होंने अपने मुनाफे की हवस में अन्धाधुन्ध बना दिया है। हाल ही में एक कैमरामैन ने फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी को ‘पूँजी’ पढ़ते हुए पकड़ लिया था!

साम्राज्यवाद के ‘चौधरी’ अमेरिका के घर में बेरोज़गारी का साम्राज्य

इन तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी मे साफ़ है कि विश्व को लोकतन्त्र व शान्ति का पाठ पढ़ने वाला अमेरिका खुद अपनी जनता को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूखमरी, अपराध से निजात नहीं दिला पाया। दूसरी तरफ़ शान्तिदूत ओबामा की असलियत ये है कि जिस हफ़्ते ओबामा को नोबल शान्ति पुरस्कार दिया गया, उसी हफ़्ते अमेरिकी सीनेट ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य बजट पारित किया 626 अरब डॉलर। और बुशकालीन युद्धनीति में कोई फ़ेरबदल नहीं किया गया और इस कारण आज भी अफ़गान-इराक युद्ध में अमेरिकी सेना वहाँ की निर्दोष जनता को ‘शान्ति का अमेरिकी पाठ’ पढ़ा रही है इन हालतों से साफ़ है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा जिस अमेरिका समाज की चकाचौंध दिखाई जाती है उससे अलग एक और अमेरिकी समाज है जो पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि समस्या से संकटग्रस्त है।

‘‘सक्षमकारी राज्य’’ का फण्डा यानी धनपतियों की चाँदी और जनता की बरबादी

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने पहली बार एक ऐसा हिस्सा रखा था जो मौजूदा सरकार के आर्थिक दर्शन को खोलकर रख देता है। पहले के आर्थिक सर्वेक्षण अधिकांशत: आय–व्यय की गणनाओं और लाभ–घाटे के आकलन में ही ख़त्म हो जाया करते हैं। प्रणब मुखर्जी मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञों में से एक हैं, बल्कि शायद सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन और पूँजीवादी अर्थनियोजन की गहरी समझदारी के आधार पर अपनी टीम के साथ मिलकर उन्होंने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि सरकार का काम जनता की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं होना चाहिए। इसकी उन्होंने काफ़ी आलोचना की है और कहा है कि ऐसी सरकार उद्यमिता और कर्मठता की राह में बाधा होती है। वास्तव में तो सरकार को एक “सक्षमकारी” भूमिका में होना चाहिए। उसका काम यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि लोग बाज़ार के खुले स्पेस में एक–दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करें, एक–दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करें और बाज़ार की प्रणाली में हस्तक्षेप किये बगैर उसे सामाजिक–आर्थिक समतुलन करने दें! वित्त मन्त्री महोदय आगे फरमाते हैं कि जो राज्य जनता की आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, आवास, भोजन आपूर्ति आदि को पूरा करने का काम अपने हाथ में ले लेता है वह लोगों को “सक्षम” नहीं बनाता; प्रणब मुखर्जी की राय में ऐसी सरकार एक “सक्षमकारी” सरकार नहीं होती बल्कि “हस्तक्षेपकारी” सरकार होती है! हमें ऐसी सरकार से बचना चाहिए! वाह! क्या क्रान्तिकारी आर्थिक दर्शन पेश किया है वित्तमन्त्री महोदय ने! लेकिन अगर आप पिछले कुछ दशकों की विश्व बैंक व अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आर्थिक रपटों का अध्‍ययन करें, तो आपको इस आर्थिक दर्शन की मौलिकता पर शक़ होने लगेगा। जिस शब्दावली और लच्छेदार भाषा में प्रणब मुखर्जी ने विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अनुशंसित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के इरादे को जताया है, वह कई लोगों को सतही तौर पर काफ़ी क्रान्तिकारी नज़र आ सकता है। लेकिन वास्तविकता क्या है, यह बजट 2010–2011 के विश्लेषण पर साफ़ ज़ाहिर हो जाता है।

क्यों है ऐसा पाकिस्तान?

आख़िर क्यों पाकिस्तान को बार-बार सैनिक तानाशाहों का मुँह देखना पड़ता है? आख़िर क्यों सैनिक सरकार न होने पर भी राजनीतिक से लेकर प्रशासनिक मामलों तक में सेना का इतना हस्तक्षेप होता है? क्यों बार-बार नागरिक सरकारें सेना के सामने घुटने टेक देती हैं? क्या इसके कारण पाकिस्तान के ऐतिहासिक विकास की विशिष्टताओं में निहित हैं? यह समझने के लिए हमें पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर एक निगाह डालनी होगी और अलग-अलग दौरों में सेना की भूमिका को भी समझना होगा।

मन्दी का मार से छिनते रोज़गार

हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट सामने आई जिसमें बताया गया है कि मन्दी के कारण इस वर्ष दुनिया भर में 5 करोड़ लोगों को बेरोज़गारी की मार झेलनी पड़ेगी। करीब 1 अरब 40 करोड़ लोग बेहद ग़रीबी में गुजर–बसर करने को मजबूर हो जायेंगे। मूडीस कैपिटल ग्रुप के प्रमुख अर्थशास्त्री जॉन लांस्की का कहना है कि वर्ष 2009 में अमेरिका में करीब 20 लाख 10 हजार नौकरियों में कटौती की जायेगी। कुछ कम्पनियों द्वारा छँटनी की प्रक्रिया पर अगर नजर डाली जाये तो नौकरियों के कम होते जाने की रफ्तार का अनुमान बड़े आराम से लगाया जा सकता है।

यूनान में जनअसन्तोष के फूटने के निहितार्थ

यदि इन प्रतिरोध-प्रदर्शनों के पीछे के वास्तविक कारणों की पड़ताल की जाय तो पता चलता है कि जनता के बड़े हिस्से में, विशेषकर युवा आबादी के बीच एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति गहरी पैठी नफ़रत और निराशा है जो केवल अमीरों और धनाढ्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है और उन्हीं के हितों की पूर्ति और रक्षा करती है। निजीकरण और उदारीकरण की वैश्विक लहर से यूनानी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रही है। नवउदारवादी नीतियों के चलते, सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक सेवाओं को लगातार निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और उन्हें अमीरों की बपौती बनाया जा रहा है। यदि केवल आँकड़ों की बात की जाय तो पूरे यूरोपीय संघ में यूनान में युवा बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है, जो लगभग 28 से 29 प्रतिशत के बीच है। इसके कारण युवावस्था पार करने के बाद तक ज्यादातर नौजवान आर्थिक रूप से अपने माँ-बाप पर ही निर्भर रहते हैं।