Category Archives: आर्थिक संकट

टीसीएस द्वारा कर्मचारियों की छँटनी: अन्त की ओर अग्रसर आईटी सेक्टर का सुनहरा युग

यह अच्छी बात है कि टीसीएस द्वारा निकाले गये कर्मचारियों ने हार नहीं मानी है और सोशल नेटवर्किंग के ज़रिये अपना एक फ़ोरम बनाकर और विभिन्न शहरों में प्रदर्शन करके कम्पनी के इस क़दम का एकजुट होकर विरोध करने का फैसला किया है। यह बिल्कुल हो सकता है कि कम्पनी या सेक्टर आधारित इस फ़ौरी लड़ाई से कुछ कर्मचारियों को कम्पनी द्वारा बहाल भी कर लिया जाये लेकिन यह समझना बहुत ज़रूरी है कि यह समस्या किसी एक कम्पनी या सेक्टर की समस्या नहीं है बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के सभी सेक्टरों में यह समस्या व्याप्त है जिसके लिए स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। ऐसे में अपनी फ़ौरी माँगों के लिए कम्पनी के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दूरगामी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई की तैयारी करनी होगी। इसके लिए आईटी सेक्टर में काम कर रहे कर्मचारियों को मज़दूर वर्ग के संघर्षों के साथ एकजुटता बनानी होगी। छँटनी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से स्थायी रूप से निजात पाने के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प खड़ा करना ही एकमात्र रास्ता है।

रघुराम राजन: पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों का रक्षक!

रघुराम राजन के बयानों को ऊपरी तौर पर पढ़ने से किसी को यह भ्रम हो सकता है कि ये बयान इस देश की जनता के हित को ध्यान में रखकर दिये गये हैं। परन्तु सावधानीपूर्वक इन बयानों की पड़ताल करने और राजन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को जानने के बाद हम पाते हैं कि दरअसल इन उग्र तेवरों के पीछे जनता के हित नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की हिफ़ाज़त करने की उनकी व्यग्रता छिपी है। इस लेख में पहले हम रघुराम राजन बुर्जुआ अर्थशास्त्र की जिस धारा से आते हैं उसका संक्षेप में ज़िक्र करेंगे और उसके बाद उनके बयानों के पीछे छिपी पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों के रक्षक की उनकी भूमिका पर बात करेंगे।

गहराते वैश्विक साम्राज्यवादी संकट के साये में जी20 शिखर सम्मेलन

सबसे पहले तो यह साफ़ कर लेना बेहद ज़रूरी है कि हम छात्रों-नौजवानों को इस बात से क्या मतलब है कि 20 देशों के मुखिया साथ मिलकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं और इससे हमारी ज़िन्दगियों पर क्या असर पड़ने वाला है? दरअसल, इस सम्मेलन में, जिसमें कि मोदी के साथ अन्य 19 लुटेरे शामिल हैं, उन सभी प्रश्नों पर चर्चा की गयी है, जो हमारी ज़िन्दगी के साथ बेहद करीबी से जुडे़ हुए हैं। पिछले करीब 8 वर्षों से साम्राज्यवादी संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़ रखी है, हालाँकि उसके पहले भी करीब तीन दशक से विश्व पूँजीवाद सतत् एक मन्द मन्दी का शिकार रहा था, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में टूटती रही थी। लेकिन 2007 से जारी आर्थिक संकट पिछले 80 वर्षों का सबसे भयंकर और अब तक का सबसे ढाँचागत संकट सिद्ध हुआ है। इससे कैसे उबरा जाये और विश्व-भर के मेहनतकश अवाम को कैसे और अधिक लूटा जाये, यही इस सम्मेलन का मूल मुद्दा था।

पाकिस्तान का वर्तमान संकट और शासक वर्ग के गहराते अन्तरविरोध

शायद पाठकों के लिए अब कल्पना करना सम्भव हो सके कि पाकिस्तान की जनता किन भीषण परिस्थितियों का शिकार है। एक ओर वह आर्थिक संकटों से जूझ रही है तो दूसरी ओर कट्टरपंथियों और आतंकियों का दंश भी बर्दाश्त कर रही है। वह अपने सैन्य तन्त्र के ज़ुल्मों को तो बर्दाश्त करती रही है, अब उसे अमेरिकी हमलों का भी निशाना बनाया जा रहा है। आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध के पिछले 13 वर्षों की आर्थिक लागत 102 अरब डॉलर है। यह रक़म पाकिस्तान के कुल विदेशी क़र्ज़ के बराबर है। एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तानी जनता के जीवन में तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है जब तक कि वह स्वयं अपने समाज के भीतर से नयी परिवर्तनकामी शक्तियों को संगठित कर वर्तमान पूँजीपरस्त जनविरोधी तन्त्र को ही नष्ट करने और एक नये समतामूलक समाज को बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती।

प्रथम विश्वयुद्ध के साम्राज्यवादी नरसंहार के सौ वर्षों के अवसर पर

आज प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पश्चात फ़िर से इसके कारणों की जाँच-पड़ताल करना कोई अकादमिक कवायद नहीं है। आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और आज भी साम्राज्यवाद द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अनेकों युद्ध थोपे जा रहे हैं। इसलिये यह समझना आज भी ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्यों और किस तरह से युद्धों को जन्म देता है। वैसे तो हर कोई प्रथम विश्व युद्ध के बारे में जानता है लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे, इस बारे में बहुत सारे भ्रम फैले हुए हैं या फिर अधिक सटीक शब्दों में कहें तो फैलाये गये हैं। अनेकों भाड़े के इतिहासकार इस युद्ध को इस तरह से पेश करते हैं मानो यह कुछ शासकों की निजी महत्त्वाकांक्षा व सनक के कारण हुआ था। अधिकतर इसकी पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ग़ायब कर देते हैं

यूक्रेन विवाद के निहितार्थ

साम्राज्यवादी ताक़तें युद्धों को अपने हिसाब से चाहे जितना विनियमित व अनुकूलित करने की कोशिश करें, साम्राज्यवादी युद्ध के अपने तर्क होते हैं, ये साम्राज्यवादी हुक़ूमतों की चाहतों से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवादी तन्त्र के अपने अन्तर्निहित तर्क से पैदा होते हैं। विश्वयुद्ध की सम्भावना पूरी तरह निर्मूल नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी अगर मौटे तौर पर बात करें तो पहले की तुलना में कम प्रतीत होती हैं। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है, तब तक मानवता को युद्धों से निजात मिलना मुश्किल है। युद्ध होता ही रहेगा चाहे वह ‘हॉटवॉर’ के रूप में हो या ‘कोल्डवॉर’ के रूप में, गृहयुद्ध के रूप में, क्षेत्रीय युद्ध या फिर विश्वयुद्ध के रूप में क्योंकि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध।

रेलवे सेक्टर को भी लुटेरों के हाथों में सौंपने की तैयारी

ये सभी क़दम उठाने के पीछे जो कारण बताये जा रहे हैं, वे वही पुराने कारण हैं जिनका बहाना लेकर एक-एक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी लुटेरों के हाथों कौड़ियों के भाव बेचा गया। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि रेलवे सेक्टर बेहद घाटे में चल रहा है और नक़दी की किल्लत के चलते यह काफ़ी जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए निजी निवेश के बग़ैर काम नहीं चलेगा, और ऐसे ही तमाम मूर्खतापूर्ण तर्क। इन सभी तर्कों की नग्नता को जनता का बड़ा हिस्सा पहले ही देख चुका है। फिर भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो कि मानता है कि निजीकरण से सारी समस्याएँ दूर हो जायेंगी, जिसमें ख़ासकर मध्यवर्गीय आबादी शामिल है। पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नौजवान भी इस भ्रम के शिकार हैं कि निजीकरण से सारी मौजूदा समस्याएँ दूर हो जायेंगी। वे आसानी से कहीं भी यह तर्क देते हुए मिल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों में रखरखाव ज़्यादा बेहतर होता है और काम अधिक नियमितता से होता है। लेकिन तथ्य बेरहम होते हैं और दूध का दूध व पानी का पानी कर देते हैं। 1991 से जो निजीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आयी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाढ़ आयी, उसका जनता पर क्या असर पड़ा है यह तो ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही देखा जा सकता है।

रुपये के मूल्य में गिरावट के निहितार्थ

रुपये में गिरावट सीधे चालू खाते के घाटे से जुड़ी है क्योंकि यह घाटा रुपये की तुलना में विदेशी करेंसी की कम आपूर्ति को दिखाता है। कुछ बुर्जुआ अर्थशास्त्री रुपये के मूल्य में गिरावट की वजह लोगों के पास ज़्यादा मुद्रा होना बताते हैं यानी कि अर्थव्यवस्था में माँग का बढ़ना बताते हैं। वे यह दावा करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने मनरेगा जैसी नीतियों के तहत रुपया पानी की तरह बहाया है जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ी है और आयात भी बढ़ा है जिसकी वजह से चालू खाते का घाटा बढ़ गया है। इसी हास्यास्पद तर्क की आड़ लेकर ये टुकड़ख़ोर खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार इससे माँग और बढ़ेगी, आयात बढ़ेगा और चालू खाते का घाटा और बढ़ेगा जिससे अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ जायेगा। इनसे यह पूछा जाना चाहिए कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मिलने वाली थोड़ी-बहुत सुविधाओं का लाभ जिस ग़रीब आबादी को मिलता है वह गाड़ी-मोटर तो चलाती नहीं, वह सोने और कीमती हीरे-जवाहरात भी नहीं ख़रीदती तो फिर उनके भरपेट खाने भर से भला आयात कैसे बढ़ जायेगा! इनके लचर तर्क से यह स्पष्ट है कि ग़रीबों का पेट भर खाना और उनके लिए रोज़गार के मामूली अवसर भी इन लग्गुओं-भग्गुओं को फूटी आँख नहीं सुहाता। शासक वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले ये टुकड़खोर अर्थशास्त्री हर साल कॉरपोरेटों को दी जाने वाली अरबों की सब्सिडी के बारे में मौन रहते हैं।

भारतीय राज्यसत्ता का निरंकुश एवं जनविरोधी चरित्र पूँजीवादी संकट का लक्षण है

सवाल सिर्फ़ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यातना से हुई मौतों, हड़तालों पर प्रतिबन्ध, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के बर्बर दमन और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारियों की हत्याओं व गिरफ़्तारीयों का ही नहीं है बल्कि शिक्षा पद्धति, संस्कृति, न्याय व्यवस्था के फासिस्टीकरण व सर्वसत्तावादीकरण का भी है। मज़दूरों के लिए सत्तातन्त्र पहले भी कभी जनवादी नहीं था, लेकिन फासीवादियों के सत्ता में आने पर उनपर दमन और भी भयंकर हो जाता है। गुजरात में मोदी के ‘मॉडल’ का मज़दूरों के लिए क्या अर्थ है? यह मोदी ने खुद ही बता दिया था जब उसने कहा था कि गुजरात में हमें श्रम विभाग की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि मालिक कभी कारखाने में ख़राब मशीने लगाता ही नहीं है; वह तो मज़दूरों के संरक्षक/पिता के समान होता है! हर मज़दूर जानता है कि यह “संरक्षण” और “पितृत्व” किस प्रकार का होता है! ज़ाहिर है, मोदी सत्ता में आयेगा तो वह पहली चोट मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी व जनवादी ताक़तों पर ही करेगा। यही कारण है कि टाटा, बिड़ला, अम्बानी, जिन्दल, मित्तल जैसे लुटेरे मोदी की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे हैं। देश में आज फासीवादी उभार की पूरी ज़मीन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण तैयार हो रही है। यह सच है कि इस नग्न और बेशर्म फासीवाद के सत्ता में आये बग़ैर भी भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र दमनकारी और जनविरोधी था और रहेगा। आवर्ती क्रम में आने वाला पूँजीवादी संकट आवर्ती क्रम में मोदी जैसे फासीवादियों की ज़रूरत भी पैदा करता रहता है। आज यही हो रहा है। निश्चित तौर पर, भारतीय राज्यसत्ता के पूरे दमनकारी चरित्र के ख़िलाफ़ संघर्ष तो ज़रूरी है ही लेकिन इस समय साम्प्रदायिक फासीवादी उभार से निपटने के लिए अलग से विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत है और सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों को इस पर काम करना चाहिए।

उदार बुर्जुआ बनाम फ़ासीवादः दोनों छद्म विकल्प हैं, हमें दोनों ही नहीं चाहिये!

भारतीय पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ अमर्त्य सेन और जगदीशचन्द्र अपने-अपने नुस्खों को लेकर भिड़ गये हैं। अमर्त्य सेन अपनी पुरानी कीन्सीय दुकान पर उदार पूँजीवाद के नुस्खे से बनी दवाइयाँ बेच रहे हैं तो जगदीशचन्द्र खुले बाज़ार की कड़वी फ़ासीवादी दवाई बेच रहे हैं। हालाँकि यह बहस ही बेकार है क्योंकि न तो उदार और न ही खुला बाज़ार पूँजीवाद को उसकी बीमारी से निजात दिला सकता है। ये दोनों ही छद्म विकल्प हैं। इस बीमारी का एकमात्र इलाज पूँजीवाद की अन्त है। और जब तक यह नहीं होता तब तक ऐसे अर्थशास्त्री इस लाइलाज बीमारी पर अपनी दुकान चलाते रहेंगे।