आ गये “अच्छे दिन”!

सम्‍पादक मण्‍डल

Modi cartoon 1नरेन्द्र मोदी की सरकार बन चुकी है। सरकार बनने के दो महीने के भीतर ही मोदी ने दिखला दिया है कि देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के कारपोरेट घरानों ने मोदी की सरकार बनवाने के लिए हज़ारों करोड़ रुपये क्यों ख़र्च किये; दुनिया भर के मीडिया ने मोदी को भारतीय राजनीति के ‘सुपरमैन’ और भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं के समाधान के तौर पर क्यों पेश किया। अगर आप ग़ौर करें कि नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमन्त्री बनते ही पहली प्राथमिकताओं में कौन-सी नीतियों को लागू किया और क्या घोषणाएँ कीं, तो आप समझ सकते हैं कि जब चुनावों से पहले भाजपा ने “अच्छे दिनों” की बात की थी, तो उसने झूठ नहीं बोला था! क्योंकि भाजपा ने यह नहीं बताया था कि ये “अच्छे दिन” किसके लिए होंगे? अब दो माह बीत जाने के बाद यह साफ़ हो गया है कि ये “अच्छे दिन” जनता के लिए नहीं बल्कि देश-विदेश के पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों के लिए हैं। जनता के लिए मोदी क्या सौग़ात लाए हैं, यह उन्होंने बाद में बताया! सरकार बनने के चन्द दिनों के बाद ही मोदी ने बताया कि जनता को “कठोर कदमों” के लिए तैयार रहना चाहिए। इस मामले में मोदी कोई नयी-नवेली बात नहीं कह रहे थे, बल्कि उन्हीं शब्दों को हूबहू दुहरा रहे थे, जो कि हर सरकार के प्रधानमन्त्री ने अब तक अपनी सरकार बनने के बाद कही है! पता नहीं क्यों हर नया प्रधानमन्त्री जनता के लिए “कठोर कदमों”, “सख़्त नीतियों”, “देश के विकास के लिए पेट पर पट्टी बाँधने” के लिए क्यों कहता है? कभी टाटा-बिड़ला जैसों को तो पेट पर पट्टी बाँधने या अपना मुनाफ़ा कम करने की हिदायत नहीं दी जाती?

Aache Dinबहरहाल, नरेन्द्र मोदी ने आते ही जो घोषणाएँ की हैं और जो नीतियाँ लागू की हैं, उन पर ज़रा एक निगाह डालते हैं। मोदी ने चुनाव अभियान में अपनी तस्वीर एक जादूगर के तौर पर पेश की जो देश की सभी समस्याओं का छड़ी घुमाकर समाधान कर देंगे; महँगाई और बेरोज़गारी ख़त्म कर देंगे; भ्रष्टाचार ख़त्म कर देंगे, वगैरह। अपने सफल प्रशासक होने और देश की तस्वीर बदलने के अपने दावों के समर्थन के लिए मोदी ने तथाकथित “गुजरात मॉडल” के बारे में लगातार मिथकों का प्रचार किया और पूरा मीडिया इसमें मोदी के साथ था। जिस देश में व्यापक आम मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और असंगठित सर्वहारा वर्ग और साथ ही व्यापक आम किसान आबादी की राजनीतिक चेतना बेहद पिछड़ी हुई हो, वहाँ आज के शक्तिशाली और सर्वव्यापी मीडिया द्वारा मिथकों का प्रचार भी बहुत असर डालता है। गोयबल्स ने कहा था कि झूठ को सरल और छोटा रखो और उसे बार-बार दुहराओ, इससे वह सच बन जाता है। मोदी के पूरे प्रचार अभियान का सूत्रवाक्य यही फासीवादी उक्ति थी। और जैसा कि लेनिन ने कहा था कि आम मेहनतकश जनता पहले से और स्वयं ही प्रगतिशील अवस्थिति नहीं अपनाती है; कई बार बेहद थकान और संकट की स्थिति में आम मेहनतकश जनता ही प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पक्ष में जा खड़ी होती है। कई बार राजनीतिक चेतना की कमी के कारण भी जनता का अच्छा-ख़ासा हिस्सा फासीवादी मिथकों पर यक़ीन करने को तैयार हो जाता है। ऐसे में, जनता अपने अनुभवों से और काफ़ी खून देकर ही सीखती है। और जनता को यह कठोर शिक्षा नरेन्द्र मोदी ने देनी शुरू कर दी है। मोदी ने सत्ता में आते ही रेलवे का किराया बढ़ा दिया। सभी जानते हैं कि रेलवे के किराये के बढ़ने का असर हर वस्तु की कीमत पर पड़ता है। साथ ही, रसोई गैस व अन्य पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भी बढ़ोत्तरी कर दी गयी। यह भी समूची महँगाई को बढ़ाता है, इस बात को हर कोई जानता है। इन दोनों कदमों के अलावा मोदी के आने के बाद से खाद्य उत्पादों की कीमतों की बढ़ोत्तरी जारी रही है। खाने-पीने की सबसे बुनियादी चीज़ें लगातार महँगी हुई हैं, जैसे कि अनाज, सब्ज़ियाँ, दालें, तेल आदि। एग्रो-आधारित व सम्बन्धित क्षेत्र की कम्पनियों और साथ ही धनी किसानों का मुनाफ़ा काफ़ी हद तक सरकार द्वारा अधिक से अधिक कीमतों पर ख़रीद पर आधारित होता है। ग़ौरतलब है कि संघ परिवार ने भारत की कुलक राजनीति में जगह बनाने की कोशिशें शुरू की हैं और उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट क्षेत्र में मुसलमानों और जाटों के बीच दंगे करवाने का काफ़ी योगदान था। हरियाणा में भी चुनाव आने वाले हैं और भाजपा यहाँ पर भी क्लासिकीय कुलक राजनीति के किलों में सेंध लगाने की फिराक़ में हैं। भारतीय फासीवादियों को अपनी एक कमी हालिया वर्षों में समझ में आयी है और इसमें उन्हें मुसोलिनी से काफ़ी शिक्षा मिली है। इटली में फासीवादी उभार में शहरी टटपुँजिया और लम्पट सर्वहारा वर्ग के अलावा जिस वर्ग का भारी योगदान था और जिस वर्ग ने इतालवी फासीवाद को बाहुबल प्रदान किया, वह था दक्षिण इटली का लातिफुन्दिस्त वर्ग (यानी बड़े किसान और पूँजीवादी भूस्वामी)। भारत में चरणसिंह और बाद में उनकी जगह लेने वाली कई कुलक राजनीतियों के समुच्चय (जिसमें अजित सिंह से लेकर समाजवादी पार्टी और इण्डियन नेशनल लोकदल तक शामिल हैं) का असर नवउदारवादी नीतियों के दौर में कुलक और धनी किसान वर्ग में कमज़ोर हुआ है; इसके कई राजनीतिक और ऐतिहासिक कारण हैं जिनके विश्लेषण में हम यहाँ नहीं जा सकते। लेकिन इस राजनीति के कमज़ोर होने के साथ जो खाली जगह पैदा हुई है, उसे भारतीय फासीवादी संघ गिरोह ने कुशलता से पहचाना है। कुलकों और धनी किसानों के वर्ग में फासीवादी राजनीति का आधार बनने की सम्भावना-सम्पन्नता तो पहले से ही मौजूद थी। लेकिन कुलक राजनीति के क्लासिकीय संस्करणों और बाद में इन क्लासिकीय संस्करणों की दरिद्र प्रतिलिपियों और नकलों के चुकने के बाद ही संघ परिवार इस सम्भावना-सम्पन्नता को असलियत में तब्दील करने का काम शुरू कर पाया है। ज़ाहिर है कि इस काम को भाजपा लगातार जारी रखना चाहेगी और इसलिए कृषि क्षेत्र के पूँजीपति वर्ग को वह नाराज़ नहीं करेगी। नतीजतन, लाभकारी मूल्य में बढ़ोत्तरी की ही जायेगी जिसका नतीजा आने वाले समय खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के रूप में सामने आयेगा। इसका दूसरा कारण यह है कि सरकार को देशी-विदेशी बड़ी पूँजी को तमाम छूटें और रियायतें देने से जो बजट घाटा होगा और हो रहा है उसे भरने के लिए सरकार हर क्षेत्र से सब्सिडी की कटौती करेगी, जिसमें खाद्यान्न वितरण भी शामिल है। परिणामतः, खाद्यान्न की कीमतों पर नियन्त्रण क्रमिक प्रक्रिया में समाप्त किया जायेगा। सार्वजनिक खाद्यान्न वितरण प्रणाली को भी इसी मंशा के तहत योजनाबद्ध ढंग से ख़त्म किया जा रहा है, हालाँकि यह काम कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार के दौरान ही शुरू किया जा चुका था। जमाखोरों पर नियन्त्रण करना मोदी और भाजपा के लिए असम्भव है क्योंकि भाजपा की कतारों के बीच ही व्यापारियों और जमाखोरों की भरमार है। ऐसे में, जमाखोरी भी बदस्तूर जारी रहेगी। लुब्बेलुबाब यह कि बढ़ती महँगाई पर मोदी सरकार कुछ नहीं करने वाली है और न कुछ कर सकती है। महँगाई बढ़ते रहना जिन वर्गों के हित में है, भाजपा उनकी वर्गों की नुमाइन्दगी करती है। सरकार बनने के एक माह बाद ही मोदी सरकार के वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने एलान कर दिया कि 9 सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों का निजीकरण किया जायेगा और उनके निशाने पर कुल 22 सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ हैं जिनका निजीकरण जल्द ही किया जायेगा। ज़ाहिर है ये कम्पनियाँ जो कि जनता के संसाधनों पर खड़ी की गयीं हैं, उन्हें कौड़ियों के मोल अदानी, अम्बानी जैसे लुटेरों को सौंप दिया जायेगा।

Budget cartoonइसके अलावा, मोदी ने सरकार बनाते ही जिस वर्ग को सबसे पहले निशाना बनाया है वह है मज़दूर वर्ग। सरकार बनने के कुछ दिनों बाद ही मोदी ने एलान किया कि औद्योगिक विवाद कानून और कारखाना अधिनियम में संशोधन किया जायेगा। इसके बाद, सरकार ने अपनी मंशा साफ़ करते हुए बताया कि फैक्टरी इंस्पेक्टर के पद को आने वाले समय में समाप्त कर दिया जायेगा। ज्ञात हो कि कारखाना मालिक कारखाना अधिनियम के तमाम प्रावधानों का पालन करते हैं या नहीं, यह जाँचने का काम फैक्टरी इंस्पेक्टर का ही होता है। वैसे तो पहले भी फैक्टरी इंस्पेक्टर कुछ नहीं करते थे, लेकिन कई जगहों पर मज़दूरों के आन्दोलन के दबाव में श्रम विभाग को भी कार्रवाई करनी पड़ी थी। इसीलिए मोदी पूँजीपतियों के लिए हर कानूनी रुकावट और बाधा को ख़त्म कर रहा है। अभी कुछ ही दिनों पहले स्वैच्छिक ओवरटाइम की सीमा को भी मोदी सरकार ने बढ़ाने का प्रस्ताव पास किया है। सभी जानते हैं कि मज़दूर ओवरटाइम आम तौर पर इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती है और अगर मिले भी तो वह बेहद कम है। आर्थिक तौर पर, उन पर ओवरटाइम थोपा गया होता है क्योंकि उसके बिना वे दो जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं कर सकते। यदि आठ घण्टे के कार्यदिवस और न्यायपूर्ण न्यूनतम मज़दूरी दी जाये तो मज़दूर क्यों 12 से 14 घण्टे कारखाने में खटना चाहेगा? लेकिन मोदी ने आते ही पूँजीपतियों से किये गये अपने पुराने वायदे को पूरा करना शुरू कर दिया है; ज्ञात हो कि मोदी ने कहा था गुजरात में श्रम विभाग को अनौपचारिक तौर पर समाप्त कर दिया गया है क्योंकि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है; साथ ही, मोदी ने पूँजीपतियों से यह वायदा किया था कि यदि वह प्रधानमन्त्री बनता है तो वह पूरे देश को विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) बना देगा। आज मोदी जो नीतियाँ लागू कर रहा है वे इसीलिए हैं कि आने वाले समय में पूरे देश को विशेष आर्थिक क्षेत्र में तब्दील कर दिया जाय, यानी कि मज़दूर वर्ग के लिए एक यातना शिविर।

भाजपा और नरेन्द्र मोदी जानते हैं कि इन जनविरोधी नीतियों के कारण राजग सरकार लगातार अलोकप्रिय होती जायेगी। लेकिन यहाँ दो चीज़ें ग़ौर करने वाली हैं। एक तो यह कि अलोकप्रिय होने की इस प्रक्रिया को रोकने या कम-से-कम धीमा करने के लिए मोदी सरकार कुछ विशेष कदम उठा रही है। एक तो वही कदम है जो कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार पहले से उठा रही थी और वह है देश के खाते-पीते उच्च मध्यवर्ग को तोहफ़े पर तोहफ़े देना। यह काम मोदी भी कर रहा है। साथ ही, मोदी हिन्दुत्ववादी लोकरंजक प्रतीकवाद का इस्तेमाल कर रहा है। मिसाल के तौर पर, तीर्थयात्रियों के लिए वैष्णव देवी के लिए कुछ ट्रेनों को चलाना, गंगा की सफाई का अभियान चलाना, लगातार मन्दिरों के दौरे करना और अपने आपको ईश्वर के परमभक्त के तौर पर पेश करना, आदि। इसके अलावा, एक अन्य काम जो मोदी कर रहा है वह है निम्न स्तर की नौकरशाही में भ्रष्टाचार को कम करने का भ्रम पैदा करना। इस कदम से भी एक किस्म की प्रतीकात्मक छवि का निर्माण होता है। वास्तव में, भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आने वाली है, लेकिन कुछेक भ्रष्टाचार-विरोधी कार्रवाइयों का जमकर प्रचार मोदी सरकार की भ्रष्टाचार-विरोधी छवि को स्थापित करने का काम करेगा। लेकिन इस सारे प्रतीकवाद और हिन्दुत्ववादी लोकरंजकतावाद के बावजूद, मोदी सरकार में बैठे घाघ जानते हैं कि भाजपा की सरकार को पूँजीपतियों ने हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके जिस काम के लिए बनवाया है, मोदी को पाँच साल में वे काम करने है। इसके बाद अगर अलोकप्रिय होकर मोदी सरकार अगला चुनाव हार भी जाये तो भारतीय पूँजीपति वर्ग को फासीवादियों से जिस सेवा की ज़रूरत थी, वह उसे मिल चुकी होगी।

वर्तमान आर्थिक संकट के दौर में गिरते मुनाफ़े, अतिउत्पादन, निवेश के गिरते स्तर और छँटनी, तालाबन्दी और बेरोज़गारी के कारण बेकाबू होते सामाजिक हालात के दौर में पूँजीपति वर्ग को एक ऐसी सरकार की ज़रूरत थी, जो कि एक बार धक्का मारकर नवउदारीकरण की नीतियों को लागू करे और लूट और मुनाफ़े के रास्ते में आने वाले हर ‘स्पीड ब्रेकर’ को सपाट कर दे और साथ ही सामाजिक असन्तोष पर और मज़दूर आन्दोलनों पर लोहे के हाथों से दमन करे। पूँजीपति वर्ग को इसीलिए हमेशा कई पार्टियों की ज़रूरत होती है। आज पूँजीवाद विश्व पैमाने पर जिस दौर में है, उसे हर जगह फासीवादी और धुर दक्षिणपंथी सत्ताओं की ज़रूरत है, जो एक ओर तो पूँजी की ताक़त को बेरोक-टोक लूट की आज़ादी दे और वहीं दूसरी ओर जनता के प्रतिरोध को धर्म-जाति-नस्ल आदि के आधार पर बाँट दे और उसे बर्बरता से कुचले। आज पूरी दुनिया में तमाम जगहों पर दक्षिणपंथी और फासीवादी पार्टियों के उभार का यही ऐतिहासिक सन्दर्भ है। कई देशों में ये पार्टियाँ सरकार बनाएँगी या बना चुकी हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि पूँजीवादी राजनीति में सक्रिय अन्य चुनावी पार्टियों की प्रासंगिकता ख़त्म हो जायेगी या वे पार्टियाँ ही काल-कवलित हो जायेंगी, जैसा कि कई लोग भारत में कांग्रेस के बारे में कह रहे हैं। नरेन्द्र मोदी पूँजीवाद के आज के दौर की ज़रूरत है। और इसीलिए पूँजीपति वर्ग ने एकजुट होकर मोदी की हवा तैयार की। लेकिन आने वाले पाँच वर्षों में पूँजीपति वर्ग की लूट को जिस तरह से मोदी खुला हाथ देगा और उसके नतीजे के तौर पर महँगाई, बेरोज़गारी, लूट और शोषण जिस कदर बढ़ेगा, वह मोदी और संघ परिवार को एक बार फिर से सापेक्षिक रूप से अप्रासंगिक बना देगा और एक बार फिर से कांग्रेस या संयुक्त मोर्चा जैसी किसी सरकार को ज़्यादा प्रासंगिक बना देगा और विस्फोटक होते जनअसन्तोष का शमन करने के लिए कुछ दिखावटी कल्याणकारी नीतियों को लागू करे और जनता के गुस्से को ठण्डा करे।

लेकिन फिलहाल अभी की सच्चाई यह है कि आने वाले पाँच वर्षों तक नरेन्द्र मोदी की सरकार देशी-विदेशी पूँजी को अभूतपूर्व रूप से छूट देगी कि वह भारत में मज़दूरों और ग़रीब किसानों और साथ ही निम्न मध्यवर्ग को जमकर लूटे। इस पूरी लूट को “राष्ट्र” के “विकास” का जामा पहनाया जायेगा और इसका विरोध करने वाले “राष्ट्र-विरोधी” और “विकास-विरोधी” करार दिया जायेगा; मज़दूरों के हर प्रतिरोध को बर्बरता के साथ कुचलने का प्रयास किया जायेगा; स्त्रियों और दलितों पर खुलेआम दमन की घटनाओं को अंजाम दिया जायेगा; देश के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगों और नरसंहारों को अंजाम दिया जायेगा और अगर इतना करना सम्भव न भी हुआ तो धार्मिक अल्पसंख्यकों को दंगों और नरसंहारों के सतत् भय के ज़रिये अनुशासित किया जायेगा और उन्हें दोयम दर्जे़ का नागरिक बनाया जायेगा। निश्चित तौर पर, यह प्रक्रिया एकतरफ़ा नहीं होगी और देश भर में आम मेहनतकश अवाम इसका विरोध करेगा। लेकिन अगर यह विरोध क्रमिक प्रक्रिया में संगठित नहीं होता और एक सही क्रान्तिकारी नेतृत्व के मातहत नहीं आता तो बिखरा हुआ प्रतिरोध पूँजी के हमलों का जवाब देने के लिए नाक़ाफ़ी होगा। इसलिए ज़रूरत है कि अभी से एक ओर तमाम जनसंघर्षों को संगठित करने, उनके बीच रिश्ते स्थापित करने और उन्हें जुझारू रूप देने के लिए काम किया जाये और दूसरी ओर एक सही राजनीतिक नेतृत्वकारी संगठन के निर्माण के कामों को पहले से भी ज़्यादा द्रुत गति से अंजाम दिया जाये।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2014

 

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